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बोधिसत्व की कविताएं
चाहता
हूँ
बड़ी
अजीब
बात
है
जहाँ
नहीं
होता
मैं
वहीं
सब
कुछ
पाना
चाहता
हूँ,
वहीं
पाना
चाहता
हूँ
मैं
अपने
सवालों
का
जवाब
जहाँ
लोग
वर्षों
से
चुप
हैं
चुप
हैं
कि
उन्हें
बोलने
नहीं
दिया
गया
चुप
हैं
कि
क्या
होगा
बोल
कर
चुप
हैं
कि
वे
चुप्पीवादी
हैं,
मैं
उन्हीं
आँखों
में
अपने
को
खोजता
हूँ
जिनमें
कोई
भी
आकृति
नहीं
उभरती
मैं
उन्हीं
आवाजों
में
चाहता
हूँ
अपना
नाम
जिनमें
नहीं
रखता
मायने
नामों
का
होना
न
होना,
मैं
उन्ही
का
साथ
चाहता
हूँ
जो
भूल
जाते
हैं
मिलने
के
ठीक
बाद
कि
कभी
मिले
थे
किसी
से।
बड़ी
अजीब
बात
है
जहाँ
नहीं
होता
मैं
वहीं
सब
कुछ
पाना
चाहता
हूँ
यह शुरुआत के दिनों की एक कविता है. जिसे आप मेरी पसंद की कविता भी कह सकते हैं. मैंने सर्वाधिक पाठ इसी का किया है.
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