चीन के अंतिम सम्राट जो पहले बौद्ध संन्यासी और आख़िर में माली बन गए
चीन के इस सम्राट की कहानी 20वीं सदी के साथ शुरू होती है. उनके जीवन में कई ऐसे मोड़ आए जो हैरान करने वाले थे. आख़िर चीन के राजा को क्यों माली का काम करना पड़ा. पढ़िए पूरी कहानी.
चाहे जो भी हो, उनकी कहानी असाधारण साबित होने वाली थी. उनकी क़िस्मत में लिखा था कि वो दुनिया की लगभग एक चौथाई आबादी के सम्राट बनेंगे. लेकिन उनका अंत उनके पूर्वजों की तरह नहीं हुआ.
एइसिन गिओरो पुयी की कहानी 20वीं सदी के साथ शुरू होती है. उनका जन्म साल 1906 के फ़रवरी महीने में हुआ था. तब पुयी के चाचा गुआंग्शु चीन के सम्राट हुआ करते थे. हालांकि सम्राट गुआंग्शु एक कमज़ोर राजा थे और पुयी की चाची रानी डोवागेर सिशी ने उन्हें घर में ही नज़रबंद कर रखा था.
बाद में रानी डोवागेर ने पुयी को राजगद्दी पर बिठाया और उनके नाम पर ख़ुद शासन करने लगीं. साल 1908 के आख़िरी महीने में उनका निधन हो गया.
छोटी उम्र के बावजूद रानी डोवागेर का डरावना चेहरा पुयी के ज़हन में बना रहा. सालों बाद उन्होंने लिखा, "ये कहा जा सकता है कि जब मैंने उन्हें पहली बार देखा तो मैं डर के मारे चीख़ पड़ा. मेरे पांव कांप रहे थे. रानी डोवागेर सिशी ने किसी को मिठाई लाने के लिए कहा. लेकिन मैंने उसे ज़मीन पर फेंक दिया और ज़ोर से चिल्लाया कि मेरी आया कहा हैं?"
14 नवंबर को सम्राट गुआंग्शु की मौत हो गई और उसके अगले दिन रानी डोवागेर सिशी ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया. दो दिसंबर को उनके तीसरे जन्मदिन के दो महीने पहले पुयी को चीन का सम्राट घोषित कर दिया गया. सालों बाद पुयी ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "राज्याभिषेक के दिन मैं बुरी तरह से रो रहा था."
वे क़िंग राजवंश के 12वें और चीन की लंबी राजशाही के इतिहास में सबसे कम उम्र के सम्राट बन गए थे.
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पुयी का राजवंश
पुयी मांचु ट्राइब से आते थे जिन्होंने मिंग राजवंश को हराकर क़िंग राजवंश की नींव साल 1644 में डाली थी. इस राजवंश के शासन में चीन का अधिकार क्षेत्र फैलकर दोगुना हो गया था. उस दौर में चीन का विस्तार सुदूर पश्चिम में शिनजियांग और मंगोलिया से लेकर तिब्बत तक था. मौजूदा चीन का स्वरूप काफ़ी हद तक वैसा ही है.
इस नए राजवंश में अलग-अलग धार्मिक समूहों और जाति के लोगों को फलने-फूलने का मौका मिला. 18वीं सदी के आख़िर तक चीन को एक बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जाने लगा था. उसकी समृद्ध संस्कृति उसकी संपन्नता को बयान करती थी.
क़िंग राजवंश के सम्राट राजधानी बीजिंग के केंद्र में शानदार महलों में रहा करते थे. शाही सुरक्षाकर्मी उनकी रक्षा में तैनात रहा करते थे. उनके दरबार में मांचु समाज के कुलीन परिवारों का प्रतिनिधित्व हुआ करता था.
लेकिन 19वीं सदी में क़िंग राजवंश कमज़ोर पड़ने लगा. ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस और जापान की ताक़तों के सैनिक हमलों से क़िंग राजवंश चीन की रक्षा करने में समर्थ नहीं महसूस कर रहा था.
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ताइपिंग विद्रोह
साल 1850 में ईसाई धर्म को अपनाने वाले चीनी हॉन्ग शिकुआन ने ख़ुद को एक नए राजवंश का राजा घोषित कर दिया. उसके समर्थकों ने क़िंग के ख़िलाफ़ रैली निकाली और उसे लोगों का अपार समर्थन मिला.
इसके बाद चीन में गृह युद्ध की स्थिति पैदा हो गई जो 14 सालों तक चलता रहा. तक़रीबन दो करोड़ लोगों की जान गई और आख़िर में इस लड़ाई में चीनी सैनिकों को यूरोपीय ताक़तों से मुक़ाबला करना पड़ा.
ताइपिंग विद्रोह 19वीं सदी के चीन के इतिहास की अहम घटनाओं में से एक था. इस विद्रोह में शामिल चीन के उत्तरी प्रांतों के ग्रामीण लोगों का मानना था कि उनकी समस्याओं के लिए विदेशी लोग ज़िम्मेदार हैं और वे विदेशियों को चीन से बाहर खदेड़ने की मुहिम में लग गए.
उन्होंने दावा किया कि उनके मुक्के आग से भी ज़्यादा मज़बूत हैं और उन्हें गोलियों से भी हराया नहीं जा सकता है. 1898 में उनका विद्रोह फिर हुआ और 1900 ईस्वी की गर्मियों के आते-आते उन्होंने बीजिंग को घेर लिया. लेकिन सितंबर, 1901 में इस आंदोलन को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया गया.
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क़िंग राजवंश का अंतिम समय
ये तब का चीन था. पुयी का शासन शुरू होने से पहले उनके पिता प्रिंस चुन और सम्राट गुआंग्शु की पत्नी साम्राज्ञी डोवागेर लोंग्यु उनके प्रतिनिधि के तौर पर राजकाज चला रहे थे.
पुयी को जहां एक तरफ़ शाही परवरिश मिल रही थी तो दूसरी तरफ़ उनके राजवंश के विरुद्ध एक क्रांति का सूत्रपात हो रहा था. बहुत से चीनी ये मानने लगे थे कि क़िंग राजवंश ने ईश्वर से मिला शासन करने का आदेश खो दिया है. साल 1911 में शिनहाई क्रांति की शुरुआत हो गई थी.
पुयी ने अपनी आत्मकथा में याद करते हुए लिखा है, "कमरे के एक कोने में रानी डोवागेर लोंग्यु बैठकर अपने आंसू रुमाल से पोंछ रही थीं. उनके साथ एक मोटा बूढ़ा आदमी घुटने के बल बैठा हुआ था. मैं वहीं खिड़की की एक तरफ़ बैठा हुआ था. मुझे इस बात पर हैरत थी कि दो बड़े लोग आख़िर क्यों रो रहे हैं."
वे इसलिए रो रहे थे क्योंकि औपचारिक रूप से 267 साल पुराने क़िंग राजवंश का शासन ख़त्म हो रहा था. लेकिन छह साल के पुयी इन वास्तविकताओं से अनजान थे.
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चीनी गणतंत्र की स्थापना
चीनी गणतंत्र की स्थापना के समय तक हालात ऐसे ही बने रहे. हर किसी के लिए सब कुछ नया था. चीन में दो हज़ार साल पुरानी राजशाही ख़त्म हो गई थी. कोई नहीं जानता था कि सत्ता से बेदखल हो गए क़िंग राजवंश के लोगों के साथ क्या किया जाए?
ये सवाल उठा कि क्या उन्हें मंचूरिया भेज दिया जाए या फिर बीजिंग में ही रहने दिया जाए.
उन्होंने फ़ैसला किया कि क़िंग राजवंश के राजाओं के साथ विदेशी राजा जैसा बर्ताव किया जाएगा. बीजिंग की 'फ़ॉरबिडेन सिटी', जहां राजपरिवार के लोग रहा करते थे, उन्हें वहीं रहने दिया गया. शाही महल, बगीचे और तमाम सुविधाएं पहले की तरह जारी रखी गईं.
इसलिए पुयी के लिए ज़्यादा कुछ नहीं बदला. उन्हें किसी ने ये तक बताने की ज़रूरत नहीं समझी कि वे अब सम्राट नहीं रहे. वे काफ़ी समय तक राजसी सुख भोगते रहे.
पुयी ने लिखा है, "जब चीन को रिपब्लिक घोषित कर दिया गया था और मानवता 20वीं सदी में आगे बढ़ रही थी, 19वीं सदी के गुबार में खोया मैं तब भी एक सम्राट का जीवन जी रहा था."
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साल 1917
लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया जब साल 1917 में पुयी को दोबारा चीन का सम्राट बनाया गया. राजशाही समर्थक जनरल झांग शुन ने एक सफल विद्रोह के बाद तख़्तापलट करते हुए ख़ुद को 'सम्राट की तरफ़ से नियुक्त शासक' घोषित कर दिया.
लेकिन जनरल झांग शुन की ये सफलता दो ही हफ़्ते टिक पाई. हां, इतना ज़रूर हुआ कि पुयी और उनके क़रीबी लोगों को इस विद्रोह के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया.
पुयी इस अजीबोग़रीब माहौल में पल-बढ़ रहे थे. बाहरी दुनिया में क्या हो रहा था, उन्हें इसकी ख़बर नहीं थी. वे अपने परिवार से अलग थे. उनकी नैनी वांग ही उनके साथ थीं.
लेकिन पुयी के साथ ऐसा बर्ताव होता रहा, मानो वे कोई दैवीय शख़्स थे. कोई उन्हें नाराज़ नहीं कर सकता था. यहां तक कि जब वे उन्हीं के शब्दों में शरारत करते थे, तब भी लोग इसका ख़्याल रखते थे कि वे कौन हैं.
"मेरे सेवकों में जो किन्नर लोग थे, उन्हें कोड़ों से मारना मेरा रोज़ का काम था. मेरी क्रूरता और ताक़त का नशा इतना ज़बरदस्त था कि उसे किसी के समझाने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था."
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साल 1919 में ब्रिटिश स्कॉलर रेगीनाल्ड जॉन्सटन ने पुयी के ट्यूटर के तौर पर कुछ समय के लिए काम किया था.
उन्होंने ब्रिटिश सरकार को पुयी के बारे में लिखा, "वो एक ज़िंदादिल, ख़ुशमिज़ाज और समझदार लड़का है. उसे सलीका आता है और सत्ता का ज़रा सा भी ग़ुरूर नहीं है."
आहिस्ता-आहिस्सा पुयी ऐसे किशोर में बदल गए जिनका विद्रोही स्वभाव उन्हें फ़ॉरबिडेन सिटी के दायरे से बाहर ले आया. वे चश्मा पहनने लगे और मांचु लोगों की पारंपरिक चोटी रखनी उन्होंने छोड़ दी थी.
हालांकि सम्राटों की परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने भव्य शादियां कीं. पुयी लिखते हैं, "मैंने कुल चार शादियां कीं. लेकिन सच तो ये है कि वे मेरी वास्तविक पत्नियां नहीं थीं. वे केवल दिखावे के लिए थीं."
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'मांचुकाओ के सम्राट' के रूप में पुयी
फ़ॉरबिडेन सिटी के बाहर की दुनिया में चीन अभी भी राजशाही की व्यवस्था के ख़त्म होने से जुड़े सवालों के जवाब खोज रहा था. लेकिन 1924 में वॉरलॉर्ड फ़ेंग युशियांग सत्ता में आए और पुयी को फ़ॉरबिडेन सिटी से बाहर निकलना पड़ा.
19 साल की उम्र में उन्होंने जापानियों के यहां पनाह ली. जापान ने साल 1931 में मंचुरिया पर कब्ज़ा कर लिया और पुयी को 'मांचुकुओ का सम्राट' नियुक्त किया. पूर्वोत्तर चीन के तीन ऐतिहासिक प्रांतों को मिलाकर जापान ने इस प्रांत का गठन किया था.
उस वक़्त जापान ये प्रोपेगैंडा कर रहा था कि मांचुकाओ के झंडे तले एशिया की पांच नस्लें जापानी, चीनी, कोरियाई, मांचु और मंगोल एक हो रहे हैं.
एडवर्ड बेहर ने अपनी किताब 'द लास्ट एम्परर' में लिखा है कि जापानी इसे नई सभ्यता का जन्म और विश्व के इतिहास का महत्वपूर्ण मोड़ बता रहे थे.
'मांचुकाओ के सम्राट' के तौर पर पुयी जापान की कठपुतली बनकर रह गए थे. जापान मांचुकाओ का इस्तेमाल एशिया में अपना पैर फैलाने के लिए कर रहा था.
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साइबेरिया में क़ैद
मांचुकाओ में पुयी की ज़िंदगी जहन्नुम में बदल गई.
मांचुकाओ में उस वक़्त दुनिया की सबसे बर्बर शासन व्यवस्था लागू थी. पुयी की प्रजा उनसे नफ़रत करती थी.
एडवर्ड बेहर के मुताबिक़ पुयी अपने ही राजमहल में जापान के क़ैदी बनकर रह गए थे.
सम्राट के हैसियत से उनके पास केवल यही काम था कि जापानियों की कही हर बात पर दस्तख़त कर देना है.
लेकिन पुयी बाद में एक बौद्ध संन्यासी हो गए. सोवियत संघ की सेना उन्हें पहचान नहीं पाई और उन्हें साइबेरिया के चिता शहर ले जाया गया. उन्हें एक बार फिर से क़ैदी बनाकर रखा गया. हालांकि दूसरे क़ैदियों की तुलना में उन्हें ज़्यादा सुविधाएं हासिल थीं.
वहां उन्होंने साम्यवाद का अध्ययन किया.
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चालीस सालों के संघर्ष के बाद साल 1949 नें माओत्से तुंग ने चीन में एक नए गणतंत्र की घोषणा की. पुयी की देश वापसी का समय भी हो गया था. उन्हें डर था कि माओ के शासन काल में उनके साथ जाने कैसा बर्ताव किया जाएगा.
लेकिन माओ ने पुयी को एक एजुकेशन कैंप में भेज दिया. वहां पुयी ने दस साल आम लोगों की तरह गुज़ारे. 1960 में माओ की सरकार ने पुयी को नागरिकता और आज़ादी दे दी.
दुनिया की सबसे बड़ी आबादी पर राज करने वाला व्यक्ति एक ऐसा समय भी आया जब वो बीजिंग के बोटेनिकल गार्डेन में माली बन गए. साल 1964 में उन्हें चाइनीज़ पीपुल्स पॉलिटिकल कंसल्टेटिव कॉन्फ़्रेंस के एडिटर की ज़िम्मेदारी दी गई.
उन्होंने 'फ़्रॉम एम्परर टू सिटिज़न' टाइटिल से अपनी आत्मकथा भी लिखी जिसका माओ और चाउ एनलाई जैसे कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं ने प्रचार किया.
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