बीजेपी की नीति-रणनीति को डिक्टेट करने में सफल रहे हैं राहुल?
नई दिल्ली। 2019 के आम चुनाव का अंतिम परिणाम जो हो, मगर राहुल गांधी विजेता बनकर उभर चुके हैं। कांग्रेस के घोषणापत्र, नारे, वादे और पार्टी की रणनीति के वे सर्वमान्य कर्ताधर्ता तो रहे ही, अपने धुर विरोधी बीजेपी की नीति-रणनीति को भी प्रभावित करने में वे कामयाब रहे। चौकीदार, राफेल, गरीबी पर वार, 72 हज़ार, किसान जैसे हर मुद्दे में राहुल गांधी की मौजूदगी दिखती है।
घोषणापत्र लाने में कांग्रेस आगे रही। बेरोज़गारों के लिए 22 लाख सरकारी पदों को भरने, गरीबी दूर करने के लिए न्याय योजना, जिसके तहत साल में 72 हज़ार की आमदनी सुनिश्चित करना, अफस्पां हटाना, मनरेगा में रोज़गार के दिनों को बढ़ाकर डेढ़ सौ दिन करना जैसी घोषणाओं से कांग्रेस मतदाताओं के बीच जा पहुंची। इसके मुकाबले अगर बीजेपी के घोषणापत्र की बात करें तो बाद में घोषित होने के बावजूद बीजेपी कुछ अतिरिक्त लेकर नहीं आ सकी। किसान, युवा सबके लिए कुछ न कुछ घोषणाएं तो थीं, लेकिन कांग्रेस के मुकाबले वे फीके रहे। यही वजह है कि अब बीजेपी के घोषणापत्र की याद भी मिट चली है जबकि कांग्रेस का घोषणापत्र जेहन में ज़िन्दा है।
घोषणापत्र लाने में कांग्रेस आगे रही
हेट स्पीच के मामलों के देखें तो इसमें बीजेपी ने हर किसी दल को पीछे छोड़ दिया। वोटों के ध्रुवीकरण के लिए बयानबाजी विपक्ष से भी हुई, लेकिन अपशब्द, धमकी और निजी हमलों में बीजेपी सबसे आगे रही। जितना व्यक्तिगत हमला नरेंद्र मोदी पर हुए उससे कहीं ज्यादा राहुल गांधी को निशाना बनाया गया। उन्हें जान से मारने से लेकर शरीर में बम बांधने और मां की गाली तक राहुल गांधी को दी गयी। इससे भी पता चलता है कि बीजेपी के मुख्य निशाने के तौर पर राहुल गांधी और कांग्रेस रही।
नरेंद्र मोदी ने चौकीदार अभियान का जब श्रीगणेश किया, तभी यह बात साफ हो गयी थी कि राहुल गांधी के नारे ‘चौकीदार चोर है' का यह साइडइफेक्ट है। बीजेपी की यह इतनी बड़ी रणनीतिक भूल है कि वे इसे कभी सुधार नहीं पाएंगे। बीजेपी ने राष्ट्रवाद, आतंकवाद, सर्जिकल स्ट्राइक, पाकिस्तान परस्ती जैसे मुद्दों को जब उठाना शुरू किया और बालाकोट को भुनाना चाहा, तो उसे इसका फायदा मिलता दिख रहा था। तभी पार्टी अतिवाद का शिकार हो गयी। साध्वी प्रज्ञा को उम्मीदवार बना बैठी।
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बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर घेरने की हर कोशिश कांग्रेस कर रही है
साध्वी प्रज्ञा को उम्मीदवार बनाने के पीछे भी प्रेरणा कांग्रेस ही है। दिग्विजय सिंह ने जब भोपाल से चुनाव लड़ना कबूल किया तो बीजेपी को यह जवाबी चाल राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के मुकाबले ‘तोप' नज़र आयी। मगर, हेमंत करकरे की शहादत को अपने श्राप का परिणाम बताकर साध्वी प्रज्ञा ने बीजेपी के मंसूबे पर पानी फेर दिया। बाबरी विध्वंस के लिए गुम्बद पर चढ़ने की बात स्वीकार करके भी प्रजा ने बीजेपी की परम्परागत अफसोस वाली नीति पर चोट कर डाली जिसमें बाबरी विध्वंस को काला अध्याय कहा जाता रहा है।
बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर घेरने की हर कोशिश कांग्रेस कर रही है। बिहार में महागठबंधन है और यूपी में एसपी-बीएसपी-रालोद के साथ कांग्रेस की केमिस्ट्री व्यावहारिक है। महाराष्ट्र में एनडीए को यूपीए के रूप में कांग्रेस कड़ी टक्कर दे रही है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी में सीधा मुकाबला है।
कांग्रेस अलग-अलग रूपों में बीजेपी के लिए चुनौती बनी हुई है
क्षेत्रीय दलों के स्तर पर भी एनडीए और यूपीए से अलग जो खेमेबंदी दिख रही है उसमें कांग्रेस और बीजेपी दो अलग-अलग ध्रुव बने हैं। ममत बनर्जी, नवीन पटनायक जैसे नेता कांग्रेस और बीजेपी से समान दूरी बनाए हुए हैं तो टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टियां भी उसी नक्शे कदम पर है। मगर, टीडीपी के साथ कांग्रेस की नजदीकी हो या बाकी क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस के साथ आ मिलने की सम्भावना, इससे बीजेपी असहज महसूस कर रही है।
स्थिति ये है कि जहां बीजेपी अपने गठबंधन के भागीदार दलों के साथ कुछ गलत करती या कहती है वे कांग्रेस की ओर भागे चले आते हैं। जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता इसके उदाहरण हैं। यहां तक कि जिन-जिन सीटों पर बीजेपी ने अपने प्रत्याशी बदले हैं उनमें से कई जगहों पर पूर्व सांसदों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है। बड़े स्तर पर शत्रुघ्न सिन्हा का नाम लिया जा सकता है। कहने का अर्थ ये है कि कांग्रेस अलग-अलग रूपों में बीजेपी के लिए चुनौती बनी हुई है। राहुल गांधी किसी न किसी तरह से उनकी नीति और रणनीति को प्रभावित करने में सफल हुए हैं।
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