वीरेन डंगवाल की कविताएं
हम
औरतें
रक्त
से
भरा
तसला
है
रिसता
हुआ
घर
के
कोने-अंतरों
में
हम
हैं
सूजे
हुए
पपोटे
प्यार
किए
जाने
की
अभिलाषा
सब्जी
काटते
हुए
भी
पार्क
में
अपने
बच्चों
पर
निगाह
रखती
हुई
प्रेतात्माएँ
हम
नींद
में
भी
दरवाज़े
पर
लगा
हुआ
कान
हैं
दरवाज़ा
खोलते
ही
अपने
उड़े-उड़े
बालों
और
फीकी
शक्ल
पर
पैदा
होने
वाला
बेधक
अपमान
हैं
हम
हैं
इच्छा-मृग
वंचित
स्वप्नों
की
चरागाह
में
तो
चौकड़ियाँ
मार
लेने
दो
हमें
कमबख्तो
!
तोप
कम्पनी
बाग़
के
मुहाने
पर
धर
रखी
गई
है
यह
1857
की
तोप
इसकी
होती
है
बड़ी
सम्हाल
विरासत
में
मिले
कम्पनी
बाग
की
तरह
साल
में
चमकायी
जाती
है
दो
बार
सुबह-शाम
कम्पनी
बाग
में
आते
हैं
बहुत
से
सैलानी
उन्हें
बताती
है
यह
तोप
कि
मैं
बड़ी
जबर
उड़ा
दिये
थे
मैंने
अच्छे-अच्छे
सूरमाओं
के
छज्जे
अपने
ज़माने
में
अब
तो
बहरहाल
छोटे
लड़कों
की
घुड़सवारी
से
अगर
यह
फारिग
हो
तो
उसके
ऊपर
बैठकर
चिड़ियाँ
ही
अकसर
करती
हैं
गपशप
कभी-कभी
शैतानी
में
वे
इसके
भीतर
भी
घुस
जाती
हैं
ख़ासकर
गौरैयें
वे
बताती
हैं
कि
दरअसल
कितनी
भी
बड़ी
हो
तोप
एक
दिन
तो
होना
ही
है
उनका
मुँह
बन्द
!