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नज़रिया: श्रीलंका में चीन के सामने कहां चूक गया भारत?

  • श्रीलंका में चीन से हुए समझौते के बाद विरोध के सुर सुनाई देने लगे हैं.
  • हम्बनटोटा पर चीन के साथ ये समझौता महीनों से लटका हुआ था.
  • श्रीलंका में और यहां तक कि भारत की तरफ़ से भी इस बात की चिंता जताई जा रही थी
  • कि कहीं बंदरगाह का इस्तेमाल चीनी सेना न करने लगे.

By BBC News हिन्दी
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श्रीलंका
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श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह को लेकर चीन से हुए समझौते के बाद देश में विरोध के सुर सुनाई देने लगे हैं.

श्रीलंका की प्रमुख विपक्षी पार्टी ने रविवार को प्रधानमंत्री रणिल विक्रमसिंघे की सरकार पर देश की संप्रभुता के साथ समझौता करने का आरोप लगाया है. हालांकि सरकार का कहना है कि ये श्रीलंका के विकास के नए युग की शुरुआत है.

हम्बनटोटा पर चीन के साथ ये समझौता महीनों से लटका हुआ था. श्रीलंका में और यहां तक कि भारत की तरफ़ से भी इस बात की चिंता जताई जा रही थी कि कहीं बंदरगाह का इस्तेमाल चीनी सेना न करने लगे.

बीबीसी हिंदी के संवाददाता संदीप सोनी से इसी मसले पर वरिष्ठ पत्रकार निरुपमा सुब्रमण्यम से बात की.

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निरुपमा सुब्रमण्यम का नज़रिया

श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह का नियंत्रण चीन को देने के सवाल पर भारत में पहले से ही चिंताएं थीं. 2008-09 में चीन के दख़ल की कोशिशें शुरू हुई थीं, और तब से भारत इसे लेकर चिंतित ही रहा है.

भारत को ये लगता रहा कि चीन इस हम्बनटोटा बंदरगाह का इस्तेमाल सैनिक उद्देश्यों के लिए कर सकता है. भारत ने श्रीलंका के साथ अपनी चिंताएं साझा भी की हैं.

लेकिन ये भी सच है कि पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने ये भी कहा था कि 'मैंने भारत को ही पहले हम्बनटोटा बंदरगाह विकसित करने के लिए कहा. उन्होंने नहीं किया, इसलिए मैं चीन के पास गया.'

अब चीन ने इसके एक चरण को पूरा कर लिया है. दो फेज़ अभी विकसित किए जाने हैं. हम्बनटोटा बंदरगाह के पहले फेज़ को 'चाइना एग्जिम बैंक' ने ही फंड किया है. बंदरगाह की लागत का 85 फ़ीसदी पैसा चीन ने दिया है. अब कर्ज वापसी में श्रीलंका ने हाथ खड़े कर लिए हैं.

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श्रीलंका ने यूं निकाला रास्ता

श्रीलंका को लगा कि कर्ज चुकाने का एक रास्ता इसे चीन को बेचना भी हो सकता है. आर्थिक लिहाज से देखा जाए ये बंदरगाह श्रीलंका के लिए कोई फ़ायदे का सौदा साबित नहीं हो रहा था. ये घाटे में चल रहा था.

फिर श्रीलंका ने ये रास्ता निकाला कि बंदरगाह चीन को ही बेच दिया जाए. पिछले साल अप्रैल से ही प्रधानमंत्री रणिल विक्रमसिंघे ये कहते आ रहे हैं कि हम्बनटोटा बंदरगाह को बेचे बगैर कोई और चारा नहीं है.

हम्बनटोटा के साथ-साथ एक और भी योजना पर काम चल रहा था. बंदरगाह से एक स्पेशल इकॉनॉमिक ज़ोन लगा हुआ है. ये एसईज़ेड तक़रीबन 13 से 15 हज़ार एकड़ में फैला हुआ है. एसईज़ेड की इस ज़मीन को चीन को दिया जाएगा.

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चीन का नियंत्रण

इसमें चीनी कंपनियां आकर अपने कारखाने लगाएंगी और इस बंदरगाह को चीन ही चलाएगा. लेकिन श्रीलंका में इसे चीन को देने पर जबर्दस्त विरोध शुरू हो गया कि इसका सैनिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा.

ये सब देखते हुए दिसंबर, 2016 में श्रीलंका ने समझौते का नया प्रारूप बनाया, अब इस सौदे को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल में अंजाम दिया जा रहा है.

भारत के लिए इसमें ख़ास बात यही है कि इसका इस्तेमाल अब सैनिक उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाएगा. श्रीलंका की सरकार की मंजूरी के बिना यहां किसी तरह की सैन्य गवितिधि नहीं होगी.

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भारत कहां चूक गया?

श्रीलंका ने भारत को 2008 में इसकी पेशकश की थी. उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-1 की सरकार थी और मनमोहन सिंह का पहला कार्यकाल खत्म होने के कगार पर था.

भारत 1.5 अरब डॉलर का निवेश करने की स्थिति में नहीं था. न तो उतना पैसा था और न ही उतनी दूर की सोच.

इसके साथ ही भारत ने श्रीलंका के साथ ट्रिंकोमली पोर्ट पर समझौता किया है. चीन और भारत के साथ संतुलन साधने की कोशिश में श्रीलंका ने भारत को ये पेशकश इसीलिए की थी. लेकिन इसे विकसित करना एक बहुत बड़ी बात है. भारत ने इसी वजह से इसमें जापान को भी शामिल किया है.

श्रीलंका और चीन के बीच की डील भारत के नज़रिये से बहुत सकारात्मक नहीं कही जा सकती लेकिन भारत इसे रोक भी नहीं सकता था.

भारत ने कोशिश की लेकिन इसे रोक नहीं पाया. श्रीलंका का रुख स्पष्ट था, 'आप पैसे दे सकते हो तो दो नहीं तो हम चीन के पास चले जाएंगे.'

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English summary
Where did India miss out in front of China in Sri Lanka?.
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