त्रिलोचन की कुछ कविताएं और सॉनेट
वरिष्ठ
कवि
त्रिलोचन
नहीं
रहे.
लंबी
बीमारी
के
बाद
उनका
निधन
हो
गया.
इसके
साथ
ही
हिन्दी
कविता
के
एक
युग
का
भी
समापन
हो
गया
है.
हिन्दी
कविता
के
इतिहास
में
शमशेर,
नागार्जुन,
केदार
और
त्रिलोचन
का
अलग
महत्व
रहा
है.
इन्होंने
हिन्दी
में
प्रगतिशील
धारा
को
स्थापित
किया.
यहां
हम
उनकी
कुछ
कविताएं
व
सॉनेट
प्रस्तुत
कर
रहे
हैं.
कविता
चम्पा
काले
काले
अच्छर
नहीं
चीन्हती
चम्पा
काले
काले
अच्छर
नहीं
चीन्हती
मैं
जब
पढ़ने
लगता
हूँ
वह
आ
जाती
है
खड़ी
खड़ी
चुपचाप
सुना
करती
है
उसे
बड़ा
अचरज
होता
है:
इन
काले
चिन्हों
से
कैसे
ये
सब
स्वर
निकला
करते
हैं.
चम्पा
सुन्दर
की
लड़की
है
सुन्दर
ग्वाला
है
:
गाय
भैसे
रखता
है
चम्पा
चौपायों
को
लेकर
चरवाही
करने
जाती
है
चम्पा
अच्छी
है
चंचल
है
न
ट
ख
ट
भी
है
कभी
कभी
ऊधम
करेती
है
कभी
कभी
वह
कलम
चुरा
देती
है
जैसे
तैसे
उसे
ढूंढ
कर
जब
लाता
हूँ
पाता
हूँ
-
अब
कागज
गायब
परेशान
फिर
हो
जाता
हूँ
चम्पा
कहती
है:
तुम
कागद
ही
गोदा
करते
हो
दिन
भर
क्या
यह
काम
बहुत
अच्छा
है
यह
सुनकर
मैं
हँस
देता
हूँ
फिर
चम्पा
चुप
हो
जाती
है
उस
दिन
चम्पा
आई
,
मैने
कहा
कि
चम्पा,
तुम
भी
पढ़
लो
हारे
गाढ़े
काम
सरेगा
गांधी
बाबा
की
इच्छा
है
-
सब
जन
पढ़ना
लिखना
सीखें
चम्पा
ने
यह
कहा
कि
मैं
तो
नहीं
पढ़ुंगी
तुम
तो
कहते
थे
गांधी
बाबा
अच्छे
हैं
वे
पढ़ने
लिखने
की
कैसे
बात
कहेंगे
मैं
तो
नहीं
पढ़ुंगी
मैने
कहा
चम्पा,
पढ़
लेना
अच्छा
है
ब्याह
तुम्हारा
होगा
,
तुम
गौने
जाओगी,
कुछ
दिन
बालम
सँग
साथ
रह
चला
जायेगा
जब
कलकत्ता
बड़ी
दूर
है
वह
कलकत्ता
कैसे
उसे
सँदेसा
दोगी
कैसे
उसके
पत्र
पढ़ोगी
चम्पा
पढ़
लेना
अच्छा
है!
चम्पा
बोली
:
तुम
कितने
झूठे
हो
,
देखा
,
हाय
राम
,
तुम
पढ़-लिख
कर
इतने
झूठे
हो
मैं
तो
ब्याह
कभी
न
करुंगी
और
कहीं
जो
ब्याह
हो
गया
तो
मैं
अपने
बालम
को
संग
साथ
रखूंगी
कलकत्ता
में
कभी
न
जाने
दुंगी
कलकत्ता
पर
बजर
गिरे.
त्रिलोचन के कुछ सॉनेट
सिपाही और तमाशबीन
घायल
हो
कर
गिरा
सिपाही
और
कराहा.
एक
तमाशबीन
दौड़ा
आया।
फिर
बोला,
''योद्धा
होकर
तुम
कराहते
हो,
यह
चोला
एक
सिपाही
का
है
जिस
को
सभी
सराहा
करते
हैं,
जिस
की
अभिलाषा
करते
हैं,
जो
दुर्लभ
है,
तुम
आज
निराशावादी-जैसा
निन्द्य
आचरण
करते
हो।""
कहना
सुन
ऐसा
उधर
सिपाही
ने
देखा
जिस
ओर
खड़ा
हो
उपदेशक
बोला
था।
उन
ओठों
को
चाटा
सूख
गए
थे
जो,
स्वर
निकला,
''प्यास
!""
खड़ा
ही
सुनने
वाला
रहा।
सिपाही
पड़ा
पड़ा
ही
करवट
हुआ,
रक्त
अपना
पी
कुछ
दुख
काटा—
''जाओ
चले,
मूर्ख
दुनिया
में
बहुत
पड़े
हैं।
उन्हें
सिखाओ
हम
तो
अपनी
जगह
अड़े
हैं।""
सॉनेट
का
पथ
इधर
त्रिलोचन
सॉनेट
के
ही
पथ
पर
दौड़ा;
सॉनेट,
सॉनेट,
सॉनेट,
सॉनेट;
क्या
कर
डाला
यह
उस
ने
भी
अजब
तमाशा।
मन
की
माला
गले
डाल
ली।
इस
सॉनेट
का
रस्ता
चौड़ा
अधिक
नहीं
है,
कसे
कसाए
भाव
अनूठे
ऐसे
आएँ
जैसे
क़िला
आगरा
में
जो
नग
है,
दिखलाता
है
पूरे
ताजमहल
को;
गेय
रहे,
एकान्विति
हो।
उस
ने
तो
झूठे
ठाटबाट
बाँधे
हैं।
चीज़
किराए
की
है।
स्पेंसर,
सिडनी,
शेक्सपियर,
मिल्टन
की
वाणी
वर्ड्सवर्थ,
कीट्स
की
अनवरत
प्रिय
कल्याणी
स्वर-धारा
है,
उस
ने
नई
चीज़
क्या
दी
है।
सॉनेट
से
मजाक़
भी
उसने
खूब
किया
है,
जहाँ
तहाँ
कुछ
रंग
व्यंग्य
का
छिड़क
दिया
है।
प्यार
जब
भौंरे
ने
आकर
पहले
पहले
गाया
कली
मौन
थी।
नहीं
जानती
थी
वह
भाषा
इस
दुनिया
की,
कैसी
होती
है
अभिलाषा
इस
से
भी
अनजान
पड़ी
थी।
तो
भी
आया
जीवन
का
यह
अतिथि,
ज्ञान
का
सहज
सलोना
शिशु,
जिस
को
दुनिया
में
प्यार
कहा
जाता
है,
स्वाभिमान-मानवता
का
पाया
जाता
है
जिस
से
नाता।
उस
में
कुछ
ऐसा
है
टोना
जिस
से
यह
सारी
दुनिया
फिर
राई
रत्ती
और
दिखाई
देने
लगती
है।
क्या
जाने
कौन
राग
छाती
से
लगता
है
अकुलाने,
इंद्रधनुष
सी
लहराती
है
पत्ती
पत्ती।
बिना
बुलाए
जो
आता
है
प्यार
वही
है।
प्राणों
की
धारा
उस
में
चुपचाप
बही
है।