मां: अंतिम भाग
प्रकाश
उसी
दिन
से
यात्रा
की
तैयारियॉँ
करने
लगा।
करूणा
के
पास
जो
कुछ
था,
वह
सब
खर्च
हो
गया।
कुछ
ऋण
भी
लेना
पड़ा।
नए
सूट
बने,
सूटकेस
लिए
गए।
प्रकाश
अपनी
धुन
में
मस्त
था।
कभी
किसी
चीज
की
फरमाइश
लेकर
आता,
कभी
किसी
चीज
का।
करूणा
इस
एक
सप्ताह
में
इतनी
दुर्बल
हो
गयी
है,
उसके
बालों
पर
कितनी
सफेदी
आ
गयी
है,
चेहरे
पर
कितनी
झुर्रियॉँ
पड़
गई
हैं,
यह
उसे
कुछ
न
नजर
आता।
उसकी
ऑंखों
में
इंगलैंड
के
दृश्य
समाये
हुए
थे।
महत्त्वाकांक्षा
ऑंखों
पर
परदा
डाल
देती
है।
प्रस्थान
का
दिन
आया।
आज
कई
दिनों
के
बाद
धूप
निकली
थी।
करूणा
स्वामी
के
पुराने
कपड़ों
को
बाहर
निकाल
रही
थी।
उनकी
गाढ़े
की
चादरें,
खद्दर
के
कुरते,
पाजामें
और
लिहाफ
अभी
तक
सन्दूक
में
संचित
थे।
प्रतिवर्ष
वे
धूप
में
सुखाये
जाते
और
झाड़-पोंछकर
रख
दिये
जाते
थे।
करूणा
ने
आज
फिर
उन
कपड़ो
को
निकाला,
मगर
सुखाकर
रखने
के
लिए
नहीं
गरीबों
में
बॉँट
देने
के
लिए।
वह
आज
पति
से
नाराज
है।
वह
लुटिया,
डोर
और
घड़ी,
जो
आदित्य
की
चिरसंगिनी
थीं
और
जिनकी
बीस
वर्ष
से
करूणा
ने
उपासना
की
थी,
आज
निकालकर
ऑंगन
में
फेंक
दी
गई;
वह
झोली
जो
बरसों
आदित्य
के
कन्धों
पर
आरूढ़
रह
चुकी
थी,
आप
कूड़े
में
डाल
दी
गई;
वह
चित्र
जिसके
सामने
बीस
वर्ष
से
करूणा
सिर
झुकाती
थी,
आज
वही
निर्दयता
से
भूमि
पर
डाल
दिया
गया।
पति
का
कोई
स्मृति-चिन्ह
वह
अब
अपने
घर
में
नहीं
रखना
चाहती।
उसका
अन्त:करण
शोक
और
निराशा
से
विदीर्ण
हो
गया
है
और
पति
के
सिवा
वह
किस
पर
क्रोध
उतारे?
कौन
उसका
अपना
हैं?
वह
किससे
अपनी
व्यथा
कहे?
किसे
अपनी
छाती
चीरकर
दिखाए?
वह
होते
तो
क्या
आप
प्रकाश
दासता
की
जंजीर
गले
में
डालकर
फूला
न
समाता?
उसे
कौन
समझाए
कि
आदित्य
भी
इस
अवसर
पर
पछताने
के
सिवा
और
कुछ
न
कर
सकते।
प्रकाश
के
मित्रों
ने
आज
उसे
विदाई
का
भोज
दिया
था।
वहॉँ
से
वह
संध्या
समय
कई
मित्रों
के
साथ
मोटर
पर
लौटा।
सफर
का
सामान
मोटर
पर
रख
दिया
गया,
तब
वह
अन्दर
आकर
मॉँ
से
बोला—अम्मा,
जाता
हूँ।
बम्बई
पहूँचकर
पत्र
लिखूँगा।
तुम्हें
मेरी
कसम,
रोना
मत
और
मेरे
खतों
का
जवाब
बराबर
देना।
जैसे
किसी
लाश
को
बाहर
निकालते
समय
सम्बन्धियों
का
धैर्य
छूट
जाता
है,
रूके
हुए
ऑंसू
निकल
पड़ते
हैं
और
शोक
की
तरंगें
उठने
लगती
हैं,
वही
दशा
करूणा
की
हुई।
कलेजे
में
एक
हाहाकार
हुआ,
जिसने
उसकी
दुर्बल
आत्मा
के
एक-एक
अणु
को
कंपा
दिया।
मालूम
हुआ,
पॉँव
पानी
में
फिसल
गया
है
और
वह
लहरों
में
बही
जा
रही
है।
उसके
मुख
से
शोक
या
आर्शीवाद
का
एक
शब्द
भी
न
निकला।
प्रकाश
ने
उसके
चरण
छुए,
अश्रू-जल
से
माता
के
चरणों
को
पखारा,
फिर
बाहर
चला।
करूणा
पाषाण
मूर्ति
की
भॉँति
खड़ी
थी।
सहसा
ग्वाले
ने
आकर
कहा—बहूजी,
भइया
चले
गए।
बहुत
रोते
थे।
तब
करूणा
की
समाधि
टूटी।
देखा,
सामने
कोई
नहीं
है।
घर
में
मृत्यु
का-सा
सन्नाटा
छाया
हुआ
है,
और
मानो
हृदय
की
गति
बन्द
हो
गई
है।
सहसा
करूणा
की
दृष्टि
ऊपर
उठ
गई।
उसने
देखा
कि
आदित्य
अपनी
गोद
में
प्रकाश
की
निर्जीव
देह
लिए
खड़े
हो
रहे
हैं।
करूणा
पछाड़
खाकर
गिर
पड़ी।
करूणा
जीवित
थी,
पर
संसार
से
उसका
कोई
नाता
न
था।
उसका
छोटा-सा
संसार,
जिसे
उसने
अपनी
कल्पनाओं
के
हृदय
में
रचा
था,
स्वप्न
की
भॉँति
अनन्त
में
विलीन
हो
गया
था।
जिस
प्रकाश
को
सामने
देखकर
वह
जीवन
की
अँधेरी
रात
में
भी
हृदय
में
आशाओं
की
सम्पत्ति
लिये
जी
रही
थी,
वह
बुझ
गया
और
सम्पत्ति
लुट
गई।
अब
न
कोई
आश्रय
था
और
न
उसकी
जरूरत।
जिन
गउओं
को
वह
दोनों
वक्त
अपने
हाथों
से
दाना-चारा
देती
और
सहलाती
थी,
वे
अब
खूँटे
पर
बँधी
निराश
नेत्रों
से
द्वार
की
ओर
ताकती
रहती
थीं।
बछड़ो
को
गले
लगाकर
पुचकारने
वाला
अब
कोई
न
था,
जिसके
लिए
दुध
दुहे,
मुट्ठा
निकाले।
खानेवाला
कौन
था?
करूणा
ने
अपने
छोटे-से
संसार
को
अपने
ही
अंदर
समेट
लिया
था।
किन्तु
एक
ही
सप्ताह
में
करूणा
के
जीवन
ने
फिर
रंग
बदला।
उसका
छोटा-सा
संसार
फैलते-फैलते
विश्वव्यापी
हो
गया।
जिस
लंगर
ने
नौका
को
तट
से
एक
केन्द्र
पर
बॉँध
रखा
था,
वह
उखड़
गया।
अब
नौका
सागर
के
अशेष
विस्तार
में
भ्रमण
करेगी,
चाहे
वह
उद्दाम
तरंगों
के
वक्ष
में
ही
क्यों
न
विलीन
हो
जाए।
करूणा
द्वार
पर
आ
बैठती
और
मुहल्ले-भर
के
लड़कों
को
जमा
करके
दूध
पिलाती।
दोपहर
तक
मक्खन
निकालती
और
वह
मक्खन
मुहल्ले
के
लड़के
खाते।
फिर
भॉँति-भॉँति
के
पकवान
बनाती
और
कुत्तों
को
खिलाती।
अब
यही
उसका
नित्य
का
नियम
हो
गया।
चिड़ियॉँ,
कुत्ते,
बिल्लियॉँ
चींटे-चीटियॉँ
सब
अपने
हो
गए।
प्रेम
का
वह
द्वार
अब
किसी
के
लिए
बन्द
न
था।
उस
अंगुल-भर
जगह
में,
जो
प्रकाश
के
लिए
भी
काफी
न
थी,
अब
समस्त
संसार
समा
गया
था।
एक
दिन
प्रकाश
का
पत्र
आया।
करूणा
ने
उसे
उठाकर
फेंक
दिया।
फिर
थोड़ी
देर
के
बाद
उसे
उठाकर
फाड़
डाला
और
चिड़ियों
को
दाना
चुगाने
लगी;
मगर
जब
निशा-योगिनी
ने
अपनी
धूनी
जलायी
और
वेदनाऍं
उससे
वरदान
मॉँगने
के
लिए
विकल
हो-होकर
चलीं,
तो
करूणा
की
मनोवेदना
भी
सजग
हो
उठी—प्रकाश
का
पत्र
पढ़ने
के
लिए
उसका
मन
व्याकुल
हो
उठा।
उसने
सोचा,
प्रकाश
मेरा
कौन
है?
मेरा
उससे
क्य
प्रयोजन?
हॉँ,
प्रकाश
मेरा
कौन
है?
हाँ,
प्रकाश
मेरा
कौन
है?
हृदय
ने
उत्तर
दिया,
प्रकाश
तेरा
सर्वस्व
है,
वह
तेरे
उस
अमर
प्रेम
की
निशानी
है,
जिससे
तू
सदैव
के
लिए
वंचित
हो
गई।
वह
तेरे
प्राण
है,
तेरे
जीवन-दीपक
का
प्रकाश,
तेरी
वंचित
कामनाओं
का
माधुर्य,
तेरे
अश्रूजल
में
विहार
करने
वाला
करने
वाला
हंस।
करूणा
उस
पत्र
के
टुकड़ों
को
जमा
करने
लगी,
माना
उसके
प्राण
बिखर
गये
हों।
एक-एक
टुकड़ा
उसे
अपने
खोये
हुए
प्रेम
का
एक
पदचिन्ह-सा
मालूम
होता
था।
जब
सारे
पुरजे
जमा
हो
गए,
तो
करूणा
दीपक
के
सामने
बैठकर
उसे
जोड़ने
लगी,
जैसे
कोई
वियोगी
हृदय
प्रेम
के
टूटे
हुए
तारों
को
जोड़
रहा
हो।
हाय
री
ममता!
वह
अभागिन
सारी
रात
उन
पुरजों
को
जोड़ने
में
लगी
रही।
पत्र
दोनों
ओर
लिखा
था,
इसलिए
पुरजों
को
ठीक
स्थान
पर
रखना
और
भी
कठिन
था।
कोई
शब्द,
कोई
वाक्य
बीच
में
गायब
हो
जाता।
उस
एक
टुकड़े
को
वह
फिर
खोजने
लगती।
सारी
रात
बीत
गई,
पर
पत्र
अभी
तक
अपूर्ण
था।
दिन
चढ़
आया,
मुहल्ले
के
लौंड़े
मक्खन
और
दूध
की
चाह
में
एकत्र
हो
गए,
कुत्तों
ओर
बिल्लियों
का
आगमन
हुआ,
चिड़ियॉँ
आ-आकर
आंगन
में
फुदकने
लगीं,
कोई
ओखली
पर
बैठी,
कोई
तुलसी
के
चौतरे
पर,
पर
करूणा
को
सिर
उठाने
तक
की
फुरसत
नहीं।
दोपहर
हुआ,
करुणा
ने
सिर
न
उठाया।
न
भूख
थीं,
न
प्यास।
फिर
संध्या
हो
गई।
पर
वह
पत्र
अभी
तक
अधूरा
था।
पत्र
का
आशय
समझ
में
आ
रहा
था—प्रकाश
का
जहाज
कहीं-से-कहीं
जा
रहा
है।
उसके
हृदय
में
कुछ
उठा
हुआ
है।
क्या
उठा
हुआ
है,
यह
करुणा
न
सोच
सकी?
करूणा
पुत्र
की
लेखनी
से
निकले
हुए
एक-एक
शब्द
को
पढ़ना
और
उसे
हृदय
पर
अंकित
कर
लेना
चाहती
थी।
इस
भॉँति
तीन
दिन
गूजर
गए।
सन्ध्या
हो
गई
थी।
तीन
दिन
की
जागी
ऑंखें
जरा
झपक
गई।
करूणा
ने
देखा,
एक
लम्बा-चौड़ा
कमरा
है,
उसमें
मेजें
और
कुर्सियॉँ
लगी
हुई
हैं,
बीच
में
ऊँचे
मंच
पर
कोई
आदमी
बैठा
हुआ
है।
करूणा
ने
ध्यान
से
देखा,
प्रकाश
था।
एक
क्षण
में
एक
कैदी
उसके
सामने
लाया
गया,
उसके
हाथ-पॉँव
में
जंजीर
थी,
कमर
झुकी
हुई,
यह
आदित्य
थे।
करूणा
की
आंखें
खुल
गई।
ऑंसू
बहने
लगे।
उसने
पत्र
के
टुकड़ों
को
फिर
समेट
लिया
और
उसे
जलाकर
राख
कर
डाला।
राख
की
एक
चुटकी
के
सिवा
वहॉँ
कुछ
न
रहा,
जो
उसके
हृदय
में
विदीर्ण
किए
डालती
थी।
इसी
एक
चुटकी
राख
में
उसका
गुड़ियोंवाला
बचपन,
उसका
संतप्त
यौवन
और
उसका
तृष्णामय
वैधव्य
सब
समा
गया।
प्रात:काल
लोगों
ने
देखा,
पक्षी
पिंजड़े
में
उड़
चुका
था!
आदित्य
का
चित्र
अब
भी
उसके
शून्य
हृदय
से
चिपटा
हुआ
था।
भग्नहृदय
पति
की
स्नेह-स्मृति
में
विश्राम
कर
रहा
था
और
प्रकाश
का
जहाज
योरप
चला
जा
रहा
था।