दृष्टिहीन पंकज ने कैसे कमाया वकालत की दुनिया में अपना नाम
"ज़िन्दगी में सब बात नज़रिए की है. अगर आप अपने अंदर की कमी को ही देखते रहेंगे तो प्रयास कब करेंगे. लोगों को अपनी आंखों से पर्दा हटाकर हमसे हमदर्दी जताने की जगह हमारा हौसला देखना चाहिए'' ये शब्द हैं अपने हौसले और हिम्मत की बदौलत दृष्टिहीन होने के बावजूद वकालत की दुनिया में अपना नाम कमाने वाले पंकज सिन्हा का.
"ज़िन्दगी में सब बात नज़रिए की है. अगर आप अपने अंदर की कमी को ही देखते रहेंगे तो प्रयास कब करेंगे. लोगों को अपनी आंखों से पर्दा हटाकर हमसे हमदर्दी जताने की जगह हमारा हौसला देखना चाहिए''
ये शब्द हैं अपने हौसले और हिम्मत की बदौलत दृष्टिहीन होने के बावजूद वकालत की दुनिया में अपना नाम कमाने वाले पंकज सिन्हा का.
पंकज सिन्हा की शुरुआती ज़िंदगी काफ़ी कठिन रही. उन्हें दर-दर पर दृष्टिहीन होने की वजह से कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा.
लेकिन तमाम परेशानियों से जूझने के बाद भी पंकज सिन्हा ने क़ानून की दुनिया में समाज के कमज़ोर लोगों की आवाज़ बनकर एक मुक़ाम हासिल किया है.
दिल्ली हाईकोर्ट में वक़ालत
उनके वकील बनने की कहानी को जानने के लिए हम हाई कोर्ट पहुंचे.
कुछ मंज़िल ऊपर चढ़कर उनका चैंबर आता है. चैंबर के दरवाज़े पर सबसे पहले हमारी नज़र उनके नेम-प्लेट पर पड़ी जिस पर हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा में उनका नाम और पद तो लिखा ही था साथ ही ब्रेल लिपि (ब्रेल स्क्रिप्ट) में भी उनका नाम अंकित था.
बचपन में मिट्टी से बने अक्षरों को छू-छू कर की पढ़ाई
38 साल के पकंज सिन्हा झारखंड में रामगढ ज़िले के रहने वाले हैं जिनके पिता, अजीत सिन्हा का वकालत से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था.
वह रेलवे कॉन्ट्रैक्टर थे और मां, उषा देवी, पहले सरकारी स्कूल में पढ़ाती थीं. पिता का 2016 में दिल की बीमारी के चलते देहांत हो गया था.
पंकज सिन्हा के पाँच भाई और एक बड़ी बहन हैं.
पंकज बताते हैं कि चूंकि वह जन्म से ही दृष्टिहीन थे तो उनके माता-पिता को उनकी सबसे ज़्यादा चिंता रहती थी.
वह सोचते थे कि सातों बच्चों में वह कहीं सबसे पीछे ना रह जाएं.
पंकज के माता-पिता ने उनके इलाज के लिए पहले रांची स्थित सरकारी अस्पतालों का दरवाज़ा खटखटाया.
इसके बाद पंजाब की तरफ़ भी रुख किया और एक आख़िरी कोशिश दिल्ली के एम्स में भी की.
लेकिन सबके नतीजे एक ओर ही इशारा कर रहे थे कि शायद पंकज को इस कड़वे सच के साथ जीना पड़ेगा.
जहां परिवार वाले उन्हें बेचारा समझ कर हमदर्दी दिखा रहे थे, वहीं उस छोटी सी उम्र में पंकज अपने भविष्य के लिए सपने बुन रहे थे.
पकंज 1996 की बात याद करते हुए कहते हैं, ''उन दिनों मैं 8वीं क्लास में था तो बॉलीवुड की फ़िल्मों में वकीलों के बारे में सुनकर उस पेशे से प्रभावित हुआ करता था.''
वह बताते हैं, ''घर वाले मेरी फ़िक्र करते थे लेकिन मेरी लाचारी के बारे में मेरे सामने कुछ नहीं कहते थे, हां मेरे पीछे वह मानसिक रूप से परेशान रहते लेकिन मेरे सोचने समझने का तरीक़ा ज़रा अलग रहता था.''
पंकज ने स्कूल की सारी पढ़ाई ब्लाइंड स्कूल से की.
वह कहते हैं कि उनके दादा जी उनके भाइयों से मिट्टी के अक्षर जैसे 'क ख ग' या 'ए बी सी' बनवाते थे और उन्हें उसे छूकर पहचानने को कहते थे.
- इस शख़्स ने यूं फ़ोन को बना लिया अपनी आंख
- पुरुष जो महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा रोकने के रास्ते सीख रहे हैं
जब पिता ने दिया 5 हज़ार का लालच
जब वह 12वीं में पहुंचे तो उन्होंने वकालत करने की अपनी इच्छा ज़ाहिर की. पूरा घर उनके ख़िलाफ़ हो गया.
उनके पिता ने उनका ध्यान भटकाने के लिए उन्हें चुनौती दी कि अगर उनका दिल्ली विश्वविद्धालय के सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज में दाख़िला हो गया तो वह उनको 5 हज़ार रुपए देंगे.
उनके पिता उन्हें टीचर या किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर बनाना चाह रहे थे.
परिवार को लगा कि यही सबसे सुरक्षित करियर होगा इसलिए पिता ने बेटे को सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज से हिस्ट्री में ग्रेजुएशन करवाने के लिए ये तरीक़ा सोचा.
पैसों के लालच में पंकज ने तैयारी शुरू कर दी और उसका परिणाम यह निकला कि उनका सेंट स्टीफेंस कॉलेज में दाख़िला हो गया और फिर उन्होंने वहां से इतिहास (हिस्ट्री) में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की.
लेकिन पंकज का मन तो उस काले कोट पर अटक गया था. उन्होंने जैसे-तैसे अपने पिता को मनाया और दिल्ली के कैंम्पस लॉ सेंटर से लॉ की पढ़ाई की.
कैसे पढ़ीं क़ानून की किताबें?
पंकज ने बताया उनके कॉलेज के शिक्षक उन्हें किताबों की सॉफ़्ट कॉपी देते थे जो ऑडियो फॉर्मेट में रहती थी.
फिर वहां उनके जो दोस्त बनें, उन्होंने पंकज का बहुत साथ दिया.
वह उनको किताबें पढ़कर सुनाते या फिर वह किसी निजी कंपनी से ब्रेल में किताबें छपवाते.
लेकिन वह बहुत महंगी पड़ती थी इसलिए पंकज केवल सबसे ज़रूरी किताब ही ब्रेल में स्क्रिप्ट कराते.
चलिए इस चुनौती का सामना तो उन्होंने 'जहां चाह वहां राह' वाली तर्ज़ पर कर लिया लेकिन जब उन्होंने अपनी वकालत शुरू की तब उन्हें काम कैसे मिला?
पंकज सिन्हा ने एक एनजीओ और एक सीनियर दृष्टिबाधित वकील के साथ काम करने के बाद अपनी निजी वकालत शुरू की.
वह बताते हैं कि शुरू में लोग संकोच करते थे लेकिन वह वकालत में अपनी अच्छी पकड़ के चलते, क़रीब एक या दो मीटिंग में वो केस अपने नाम लिखवा लेते.
नौकरी की थी तैयारी, बन गईं सबसे युवा सांसद
हाई कोर्ट दृष्टि बाधित वकीलों के लिए कितने सशक्त है?
केस पर काम शुरू करने पर दूसरी चुनौती आती है कि उसको कैसे तैयार किया जाए.
पंकज सिन्हा ने बताया कि ''आप चाहे हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट, भारत के किसी भी कोर्ट की बात करिए दृष्टिबाधित वकीलों की सहूलियत की कोई इतनी नहीं सोचता.
जो केस हमारे ख़िलाफ़ लड़ रहा है उसको सॉफ़्ट कॉपी में हमें दस्तावेज़ देने चाहिए.
लेकिन मैं अपने केस के लिए ख़ुद ब्रेल में लिखकर अपने नोट्स तो बनाता ही हूं साथ ही मेरे ख़िलाफ़ खड़े वकील के दस्तावेज़ों की भी कॉपी ख़ुद बनाता हूं.
फिर मेरे साथ काम कर रहे जूनियर वकीलों से रिसर्च करवाता हूं. ''
पंकज बताते हैं, ''सहूलियत के नाम पर हमारे लिए रास्ते के लिए रैम्प बनाए गए हैं और लिफ़्ट की सुविधा है."
लेकिन वकीलों की लाइब्रेरी में कुछ क़िताबों को छोड़, और किताबें ब्रेल में उपलब्ध नहीं हैं.
शायद ही कोई कम्प्यूटर लाइब्रेरी में होगा जिसमें दृष्टिबाधित लोगों के लिए बना सॉफ़्टवेयर आपको मिलेगा.''
फिर भी पंकज सिन्हा हताश नहीं होते और बताते हैं कि वह किसी ना किसी तरह अपना काम करते रहते हैं और उनके पास कई मामले भी आते हैं.
जब हम उनसे बात करने पहुंचे थे तब भी उनके चैंबर के आगे भीड़ थी और एक महिला अपनी मां के साथ पंकज के केबिन में केस लेकर आई हुई थी.
पंकज सिन्हा ही वह वकील हैं जिन्होंने 2011 में बधिर लोगों को गाड़ी चलाने के लिए ड्राइविंग लाइसेंस मिलने के हक़ में केस लड़ा और जीता था.
यह केस काफ़ी प्रसिद्ध हुआ था.
पंकज की लव स्टोरी
पंकज सिन्हा की शादी रेखा रानी के साथ हुई. रेखा दृष्टिबाधित नहीं हैं जिससे रेखा के बारे में जानने की जिज्ञासा बढ़ जाती है.
हमने पंकज की पत्नी रेखा रानी से पूछा कि उन्होंने पंकज में ऐसा क्या देखा जो उनको वह पसंद आ गए.
रेखा मुस्कुराते हुए बताती हैं कि उनकी पंकज से मुलाक़ात एक ग़ैर सरकारी संगठन में हुई थी.
पंकज की बेबाकी, ईमानदारी और वकालत पर अच्छी पकड़ उन्हें लुभा गई.
पहले रेखा के घर वाले इस रिश्ते के ख़िलाफ़ थे.
रेखा ने बताया कि ''मां ने मुझे कहा कि तुम अगर पंकज से शादी करोगी तो लोग सोचेंगे कि ज़रूर तुममें कोई कमी है. इसलिए फ़ैसला सोच समझकर लो. ''
रेखा कहती हैं कि उन्होंने फ़ैसला सोच समझकर ही लिया था और उनको पंकज की सीरत से इश्क़ हुआ जहां उनका अंधापन उनकी क़ाबिलियत के आगे छोटा पड़ता है.
दोनों ने साल 2012 में शादी की.
अब रेखा, पंकज के साथ मिलकर एक ग़ैर सरकारी संस्था 'पेस' चलाती हैं और दोनों को एक बेटा भी है जिसका नाम श्रेयस कोली सिन्हा है.