वीरेन डंगवाल की कुछ और कविताएं
पी.टी.ऊषा
काली
तरुण
हिरनी
अपनी
लम्बी
चपल
टाँगों
पर
उड़ती
है
मेरे
गरीब
देश
की
बेटी
ऑंखों
की
चमक
में
जीवित
है
अभी
भूख
को
पहचानने
वाली
विनम्रता
इसीलिए
चेहरे
पर
नहीं
है
सुनील
गावस्कर
की
छटा
मत
बैठना
पी.टी.ऊषा
इनाम
में
मिली
उस
मारुति
कार
पर
मन
में
भी
इतराते
हुए
बल्कि
हवाई
जहाज
में
जाओ
तो
पैर
भी
रख
लेना
गद्दी
पर
खाते
हुए
मुँह
से
चपचप
की
आवाज़
होती
है?
कोई
ग़म
नहीं
वे
जो
मानते
हैं
बेआवाज़
जबड़े
को
सभ्यता
दुनिया
के
सबसे
ख़तरनाक
खाऊ
लोग
हैं
!
इन्द्र
इन्द्र
के
हाथ
लम्बे
हैं
उसकी
उँगलियों
में
हैं
मोटी-मोटी
पन्ने
की
अंगूठियाँ
और
मिज़राब
बादलों-सा
हल्का
उसका
परिधान
है
वह
समुद्रों
को
उठाकर
बजाता
है
सितार
की
तरह
मन्द
गर्जन
से
भरा
वह
दिगन्त-व्यापी
स्वर
उफ़!
वहाँ
पानी
है
सातों
समुद्रों
और
निखिल
नदियों
का
पानी
है
वहाँ
और
यहाँ
हमारे
कंठ
स्वरहीन
और
सूखे
हैं।
कवि
-
1
मैं
ग्रीष्म
की
तेजस्विता
हूँ
और
गुठली
जैसा
छिपा
शरद
का
ऊष्म
ताप
मैं
हूँ
वसन्त
का
सुखद
अकेलापन
जेब
में
गहरी
पड़ी
मूँगफली
को
छाँटकर
चबाता
फुरसत
से
मैं
चेकदार
कपड़े
की
कमीज़
हूँ
उमड़ते
हुए
बादल
जब
रगड़
खाते
हैं
तब
मैं
उनका
मुखर
गुस्सा
हूँ
इच्छाएँ
आती
हैं
तरह-तरह
के
बाने
धरे
उनके
पास
मेरी
हर
ज़रूरत
दर्ज़
है
एक
फेहरिस्त
में
मेरी
हर
कमज़ोरी
उन्हें
यह
तक
मालूम
है
कि
कब
मैं
चुप
होकर
गरदन
लटका
लूँगा
मगर
फिर
भी
मैं
जाता
ही
रहूँगा
हर
बार
भाषा
को
रस्से
की
तरह
थामे
साथियों
के
रास्ते
पर
एक
कवि
और
कर
ही
क्या
सकता
है
सही
बने
रहने
की
कोशिश
के
सिवा
कवि
-
2
मैं
हूँ
रेत
की
अस्फुट
फुसफुसाहट
बनती
हुई
इमारत
से
आती
ईंटों
की
खरी
आवाज़
मैं
पपीते
का
बीज
हूँ
अपने
से
भी
कई
गुना
मोटे
पपीतों
को
अपने
भीतर
छुपाए
नाजुक
ख़याल
की
तरह
हज़ार
जुल्मों
से
सताए
मेरे
लोगो
!
मैं
तुम्हारी
बद्दुआ
हूँ
सघन
अंधेरे
में
तनिक
दूर
पर
झिलमिलाती
तुम्हारी
लालसा
गूदड़
कपड़ों
का
ढेर
हूँ
मैं
मुझे
छाँटो
तुम्हें
भी
प्यारा
लगने
लगूँगा
मैं
एक
दिन
उस
लालटेन
की
तरह
जिसकी
रोशनी
में
मन
लगाकर
पढ़
रहा
है
तुम्हारा
बेटा।