सचमुच उपेक्षित हैं हिन्दी के लेखक?
राजधानी के साहित्यकारों की देखा-देखी अब अन्य शहरों के साहित्यकारों-लेखकों में भी यही मनोवृत्ति घर करने लगी है। जो साहित्यकार ढेर-सारा लिखकर व अपना कैरियर बनाकर आज हमारे बीच मौजूद हैं वो अब अपने लिखे व कैरियर को जमकर कैश कर रहे हैं। वो गोष्ठियों में जाने का अच्छा पैसा लेते हैं। जिस साहित्य और विचार के प्रति कभी वो गंभीर हुआ करते थे अब उन्हें उसकी परवाह नहीं। जब सभी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं फिर भला साहित्यकार ही क्यों पीछे रहें!
वरिष्ठ साहित्यकार-कथाकार अमरकांत आजकल इसी चलन व प्रवृत्ति को- अपनी आर्थिक बदहाली का वास्ता देकर- खुलकर भुना रहे हैं। पत्र-पत्रिकाओं में इंटरव्यू देकर प्रचारित कर रहे हैं कि वो 'आर्थिक-तंगहाली के भीषण दौर' से गुज़र रहे हैं। कह रहे हैं कि प्रकाशक उनका सारा पैसा हड़प गए हैं। कई प्रकाशकों ने रॉयल्टी में गड़बड़ की है। अमरकांत की दयनीय गुहार को सुन-पढ़कर कुछ लेखक-संगठन आगे आए हैं उनकी सहायता करने। अब तक उन्हें ज्ञानपीठ ट्रस्ट की ओर से पच्चीस हजार, जन-संस्कृति-मंच (जसम) द्वारा पचास हजार और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा एक लाख रुपए की आर्थिक सहायता मिल चुकी है।
अमरकांत को मिली इन मुफ्त-इमदादों पर मुझको खासी आपत्ति है। पहले अमरकांत यह तय करें कि उनकी प्रतिबद्धता आखिर है किस विचार की तरफ! वे जसम से भी रुपया ले रहे हैं और भाजपाईयों से भी। एक तरफ प्रगतिशीलता दूसरी तरफ संस्कृतिक राष्ट्रवाद। कल को अगर शिवसेना या विश्व हिंदू परिषद उन्हें रुपया देने की घोषणा करेगी तो वे उसे भी बिना किसी झिझक के स्वीकार कर लेगें। क्या जसम को अमरकांत की भाजपाई-मदद का विरोध नहीं करना चाहिए?
मुझको इन बड़े और वरिष्ठ साहित्यकारों की लंपट सोच और समझौतापरस्ती पर 'गुस्सा' आती है। यहां हिंदी का हर बड़ा और नामी साहित्यकार उपेक्षित और गरीब है। कुर्बान जाऊं मैं इनकी उपेक्षा और गरीबी पर! प्रायः किसी न किसी अखबार-पत्रिका में एक न एक बड़ा साहित्यकार रोता हुआ मिल जाता है कि वो बेहद उपेक्षित है। उसको आज तक किसी ने नहीं समझा। एक बड़े कहानीकार हैं। मेरे शहर के पड़ोस में रहते हैं। हर नामी-गिरामी पत्रिका में छपते रहते हैं। कई कहानी-उपन्यास संग्रह लिख चुके हैं। सभी जगह से अच्छी रॉयल्टी पा रहे हैं। घर का खर्च भी ठीक-ठाक चल रहा है लेकिन जनाब हैं उपेक्षित। जब मिलते हैं तब उनसे यही सुनने को मिलता है कि फलां प्रकाशक ऐसा है फलां वैसा। पाठक का टेस्ट बदल चुका है। साहित्य के नाम पर सब पैसा बटोरने में लगे हैं। जनाब अगर सब-कुछ खराब है तो आप लेखन छोड़ क्यों नहीं देते। किसी फुटपाथ पर कटोरा लेकर बैठ जाइए किसी न किसी को आप पर दया आ ही जाएगी।
अमरकांत लंबे समय से लिख रहे हैं। काफी किताबें लिख चुके हैं। कोर्स में भी उनकी किताबें लगी हैं। प्रकाशकों से रॉयल्टी भी पा रहे हैं। हाल ही में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है। फिर भी उपेक्षित और तंगहाल हैं। इधर, हमारे तथाकथित दयावान लेखकों की जमात उनकी आर्थिक बदहाली को 'राष्ट्रीय चिंता' का विषय बनाने पर तुली हुई है। अवाजें आ रही हैं कि उपेक्षित और गरीब साहित्यकारों के लिए सरकारी फंड की व्यवस्था होनी चाहिए। वाह! क्या अजूबी तरकीब सोची है हमारे भोले लेखकों ने अपना उल्लू सीधा करने की। आज ये सभी अमरकांत की गरीबी के लिए बौराए जा रहे हैं। लेकिन ये प्रगतिशील और दयावान लेखक-साहित्यकार तब कहां थे जब तसलीमा देश छोड़कर जा रही थी? तब ये लोग अपने बिलों में से बाहर निकलकर क्यों नहीं आए? आते भी कैसे! क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सरकार से पंगा कभी नहीं। ध्यान रखें, साहित्यकार कभी-भी अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का साहस नहीं रखता। वो बंद कमरे में बैठकर इसकी उपेक्षा, उसके उत्पीड़न पर बयान जारी करने या लफ्फबाजी करने में ही लगा रहता है।
शैलेश मटियानी किन हालातों में रहे, त्रिलोचन का अंतिम समय कैसा बीता इससे इन दानवीर लेखकों को कहां कोई मतलब है। शैलेश मटियानी से प्रगतिशील जमात उम्रभर नफरत करती रही क्योंकि वे 'हिंदू-राष्ट्रवादी विचारधारा' के लेखक थे। जो मटियानी ने भोगा अपनी जिंदगी में ऐसे दुर्दन इन प्रगतिशीलों ने कभी भोगे हैं? चलो मटियानीजी राष्ट्रवादी थे मगर अमरकांत तो प्रगतिशील हैं। शायद पैसा लेने में विचार कहीं आड़े नहीं आता। सिंगूर-नंदीग्राम में प्रगतिशील-मार्क्सवादियों ने जो किया पूरा देश जानता है।
मुझको लगता है हिंदी का साहित्यकार अपनी उपेक्षा को सबसे ज़्यादा 'विज्ञापित' करता है। अमरकांत अगर वाकई जन के लेखक होते तो अपनी आर्थिक तंगी को विज्ञापित कर पाठक और समाज को भ्रमित नहीं कर होते। अमरकांत ने अपने हर बयान में प्रकाशकों को खूब कोसा है। पर जनाब यह भूल रहे हैं कि अपने लेखकीय जीवन में कमाई भी इन्हीं प्रकाशकों से की है। वैसे एक बात कहूं 'सूचना का अधिकार कानून' हिंदी साहित्य और साहित्यकारों पर समानरूप से लागू हो जाना चाहिए। इस कानून से सहारे कम से कम पाठक इन कथित उपेक्षित साहित्यकारों से यह तो पूछ ही सकता कि जो पैसा इन्हें पुरस्कारों-गोष्ठियों में मिलता है उसका आखिर ये करते क्या हैं।