
Uttar Pradesh Politics: यूपी में यह सिर्फ तीन सीटों का चुनाव नहीं है

मुलायम सिंह के निधन से खाली हुई मैनपुरी लोकसभा सीट और आजम खान की विधायकी रद्द होने से खाली रामपुर विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहा है। वैसे खतौली विधानसभा सीट पर भी उपचुनाव हो रहा है, लेकिन मैनपुरी और रामपुर सीटों का राजनीतिक महत्व ज्यादा है।
ये दोनों उपचुनाव सिर्फ दो सीटों के उपचुनाव नहीं है। बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों का लिटमस टेस्ट है। समाजवादी पार्टी का भविष्य तय करने वाले उपचुनाव है। दोनों ही ये सीटें समाजवादी पार्टी का गढ़ रही हैं। मैनपुरी यादव बहुल सीट है और रामपुर मुस्लिम बहुल। यादव और मुस्लिम ही समाजवादी पार्टी के मूल आधार हैं।
भाजपा अगर इनमें से एक सीट भी जीत गई, तो समाजवादी पार्टी का अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा के विकल्प बनने पर भी सवालिया निशान लगेगा। मायावती चाहती हैं कि सपा का ग्राफ गिरे, ताकि जनता में, खासकर मुसलमानों में यह धारणा बनने लगे कि सपा भाजपा को नहीं रोक सकी। अगर यह धारणा बन गई तो सपा के साथ गया मुस्लिम वोट बसपा की तरफ लौट आएगा। इससे अगले लोकसभा चुनाव में एम.वाई गठबंधन की जगह मुस्लिम दलित गठबंधन बन सकेगा।

मायावती ने तीनों ही उपचुनावों में उम्मीदवार खड़े नहीं किए। जबकि आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटों पर उपचुनावों के समय आजमगढ़ में उम्मीदवार खड़ा किया, लेकिन रामपुर में खड़ा नहीं किया। पहले हम यह समझ लेते हैं कि आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटों पर मायावती ने अलग अलग रणनीति क्यों अपनाई थी। यहीं पर राजनीति है।
अगर मायावती आजमगढ़ में अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करती तो बसपा का वोट सपा उम्मीदवार धर्मेन्द्र यादव को जाता और वह जीत सकता था। रामपुर में अपना उम्मीदवार खड़ा करती तो हिन्दू वोट बंट जाता और भाजपा का उम्मीदवार घनश्याम लोधी हार जाता।
अब वही राजनीति मैनपुरी लोकसभा सीट और रामपुर विधानसभा सीटों के उपचुनावों में अपनाई गई है। मैनपुरी और रामपुर में बसपा अपना उम्मीदवार खड़ा करती तो दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी को फायदा होता। मैनपुरी में खुद मुलायम सिंह भाजपा उम्मीदवार से सिर्फ 11 प्रतिशत वोटों के अंतर से जीते थे, तब बसपा ने मुलायम सिंह का समर्थन किया था, जिसके मैनपुरी लोकसभा सीट पर कम से कम 16 प्रतिशत वोट हैं।
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इसी तरह रामपुर विधानसभा सीट पर भी बसपा का आठ फीसदी के करीब वोट है, रामपुर लोकसभा उपचुनाव में बसपा के नहीं लड़ने से सपा को नुकसान और भाजपा को फायदा हुआ था। अब यही पेटर्न विधानसभा उपचुनाव में भी रह सकता है।
मायावती भाजपा को जिताने में मदद नहीं कर रही, बल्कि समाजवादी पार्टी को हराने की रणनीति पर काम कर रही है, ताकि 2024 से पहले यूपी में यह धारणा बन जाए कि सपा भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकती। इससे होगा यह कि भाजपा विरोधी वोट भाजपा को हराने के लिए मायावती की तरफ देखने लगें।
अब हम समाजवादी पार्टी की रणनीति की बात करते हैं। अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह यादव के देहांत से खाली हुई मैनपुरी सीट से अपनी पत्नी डिंपल यादव को टिकट दिया है। 2014 में वह कन्नौज से ही जीती थीं, लेकिन 2019 में भाजपा से हार गईं थी। मैनपुरी की तरह कन्नौज भी समाजवादी पार्टी का गढ़ रहा है, लेकिन भाजपा ने यादवलैंड में घुस कर डिंपल यादव को हराया था।
अब डिंपल के मैनपुरी से चुनाव लड़ने से कन्नौज के सपा कार्यकर्ता और ज्यादा हतोत्साहित हो गए हैं, उन्हें हताशा से उबारने के लिए अखिलेश यादव ने मैनपुरी चुनावों के बीच ही 2024 में कन्नौज से खुद लोकसभा चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है। जबकि अखिलेश यादव ने 2019 का लोकसभा चुनाव आजमगढ़ से जीता था, यूपी में विपक्ष का नेता बनने के लिए उन्होंने आजमगढ़ से इस्तीफा दिया, उपचुनाव में उनका खुद का भाई धर्मेन्द्र यादव हार गया।
भाजपा ने जैसे अमेठी पर कब्जा किया उसी तरह कन्नौज में बाजी मारी। अब बसपा के चुनाव नहीं लड़ने से कन्नौज जैसी स्थिति मैनपुरी में भी बन रही है। अखिलेश को पता है कि भाजपा अगर एक बार यादवलैंड का गढ़ तोड़ने में कामयाब हो गई तो फिर उसे रोकना आसान नहीं होगा। दरअसल अखिलेश यादव कन्नौज से लड़ने की बात तो कर रहे हैं लेकिन उन्होंने इसका फैसला पार्टी पर ही छोड़ा है।
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अखिलेश को पता है कि पहले ही वह आजमगढ़ की सीट छोड़कर पार्टी की एक सीट गवां चुके हैं। आजमगढ़ भी मुलायम की लिस्ट में सबसे उपर था लेकिन अखिलेश यह सीट बचाने में सफल नहीं हुए। भाजपा ने पहली बार यादव और मुस्लिमों के गढ़ में सीट जीतने में सफलता पाई।
अब अगर मैनपुरी सीट भी भाजपा जीत जाती है, तो यूपी में यह संदेश चला जाएगा कि सपा भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकती, मायावती मुसलमानों को यही संदेश देना चाहती है। ताकि 2024 के लोकसभा चुनाव में वह दलित-मुस्लिम समीकरण बना कर लोकसभा में अपनी मौजूदा सीटों को बढा सके और 2027 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी का स्थान ले सके।
अखिलेश यादव को भी यह खतरा दिखाई दे रहा है, इसलिए अपनी खोई जमीन बचाने के लिए उन्होंने 2024 से कन्नौज से लोकसभा चुनाव लड़ने का एलान किया है। 2012 में अखिलेश यादव के सीएम बनने के बाद समाजवादी पार्टी 2014 का लोकसभा चुनाव, 2017 का विधानसभा चुनाव, 2019 का लोकसभा चुनाव और 2022 का विधानसभा चुनाव भी हार गई। भाजपा अखिलेश यादव को लगातार चार बड़े झटके दे चुकी है। इन झटकों से अखिलेश के समर्थकों खासतौर से यादव लैंड में कार्यकर्ताओं का मनोबल गिर रहा है। सपा के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)