तहरीक-ए-लब्बैकः पाकिस्तान में कैसे खड़ी हुई एक इस्लामी पार्टी जिसने देश को हिला रखा है
पाकिस्तान में टीएलपी यानी तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान नाम का एक कट्टरपंथी धार्मिक राजनीतिक दल फिर एक बार चर्चा में है. पिछले छह सालों में इसने कई बार धरने दिए हैं जिनमें ख़ूब हंगामा हुआ और फिर उनका अंत समझौतों से हुआ.
"सच बात तो यह है कि न तो सरकार और न ही देश उग्रवाद से लड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है जैसा कि होना चाहिए था. टीएलपी (तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान) के मामले में जिस तरह से सरकार को पीछे हटना पड़ा और यह उस बम की ओर इशारा करता है जो टिक-टिक कर रहा है... जो राज्य क़ानून को लागू नहीं करवा सकता, उसके अस्तित्व पर सवाल उठने लगते हैं. इन हालात में आप गृहयुद्ध की तरफ़ बढ़ते जाएंगे."
कोट लखपत जेल से तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के प्रमुख साद हुसैन रिज़वी की रिहाई के कुछ घंटों बाद, पाकिस्तान के केंद्रीय सूचना मंत्री फ़वाद चौधरी का ऊपर लिखा बयान पाकिस्तान के लगभग सभी टीवी चैनलों की हेडलाइन था.
फ़वाद चौधरी ने ये बयान गुरुवार शाम पाकिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ़ पीस स्टडीज़ द्वारा आयोजित एक समारोह को संबोधित करते हुए दिया था.
साद रिज़वी को 12 अप्रैल, 2021 को लोगों के विरोध और हिंसक प्रदर्शन के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था. पाकिस्तान सरकार और टीएलपी के बीच 31 अक्टूबर को हुए एक समझौते के तहत उनकी रिहाई हुई है.
इस साल अप्रैल में हुआ विरोध न तो तहरीक-ए-लब्बैक का यह पहला विरोध था और न ही इस संगठन के साथ पाकिस्तान सरकार का पहला समझौता.
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तहरीक-ए-लब्बैक ने अपने छह साल के राजनीतिक जीवन में विभिन्न मांगों को पूरा कराने के लिए इस तरह के सात विरोध प्रदर्शन किए हैं. हर बार ये विरोध हिंसक हो गए और हर बार ये तत्कालीन सरकार के साथ समझौते के साथ समाप्त हुए.
विश्लेषकों के अनुसार, हर बार सेना या उसकी ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस तरह के सौदों के लिए खुले तौर पर या गुप्त रूप से हस्तक्षेप करना पड़ा, हर बार सरकार पीछे हटती या दबाव में आती हुई महसूस हुई, और ज़ाहिरी तौर पर हर बार तहरीक-ए-लब्बैक अपनी 'मांगें' मनवाने में सफ़ल दिखाई दी.
हालांकि, इस बार अंतर यह है कि यह पहली बार है कि किसी सरकारी प्रवक्ता या मंत्री (फ़वाद चौधरी) ने अपने पीछे हटने की बात को स्वीकार किया है.
सवाल यह है कि इस 'नए जन्मे आंदोलन' या एक इस्लामवादी पार्टी ने इतने कम समय में लोगों का इतना समर्थन कैसे हासिल कर लिया और देश की पाँचवीं और पंजाब की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक ताक़त समझे जाने वाले इस आंदोलन की इतनी लोकप्रियता के पीछे क्या राज़ है.
तहरीक-ए-लब्बैक की इस यात्रा की कहानी आप तक पहुंचाने के लिए हमारी मदद कई वरिष्ठ पत्रकारों, विश्लेषकों, वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों, ख़ुफ़िया एजेंसियों के अधिकारियों और ख़ुद इस आंदोलन के संस्थापक सदस्यों और मौजूदा पदाधिकारियों ने की है. उन्होंने अपनी पहचान गुप्त रखने की शर्त पर हमें डिटेल मुहैया की हैं.
ख़ादिम रिज़वी : शुरुआत कब और किस माहौल में हुई?
तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान की स्थापना इसके संस्थापक अमीर मौलाना ख़ादिम हुसैन रिज़वी ने 1 अगस्त 2015 को की थी.
ख़ादिम रिज़वी के क़रीबी सूत्रों के अनुसार, उनका जन्म 22 मई, 1966 को उत्तरी पंजाब के अटक जिले के पिंडी घेप इलाक़े में धार्मिक प्रवृत्ति वाले हाजी लाल ख़ान के परिवार में हुआ था, उनके एक भाई अमीर हुसैन पाकिस्तानी सेना के (जूनियर कमीशंड) अधिकारी थे.
सुन्नी बरेलवी संप्रदाय के नेता इमाम अहमद रज़ा ख़ान बरेलवी को मानने वाले ख़ादिम रिज़वी ने झेलम और दीना के मदरसों से क़ुरान और तजवीद की शिक्षा हासिल की और फिर लाहौर की जामिया निज़ामिया से शेख़-उल-हदीस का प्रमाण पत्र हासिल किया.
साल 2009 में, ख़ादिम रिज़वी रावलपिंडी से लाहौर जा रहे थे कि उनका एक्सीडेंट हो गया, एक्सीडेंट में पैरों में चोट लगने के कारण वो चलने में असमर्थ हो गए.
कुछ सूत्रों का कहना है कि वो गाड़ी ख़ुद चला रहे थे और गाड़ी चलाते हुए नींद आ जाने की वजह से ये एक्सीडेंट हुआ था, कुछ लोगों का कहना है कि गाड़ी ड्राइवर चला रहा था.
क़रीब 10 साल पहले की एक घटना ने न सिर्फ़ ख़ादिम रिज़वी की ज़िंदगी बदल दी बल्कि तहरीक-ए-लब्बैक के गठन की भी वजह बनी.
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4 जनवरी, 2011 की सुबह संघीय राजधानी इस्लामाबाद में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी से संबंधित पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर की हत्या उनकी सिक्योरिटी पर तैनात पंजाब पुलिस के एक अधिकारी मलिक मुमताज़ हुसैन क़ादरी ने कर दी थी.
गवर्नर तासीर इस्लामाबाद के कोहसर मार्केट में स्थित एक रेस्तरां से निकले ही थे कि मुमताज़ क़ादरी ने ऑटोमेटिक हथियार से उन पर 27 गोलियां चलाईं.
मुमताज़ क़ादरी के इक़बालिया बयान के बाद उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई थी. इस सज़ा के ख़िलाफ़ हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति को की गई अपील ख़ारिज कर दी गई थी.
एक तरफ़ तो मुमताज़ क़ादरी को बचाने के लिए सभी उपलब्ध क़ानूनी साधनों का इस्तेमाल किया जा रहा था, दूसरी तरफ़ धार्मिक संप्रदाय और अन्य संगठनों और हस्तियों ने मुमताज़ क़ादरी की रिहाई और उनकी मौत की सज़ा को समाप्त करने के लिए विरोध आंदोलन शुरू कर दिया था.
इन संगठनों और हस्तियों में सबसे ऊपर, 'तहरीक-ए-लब्बैक या रसूलुल्लाह अल-आलमी' के नेता और राजनीतिक दल 'तहरीक-ए-लब्बैक इस्लाम' के प्रमुख डॉक्टर मोहम्मद अशरफ़ आसिफ़ जलाली और मौलाना ख़ादिम हुसैन थे.
देश में मुस्लिमों के सबसे बड़े संप्रदाय यानी 'बरेलवी' सुन्नी विचारधार से संबंधित धार्मिक समूहों ने इस विरोध के तहत ख़ास तौर से पूरे पंजाब में सभाएं और प्रदर्शन किये, जिनमे मुमताज़ क़ादरी का समर्थन, सलमान तासीर का विरोध और अदालत के फ़ैसलों पर नापसंदगी ज़ाहिर की गई थी.
जनवरी 2016 में, ख़ादिम रिज़वी ने भी मुमताज़ क़ादरी की रिहाई के लिए लाहौर में स्थित अल्लामा इक़बाल की दरगाह पर एक विरोध प्रदर्शन किया.
ख़ादिम रिज़वी उस समय 'ख़तीब-ए-जुमा' (शुक्रवार को होने वाली नमाज़ में उपदेश देने वाला व्यक्ति) पंजाब सरकार के वक़्फ़ विभाग (मस्जिदों और मज़ारों सहित विभिन्न धार्मिक मामलों से संबंधित संस्था) से जुड़े हुए थे और लाहौर में दाता दरबार के पास 'पीर मक्की मस्जिद' में कार्यरत थे.
ख़ादिम रिज़वी उर्दू, पंजाबी, अरबी और फ़ारसी जैसी भाषाएँ बोलते थे और अपनी शैली और विचारों पर 'बेहतरीन वक्ता' समझे जाते थे.
उनके भाषणों की बेबाकी, जोशीलापन और अवामी अंदाज़ उनके अनुयायियों को बहुत भाते थे.
संबोधित करते हुए वह आम तौर पर इमाम अहमद रज़ा ख़ान बरेलवी, अल्लामा मोहम्मद इक़बाल के उर्दू और फ़ारसी शेरों के अलावा हाफ़िज़ और रूमी की भड़का देने वाली नज़्मे पढ़ते थे.
मुमताज़ क़ादरी के समर्थन में चल रहे विरोध आंदोलन के दौरान, धार्मिक सोच रखने वाले बहुसंख्यक लोगों को वो अपनी इन्ही विशेषताओं से प्रभावित करने में सफ़ल रहे.
वो अक्सर पाकिस्तान को सलाह देते थे कि 'बम (परमाणु) निकाल कर (उनके अनुसार इस्लाम के दुश्मनों के ख़िलाफ़) इस्तेमाल करो.'
उनकी यही भाषण शैली तेज़ी से लोकप्रिय हुई और वे पारंपरिक मीडिया के साथ-साथ सोशल मीडिया पर भी बहुत लोकप्रिय हो गए.
पाकिस्तानी सेना की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 'ख़ादिम हुसैन रिज़वी अपने से ऊंचा पद रखने वाले लोगों के सामने घमंडी और अपने मातहतों के प्रति बद्तमीज़ है.'
आख़िर में सरकारी संस्थाओं और अधिकारियों के कान भी खड़े हो गए और हल्की सी चेतावनी के बाद भी जब उन्होंने अपने विचारों का प्रचार-प्रसार करना बंद नहीं किया, तो उन्हें वक़्फ़ विभाग की 'सरकारी' नौकरी से निकाल दिया गया.
लेकिन ज़ाहिरी तौर पर इस कार्रवाई ने उन्हें अपनी सोच को अधिक सार्वजनिक और प्रभावी ढंग से प्रचारित करने का अवसर दिया.
उन्होंने मुमताज़ क़ादरी के समर्थन में और ईशनिंदा क़ानूनों को सख़्ती से लागू करने के लिए देश भर में विरोध रैलियां, प्रदर्शन और दौरे शुरू किए, जिससे उन्हें व्यापक लोकप्रियता और सराहना मिली.
तहरीक-ए-लब्बैक या रसूलुल्लाह की स्थापना
अंत में, 1 अगस्त, 2015 को, कराची के नश्तर पार्क में एक सार्वजनिक सभा के दौरान, उन्होंने 'तहरीक-ए-लब्बैक या रसूलुल्लाह' के गठन की घोषणा की.
इस सभा में 75 लोगों ने मौलाना ख़ादिम हुसैन रिज़वी को नेता मान कर उनके प्रति निष्ठा की शपथ ली.
ख़ादिम रिज़वी की तहरीक-ए-लब्बैक सहित सभी धार्मिक और सांप्रदायिक दलों के लगातार विरोध के बावजूद, गवर्नर तासीर के हत्यारे मुमताज़ क़ादरी को आख़िरकार 29 फरवरी, 2016 को अडियाला जेल में फांसी दे दी गई.
अगले दिन, 1 मार्च 2016 को, मुमताज़ क़ादरी के जनाज़े की नमाज़ रावलपिंडी के लियाक़त नेशनल पार्क में हुई. जिसमे बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए जिसने देश के बड़े मीडिया हॉउस के अलावा अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को भी हैरान कर दिया.
पाकिस्तानी मीडिया पर इस अंत्येष्टि के लाइव प्रसारण या इससे जुडी ख़बरों को दिखाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय प्रसारकों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में अंत्येष्टि की व्यापक रूप से रिपोर्टिंग की गई थी.
अंतरराष्ट्रीय मीडिया और प्रसारकों के अनुसार, अंत्येष्टि में एक लाख (या अधिक) लोग शामिल हुए थे.
पहला बड़ा विरोध
मुमताज़ क़ादरी को दफ़नाने की प्रक्रिया पूरी होते ही देश भर के अलग-अलग शहरों में इस फांसी का विरोध शुरू हो गया और कराची, लाहौर, इस्लामाबाद और पेशावर में रैलियां और प्रदर्शन हुए जिनमें ख़ादिम रिज़वी का आंदोलन सबसे आगे था.
ख़ादिम रिज़वी ने इस्लामाबाद के डी-चौक पर धरना दिया, जो हिंसक हो गया.
पुलिस रिपोर्टों के अनुसार, इस विरोध के कारण इस्लामाबाद एक्सप्रेसवे बंद रहा और फ़ेज़ाबाद के पुल को बंद करके वाहनों पर पथराव किया गया था. इस हिंसक विरोध के दौरान देश के दूसरे हिस्सों में भी जलाने, घेराव करने और तोड़-फोड़ की घटनाएं हुई.
लब्बैक के इस पहले हिंसक विरोध पर बात करते हुए, एक विश्लेषक ने कहा, कि 'वो चार दिवसीय धरना तब समाप्त हुआ जब बरेलवी संप्रदाय के राजनीतिक दल जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम के नेता उवैस नूरानी ने ख़ादिम रिज़वी और सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई.
उन्होंने दावा किया कि 'कुछ लोगों का कहना है कि इस मध्यस्थता में पाकिस्तान की कुछ सरकारी एजेंसियां भी शामिल थीं.'
27 मार्च 2016 को मुमताज़ क़ादरी के चेहलुम के मौक़े पर भी रावलपिंडी के लियाक़त बाग़ में लोग जमा हो गए और एक बार फिर हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ.
पुलिस रिपोर्टों के अनुसार, एक बस स्टेशन में आग लगा दी गई और राजधानी के प्रमुख राजमार्गों को यातायात के लिए बंद कर दिया गया यहां तक कि प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए सेना को बुलाया गया.
इस पूरी अवधि के दौरान, ख़ादिम रिज़वी की तहरीक-ए-लब्बैक को उनके कट्टर रुख, कट्टर प्रवृत्तियों और लगातार जारी उग्र बयानबाज़ी के आधार पर अवाम से सराहना मिलती गई.
वह अब ख़ुद को 'अल्लाह के रसूल के सम्मान का संरक्षक' कहने लगे और देश के अंदर और बाहर होने वाली किसी भी ऐसी घटना पर जो किसी भी तरह से उनके कट्टर विचारों या उनके समर्थकों के सांप्रदायिक या धार्मिक आस्था से संबंधित हो खुले तौर पर अपने विचार व्यक्त करने लगे.
और फिर वह समय आया जब ख़ादिम रिज़वी की राजनीतिक ताक़त दर्ज की गई. यह तहरीक-ए-लब्बैक के सबसे मशहूर 'फ़ैज़ाबाद धरने' का मौक़ा था.
फ़ैज़ाबाद धरना
अक्टूबर 2017 की शुरुआत में, यानी मुस्लिम लीग (नवाज़) के प्रधानमंत्री शाहिद ख़ाकान अब्बासी के कार्यकाल के दौरान, चुनाव अधिनियम 2017 में संशोधन के मुद्दे पर एक संसदीय विवाद पैदा हो गया.
उनमे से एक खंड ख़त्म-ए-नुबुव्वत पर विश्वास रखने के हलफ़नामे से संबंधित था.
विवादास्पद संशोधनों के तहत, जब कुछ शब्दों के बदलने का मामला सामने आया तो सरकार ने इसे गलती बताया, जबकि विपक्ष ने राजनीतिक अवसर मान कर मामले की न्यायिक जांच की मांग की.
हालांकि सरकार ने विपक्ष के कहने पर संशोधन के मसौदे और सामग्री को पुराने शब्दों में ही बहाल कर दिया, लेकिन ख़ादिम रिज़वी और उनकी 'तहरीक-ए-लब्बैक या रसूलुल्लाह' ने इसे एक 'बड़ी साजिश' का हिस्सा कहते हुए आरोप लगाया, कि सरकार ने जानबूझकर इस खंड की सामग्री बदलने की कोशिश की और इसके ज़िम्मेदार (तत्कालीन) क़ानून मंत्री जाहिद हामिद हैं.
ख़ादिम रिज़वी और उनके आंदोलन ने क़ानून मंत्री के इस्तीफ़े की मांग की और मांग पूरी नहीं होने पर इस्लामाबाद में धरना देने की धमकी दी.
जब मांग पूरी नहीं हुई, तो तहरीक-ए-लब्बैक ने उस धमकी पर अमल किया और 8 नवंबर, 2017 को, ख़ादिम रिज़वी के समर्थक प्रदर्शनकारियों ने इस्लामाबाद को रावलपिंडी से जोड़ने वाले राजमार्ग को जाम कर दिया और यातायात ठप होने के कारण एक नवजात शिशु की मौत हो गई.
एक विश्लेषक के मुताबिक़ 'ख़ादिम रिज़वी को इसका ज़िम्मेदार बताते हुए उनके ख़िलाफ़ नौ नवंबर को मुक़दमा दर्ज किया गया, लेकिन उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई. या किसी ने करने नहीं दी.'
घटना के मुताबिक़ 15 नवंबर को प्रदर्शनकारियों ने इस्लामाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की, कि उनकी मांग को मंज़ूर किया जाये.
16 नवंबर को, क़ानून मंत्री ने चुनाव अधिनियम में विवादास्पद संशोधनों को निरस्त करने और पुराने स्वरूप को बहाल करने के लिए नेशनल असेंबली में एक विधेयक पेश किया, और इस अवसर पर ख़ुद क़ानून मंत्री को भी ख़त्म-ए-नुबुव्वत पर अपनी आस्था का इज़हार करना पड़ा.
हालांकि इसके बाद, इस्लामाबाद हाई कोर्ट ने प्रदर्शनकारियों को अपना धरना समाप्त करने का आदेश दिया, लेकिन अदालत के आदेश का भी पालन नहीं किया गया.
20 नवंबर को धरना समाप्त कराने के लिए सरकार के मंत्रियों और प्रदर्शनकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल के बीच बातचीत हुई, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ.
21 नवंबर, 2017 को देश की सबसे बड़ी अदालत ने स्वत: संज्ञान लेते हुए धरना समाप्त कराने के बारे में सरकार से स्पष्टीकरण मांगा.
दूसरी तरफ़ विपक्षी समूहों ने दबाव डाला कि सरकार प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए सेना को बुलाये, लेकिन 22 नवंबर को ख़ादिम रिज़वी ने कहा कि उन्हें यक़ीन है कि सेना धरना ख़त्म कराने नहीं आएगी, क्योंकि वो और उनके समर्थक सेना का पक्ष मज़बूत करने के लिए ही तो विरोध कर रहे हैं. उनका कहना था, कि 'सेना कभी भी मोहम्मद साहब के सम्मान पर पीछे नहीं हटी है और न कभी हटेगी.'
ख़ादिम रिज़वी के इस विश्वास पर कुछ हलकों ने मीडिया में और राजनीतिक बैठकों में संदेह जताया और राजनेताओं ने भी इशारों में चिंता व्यक्त की कि सांप्रदायिक हिंसक प्रदर्शनकारियों को किसी ऐसी ताक़त की मदद मिल रही है, जो देश में राजनीतिक प्रक्रिया और लोकतांत्रिक व्यवस्था की निरंतरता और स्थिरता नहीं चाहते हैं.
लेकिन तहरीक की मजलिस-ए-शूरा के सदस्य पीर इनायत-उल-हक़ ने मुझे इसका जवाब सवाल के ही अंदाज़ में दिया. उन्होंने कहा कि 'अगर यह आरोप सही है कि इन हलकों से हमारा कोई संबंध है, तो क्या हम आये दिन अपने कार्यकर्ताओं की लाशें उठाने सड़कों पर आते? हमारा सबसे बड़ा अपराध यही है कि हम स्टेब्लिशमेंट के साथ नहीं हैं. अगर हम इनके साथ होते, तो नेशनल असेंबली में बहुमत भी होता सारे मंत्रालय भी होते, कराची का उपचुनाव हमने जीता हुआ था, वो भी नहीं हराया जाता. इतने वोट तो इमरान ख़ान पूरे जीवन में भी नहीं ले सके जितने हमने पहली बार चुनाव में हिस्सा ले कर लिए. हमारे पास सब कुछ होता. यह आरोप सिर्फ़ और सिर्फ़ झूठ का पुलिंदा है.
पीर इनायत का कहना अपनी जगह है, लेकिन सियासी हलकों की सेना को बुलाये जाने की मांग के संदर्भ में, 22 नवंबर, 2017 की उसी रात को, सेना के प्रवक्ता और जनसंपर्क विभाग (आईएसपीआर) के प्रमुख जनरल आसिफ़ ग़फ़ूर का बयान सामने आया कि इस मुद्दे का शांतिपूर्ण समाधान निकालना बेहतर होगा, लेकिन सरकार जो भी फ़ैसला करेगी, सेना उस पर अमल करने के लिए बाध्य है.'
अंत में, 25 नवंबर, 2017 को, सरकार ने पुलिस की ज़रिये धरना समाप्त कराने का प्रयास किया, और इस दौरान होने वाली झड़पों में दोनों पक्षों के हताहत होने की ख़बरें आने लगी.
कराची और लाहौर में कई लोगों की मौत की ख़बर आई, और भीड़ देश भर में, ख़ासकर पंजाब में मुस्लिम लीग (नवाज़) के नेताओं और कार्यकर्ताओं के घरों पर हमला करती रही.
देश के अधिकांश हिस्सों में, इंटरनेट बंद कर दिया गया था, और सरकारी आदेश के तहत चैनलों का प्रसारण रोक दिया गया और कई वेबसाइटों और सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्मों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.
एक महिला विश्लेषक के मुताबिक़, 'लेकिन हमेशा की तरह जीत ख़ादिम रिज़वी और तहरीक-ए-लब्बैक की हुई.' उनकी मांग पर, संघीय क़ानून मंत्री ज़ाहिद हामिद को इस्तीफा देना पड़ा.'
ख़ादिम रिज़वी और उनकी राजनीतिक शक्ति की यह राजनीतिक जीत तब दर्ज की गई जब तनाव और मौत सहित जानी और माली नुक़सान के बाद आख़िरकार 27 नवंबर को, सैन्य नेतृत्व के हस्तक्षेप के साथ, दोनों पक्षों को फिर से बातचीत की मेज़ पर लाया गया और एक छह सूत्री समझौता हुआ.
'इस समझौते के तहत, क़ानून मंत्री जाहिद हामिद ने इस्तीफ़ा दिया, सरकार ने बड़ी संख्या में गिरफ़्तार तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं को रिहा कर दिया, विवादास्पद बनने वाले क़ानून के मसौदे की सामग्री को बहाल किया गया, और तब भी ऐसा ही लगा कि तहरीक-ए-लब्बैक की मांगों के सामने सरकार ने घुटने टेक दिए.
तहरीक-ए-लब्बैक, सुन्नी तहरीक और अन्य के साथ होने वाले सरकार के इस समझौते में आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में स्वीकार किया कि सेना ने समझौते में एक केंद्रीय भूमिका निभाई, और समझौते में जिस पर जनरल फ़ैज़ हमीद ने भी हस्ताक्षर किए थे. यह लिखा गया कि जनरल बाजवा और उनके प्रतिनिधि के विशेष प्रयासों से ये समझौता तय किया गया.
जब टीवी चैनलों का प्रसारण फिर से शुरू हुआ, तो अर्धसैनिक संगठन रेंजर्स के (तत्कालीन) महानिदेशक अज़हर नवेद हयात प्रदर्शनकारियों को पैसे बांटते हुए भी दिखाई दिए.
एक विश्लेषक के अनुसार, 'तब यह धारणा सामने आई कि टीएलपी (तहरीक-ए-लब्बैक) को कुछ राज्य संस्थानों का समर्थन या संरक्षण प्राप्त है.' और इन सबके निशाने पर एक ख़ास राजनीतिक दल था.
लेकिन तहरीक-ए-लब्बैक के नेता पीर इनायत-उल-हक़ शाह ने इस आरोप के जवाब में कहा कि 'राजनीतिक उद्देश्यों के लिए पैसे का लेनदेन चोरी छिपे होता हैं. सार्वजनिक रूप से पैसा नहीं दिया जाता है.'
'यह हमारे ख़िलाफ़ साज़िश थी. सार्वजनिक रूप से पांच या सात लोगों को पैसे दिए गए. उस समय वहां मौजूद हमारे नेता इंजीनियर अल्वी ने उन अधिकारी से कहा कि हमारे कार्यकर्ताओं को पैसे न दें.यह बात भी उसी वीडियो क्लिप में मौजूद है. तो अधिकारी ने कहा नहीं... नहीं... ये हमारे भी बच्चे हैं. इनके पास तो जूते तक नहीं हैं. हम इन्हें पैसे देंगे. इसके अलावा अगर हमारी तहरीक पर किसी लेन देन का आरोप है, तो हमें बताएं. वह हमें बदनाम करने की एक साज़िश थी.
जब पैसे के बंटवारे का वीडियो फ़ुटेज सामने आया, तो तहरीक और स्टेब्लिशमेंट के बीच ख़ुफ़िया संबंध या साज़िश का संदेह फिर से उभरा, और तहरीक और सरकार के बीच होने वाले हर समझौते में सेना के 'ज़मानती' बनने पर राजनीतिक और सामाजिक हलकों और मीडिया ने सवाल उठाए.
इस आरोप को जब मैंने तहरीक-ए-लब्बैक के नेता पीर इनायत-उल-हक़ शाह के सामने रखा, तो उन्होंने मेरे सवाल का जवाब देने के बजाय मुझसे ही सवाल पूछ लिया. 'ठीक है, आप बताएं कि पाकिस्तान पर किसका शासन है?'
जब इस देश के गृह मंत्री कहते हैं कि मेरे बस में कुछ नहीं है, मेरी तो औक़ात ही नहीं है और एक समारोह में मौजूद 'किसी और' की ओर इशारा करते हुए (इस देश के गृह मंत्री) कहते हैं कि जो कुछ करना है, उन्हें करना है... जब पंजाब के गवर्नर वहीं समारोह में ये कह कर मुझे किसी और की मौजूदगी का एहसास कराएं कि जो करना है उन्हें करना है और जब पाकिस्तान के धार्मिक मामलों के संघीय मंत्री कहें कि जो करना है उन्हें करना है और वहाँ भी कोई और मौजूद हो, तो फिर आप मुझे बताओ?' पीर इनायत ने फिर सवाल किया.
हालांकि, टीएलपी के प्रदर्शनकारियों को डीजी रेंजर्स द्वारा पैसे बांटने जैसे मामलों पर आगे चल कर अदालती कार्यवाही में पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस फ़ाइज़ ईसा के फ़ैसले की गूंज कई वर्षों तक सुनाई देती रही और आज भी सुनाई देती है. जिसमे सेना और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसियों को स्पष्ट तौर पर नाम ले लेकर चेतावनी दी गई कि वो अपने अधिकार क्षेत्र और संवैधानिक दायरे में रहे अपनी हद को पार न करें.
अदालत ने हैरानी जताई कि आईएसआई के महानिदेशक फ़ैज़ हमीद ने कैसे (किस अधिकार से) समझौता कर लिया.
फ़ैसले में सेना के प्रवक्ता को भी फटकार लगाई गई कि उन्होंने अपने अधिकार से बाहर जा कर 'राजनीतिक मुद्दों पर टिप्पणी' की.
अदालत ने सशस्त्र बलों के प्रमुखों को निर्देश दिए कि वो उन अधिकारीयों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करें, जिन्होंने अपनी शपथ का उल्लंघन करते हुए किसी भी राजनीतिक दल या समूह का समर्थन किया है.
एक राजनेता ने कहा कि, '20 दिनों के विरोध की ये लहर ही असल में ख़ादिम रिज़वी के लिए प्रसिद्धि और लोकप्रियता हासिल करने का वो 'सुनहरा' मौक़ा साबित हुई, जिसने उन्हें सार्वजनिक स्वीकृति के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में 'पूर्ण नेता' के रूप में एक अलग स्थान दिया. इसके बाद उनकी गिनती उन नेताओं में होने लगी जो किसी संघीय मंत्री का इस्तीफ़ा दिलवा सकते हैं.
तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान की स्थापना
राजनेता के अनुसार, 'ख़ादिम रिज़वी ने विरोध से प्राप्त सारी ताक़त, प्रसिद्धि और लोकप्रियता के इस 'सुनहरे अवसर' का लाभ उठाया और आख़िरकार 2017 में इस सांप्रदायिक आंदोलन को एक औपचारिक राजनीतिक पार्टी बना ली.'
तहरीक-ए-लब्बैक के नेता पीर इनायत-उल-हक़ ने मुझे बताया, कि जब तहरीक-ए-लब्बैक या रसूलुल्लाह के इसी नाम को चुनाव आयोग ने रजिस्टर करने से मना कर दिया तो हमने सोच विचार करके अपनी राजनीतिक पार्टी को तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) नाम दिया और पाकिस्तान चुनाव आयोग में इसका रजिस्ट्रेशन भी हो गया.
चुनाव आयोग ने इस पार्टी को क्रेन का चुनाव चिन्ह भी जारी कर दिया.
तहरीक-ए-लब्बैक की संसदीय सफ़लता
सितंबर 2017 में, जब (पूर्व) प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को अयोग्य घोषित कर दिया गया और इस आधार पर नवाज़ शरीफ़ के एनए-120 (शेख़ुपुरा) निर्वाचन क्षेत्र में उपचुनाव हुए, तो उस समय तहरीक-ए-लब्बैक आधिकारिक तौर पर एक औपचारिक राजनीतिक पार्टी (रजिस्टर) नहीं थी, लेकिन फिर भी तहरीक-ए-लब्बैक ने इस उपचुनाव में हिस्सा लिया.
तहरीक समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार शेख़ अज़हर हुसैन रिज़वी ने 7130 वोट पाकर राजनीतिक हलकों और अधिकारियों को चौंका दिया.
चुनाव आयोग के रिकॉर्ड के मुताबिक़ 26 अक्टूबर 2017 को जब पेशावर से नेशनल असेंबली के एनए-4 निर्वाचन क्षेत्र में उपचुनाव हुआ तो तहरीक-ए-लब्बैक समर्थित उम्मीदवार को 9935 वोट मिले.
पाकिस्तान में कट्टरपंथ, धर्म से जुड़ा उग्रवाद और चरमपंथी सांप्रदायिक महत्वकांक्षाओं पर शोध करने वाली एक संस्थान के प्रमुख मशहूर शोधकर्ता आमिर राणा कहते हैं कि 'ऐसा नहीं है कि तहरीक सिर्फ़ एक प्रांत (पंजाब) तक सीमित थी... उनकी राजनीतिक उपस्थिति बलूचिस्तान के क्वेटा, खुज़दार और मकरान जैसे क्षेत्रों में भी स्थापित हो चुकी थी.
लगभग 10 महीने बाद, पाकिस्तान में 2018 के आम चुनाव 25 जुलाई को हुए और तहरीक-ए-लब्बैक ने उनमे भी एक राजनीतिक दल के रूप में भाग लिया और कुल मिलाकर लगभग 22 लाख वोट लेकर, देश की पांचवीं और पंजाब की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक ताक़त बनकर उभरी.
तहरीक-ए-लब्बैक और ख़ादिम रिज़वी, जो पंजाब में बहुत लोकप्रिय और सक्रिय थे, ने आश्चर्यजनक रूप से पंजाब से राष्ट्रीय या प्रांतीय विधानसभा में तो कोई सीट नहीं जीती, लेकिन उनकी पार्टी ने आम चुनावों में सिंध की प्रांतीय विधानसभा की दो जनरल और एक आरक्षित सीट सहित तीन सीटें हासिल की.
दूसरा बड़ा विरोध
तहरीक-ए-लब्बैक ने अप्रैल 2018 में अपना दूसरा बड़ा विरोध प्रदर्शन किया, जब इसके समर्थक प्रदर्शनकारियों ने पंजाब के सभी प्रमुख राजमार्गों को ये कह कर बंद कर दिया, कि सरकार 2017 के समझौते की शर्तों पर अमल करे.
इस दौरान भी अशांति, तनाव, उकसावे और आगज़नी की घटनाएं हुईं जिनमें कई लोगों के घायल होने की ख़बरें आती रहीं.
तीसरा बड़ा विरोध
8 अक्टूबर, 2018 को, पाकिस्तान के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस मियां साक़िब निसार, जस्टिस आसिफ़ सईद खोसा और जस्टिस मज़हर आलम की पीठ ने मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए आसिया बीबी का फ़ैसला सुरक्षित रख लिया. लेकिन 31 अक्टूबर को 56 पेज के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में आदेश दिया गया कि आसिया बीबी को तत्काल रिहा किया जाये.
इस फ़ैसले ने एक बार फिर हिंसक विरोध की चिंगारी को हवा दे दी, इसमें भी ख़ादिम रिज़वी और तहरीक-ए-लब्बैक सबसे आगे थे.
तहरीक-ए-लब्बैक ने भी दूसरे सभी धार्मिक संगठनों और कुछ सांप्रदायिक समूहों के साथ, निर्णय को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और अपने समर्थकों को सड़कों पर उतर कर विरोध करने का निर्देश दे दिया.
एक विश्लेषक के अनुसार, तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के एक संस्थापक सदस्य मोहम्मद अफ़ज़ल क़ादरी ने सुप्रीम कोर्ट में आसिया बीबी के मामले की सुनवाई करने वाले तीनों जजों के लिए ही सज़ा-ए-मौत की मांग कर दी और उन्हें मरने लायक़ कहते हुए 'उनके स्टाफ (गार्ड या ड्राइवर, आदि) को उकसाया कि जिसे भी मौक़ा मिले वो इन जजों को मौत के घाट उतार दें.
लेकिन मेरे साथ बातचीत में टीएलपी नेता पीर इनायत-उल-हक़ शाह ज़ोर देकर कहते रहे कि 'तहरीक-ए-लब्बैक एक शांतिपूर्ण पार्टी है.'
इस मौक़े पर केवल कराची में 32 अलग-अलग जगहों पर धरना दिया गया. संघीय और प्रांतीय राजधानियां अगले कई दिनों तक तहरीक-ए-लब्बैक के लाठी डंडे लिए प्रदर्शनकारियों के क़ब्ज़े में रहीं.
सभी प्रमुख राजमार्गों और मोटरवेज़ पर यातायात बंद रहा, मोबाइल फ़ोन नेटवर्क बंद कर दिया गया था और इंटरनेट सेवा निलंबित कर दी गई थी. सभी ईसाई शैक्षणिक और धार्मिक संस्थान भी अनिश्चित काल तक के लिए बंद कर दिए गए थे.
आसिया बीबी के वकील सैफ़ अल-मुलूक की जान को गंभीर ख़तरा था और उन्हें 3 नवंबर को हॉलैंड भेज दिया गया था.
तब तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के मुख्य प्रवक्ता एजाज़ अशरफ़ी ने कहा था कि उनकी दो मांगें हैं. पहली तो ये कि सुप्रीम कोर्ट के तीनों जज इस्तीफ़ा दें और दूसरा अदालत का फ़ैसला वापस लिया जाये.
प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में इस बार भी 'कठोर स्वर' अपनाया लेकिन उनकी ही सरकार के मंत्री लगातार ख़ादिम रिज़वी के साथ बैठकें और वार्ता करते रहे.
लेकिन जब ख़ादिम रिज़वी ने यह कहा कि बातचीत के दौरान एक आईएसआई अधिकारी ने उन्हें 'गोलियों से भून देने की धमकी दी है तो वार्ता 'विफ़ल' हो गई.
दूसरी तरफ़ सरकारी टीवी पर सेना के प्रवक्ता ने ये बयान दिया कि पहले क़ानूनी आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए (यानी) सरकार को अपने सभी क़ानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए या प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने और विरोध को नियंत्रित करने के लिए पहले पुलिस और रेंजरों को अपने सभी विकल्पों का उपयोग करना चाहिए.
जनरल आसिफ़ ग़फ़ूर ने कहा, कि 'सरकार अगर सेना को बुलाती है तो सेना प्रमुख अपनी सलाह देंगे, लेकिन हम चाहते हैं कि पहले क़ानूनी जरूरतें पूरी हों.'
एक विश्लेषक के अनुसार, 'आख़िर लगभग तीन सप्ताह के अशांत विरोध के बाद, सेना के गुप्त हस्तक्षेप के कारण सरकार और तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) के बीच इन पांच बिंदुओं पर समझौता हुआ, कि आसिया बीबी के विदेश जाने पर प्रतिबंध लगाया जाये और सरकार आसिया बीबी को रिहा करने के फ़ैसले के विरोध में अदालत में दायर की जाने वाली याचिका का विरोध नहीं करेगी और तहरीक के सभी गिरफ़्तार कार्यकर्ताओं को रिहा किया जाएगा.
इस समझौते के बाद ख़ादिम रिज़वी ने धरना ख़त्म करने का ऐलान किया और उनके ऐलान के बाद ही देश में हालात सामान्य हो सके.
यानी, यह एक बार फिर साबित हो गया कि ख़ादिम हुसैन रिज़वी की मर्ज़ी से ही सभी बाज़ार, व्यावसायिक गतिविधियां, कार्यालय और शैक्षणिक संस्थान फिर से खोल दिए गए. आपको अंदाज़ा हो रहा होगा कि अगर 'कोई' चाहे तो राजनीतिक सत्ता धीरे-धीरे कैसे हासिल की जाती है.
आसिया बीबी के वकील सैफ़ अल-मुलूक ने इस समझौते को दर्दनाक करार दिया और देश की सर्वोच्च अदालत के फ़ैसले को लागू करने में विफ़ल होने पर इमरान ख़ान सरकार की आलोचना की.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने समीक्षा याचिका पर विचार करते हुए 29 जनवरी, 2019 को आसिया बीबी को रिहा करने के फ़ैसले को बरकरार रखा और कहा कि पाकिस्तान में आसिया बीबी की जान को ख़तरा है और वह चाहें तो देश से बाहर जा सकती हैं. जिसके बाद दोबारा, लेकिन पहले के मुक़ाबले कम हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ.
इस स्थिति का दो तरह से असर पड़ा. एक तो, ख़ादिम रिज़वी पाकिस्तान में सबसे शक्तिशाली धार्मिक नेताओं में से एक बन गए और दूसरा अब वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महशूर होने लगे और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी उन्हें एक बहुत मज]बूत धार्मिक नेता के रूप में पहचाना जाने लगा.
एक विश्लेषक के अनुसार, 'जब तहरीक-ए-लब्बैक ने धमकी दी कि आसिया बीबी को देश से बाहर ले जाने के हर प्रयास को विफ]ल कर दिया जाएगा, तो पाकिस्तान सरकार ने कई महीनों तक आसिया बीबी को एक अज्ञात सुरक्षित जगह पर रखा और आख़िरकार उन्हें बड़े ख़ुफ़िया तरीक़े से कनाडा भेज दिया गया. 2020 में आसिया बीबी ने फ़्रांस में राजनीतिक शरण हासिल कर ली.'
ख़ादिम रिज़वी के रातों-रात इतने ताक़तवर नेता बन जाने पर, शोधकर्ता आमिर राणा का कहना है कि यह सब अचानक नहीं हुआ.
'चालीस साल पुराने अफ़गान युद्ध के संदर्भ में, राज्य ने एक विशेष माहौल बनाया है. केवल वे मदरसे जिनका आधिकारिक रूप से रजिस्ट्रेशन कराया जा चुका है, उनकी संख्या 35000 से ज़्यादा है. मदरसा सिर्फ़ एक इकाई नहीं है. इसके साथ मस्जिद भी होती है, खैराती संस्थान भी होते हैं और ये सब मिलकर एक विशेष माहौल बना सकते हैं और पाकिस्तान में यह माहौल बनाया गया है.
वह आगे कहते हैं कि 'पहले यह सब एक तरफ़ (यानी जिहादी सर्कल) हुआ, फिर जब उधर से मामले निपट गए तो नरम (सॉफ़्ट) इस्लाम को प्रोत्साहित करो तो सोच समझ कर शुरू किया गया. लेकिन अब राज्य के पास वैकल्पिक नज़रिया नहीं है और न ही इसकी ज़रूरत महसूस हो रही है क्योंकि मानसिकता वही है और वे (तहरीक-ए-लब्बैक) अभी तक राज्य के दुश्मन भी नहीं हैं.
तहरीक-ए-लब्बैक की मजलिस-ए-शूरा के सदस्य पीर इनायत-उल-हक़ शाह के अनुसार, 2018 में ही एक और बड़े विरोध प्रदर्शन की कोशिश उस समय हुई, जब हॉलैंड के सांसद और इस्लाम विरोधी समझे जाने वाले नेता गैरेथ वाइल्डर्स, की तरफ़ से हॉलैंड में इस्लाम के पैगंबर की तस्वीरों के प्रदर्शन का एलान किया गया.
पीर इनायत ने कहा, कि 'लेकिन जब हमारा नेतृत्व इस मुद्दे पर विरोध करने के लिए अपने समर्थकों के साथ इस्लामाबाद पहुंचा, तो विदेश मंत्री शाह महमूद ने कहा कि हॉलैंड के राजदूत ने उन्हें सूचित किया कि अपमानजनक स्केच प्रदर्शित करने का निर्णय वापस ले लिया गया है.' इसलिए धरना स्थगित कर दिया गया.
नवंबर 2018 में, जब तहरीक ने अपनी घोषणा के अनुसार पहला 'शहीद' सम्मान दिवस मनाने और आसिया बीबी के मामले पर होने वाले समझौते को लागू कराने के लिए दबाव डालने के लिए इस्लामाबाद जाना चाहा, तो 23 नवंबर 2018 को इमरान ख़ान सरकार ने कैबिनेट की मंज़ूरी के बाद ख़ादिम रिज़वी को उनके क़रीब 50 साथियों के साथ गिरफ़्तार कर लिया.
इस गिरफ़्तारी पर भी विरोध शुरू हो गया और स्थिति बिगड़ गई. उन पर और उनके सहयोगियों पीर अफ़ज़ल क़ादरी, पीर इनायत-उल-हक़ शाह और फ़ारूक़ अल-हसन पर आतंकवाद और राजद्रोह के मुक़दमे तो हुए, लेकिन जल्द ही उन्हें रिहा भी कर दिया गया.'
एक और विरोध
फ्रांस में इस्लाम के पैग़ंबर के अपमानजनक रेखाचित्रों के प्रकाशन के विरोध में 16 नवंबर, 2020 को ख़ादिम रिज़वी अपने संगठन के साथ एक बार फिर इस्लामाबाद गए.
इस बार भी विरोध हिंसक हो गया और गुस्साए प्रदर्शनकारियों की हिंसा में दर्जनों पुलिस अधिकारी घायल हो गए.
पुलिस रिपोर्टों के अनुसार, राजधानी की ओर जाने वाली सभी सड़कों और राजमार्गों को बंद करने के बाद, पुलिस और क़ानून प्रवर्तन एजेंसियां भी हरकत में आ गई और गुस्साए प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस का इस्तेमाल किया गया.
कई जगहों पर दंगों के बाद आख़िरकार एक ही दिन बाद सोमवार 17 नवंबर को इमरान ख़ान सरकार और तहरीक-ए-लब्बैक के बीच अचानक एक और समझौते की ख़बरें आईं. इस बार सरकार की तरफ़ से समझौते पर नूरुल हक़ क़ादरी और गृह सचिव ब्रिगेडियर एजाज़ शाह समेत कई अधिकारियों ने हस्ताक्षर किए.
समझौते के तहत, सरकार ने वादा किया कि दो से तीन महीने के अंदर संसद में क़ानून बना कर फ्रांस के राजदूत को निर्वासित कर दिया जायेगा. फ्रांस में पाकिस्तानी राजदूत की नियुक्ति नहीं की जाएगी और देश में सभी फ्रांसीसी उत्पादों का सरकारी स्तर पर बहिष्कार किया जाएगा. सभी गिरफ़्तार प्रदर्शनकारियों को रिहा किया जाएगा और उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी.
मौलाना ख़ादिम हुसैन का निधन
इस समझौते के दो दिन बाद ही गुरुवार 19 नवंबर, 2020 की शाम तहरीक-ए-लब्बैक के संस्थापक अमीर मौलाना ख़ादिम हुसैन रिज़वी का एक अशांत, शोहरत और विवादों से भरा जीवन गुज़ार कर महज़ 54 साल की उम्र में लाहौर में निधन हो गया.
शेख जायद अस्पताल के रिकॉर्ड के मुताबिक़ गुरुवार की रात 8 बजकर 48 मिनट पर जब उन्हें अस्पताल लाया गया तो वह जीवित नहीं थे. 21 नवंबर को सुबह 10 बजे मीनार-ए-पाकिस्तान लाहौर में उनके जनाज़े की नमाज़ अदा की गई, जिसमें लाखों लोग शामिल हुए.
उन्हें लाहौर में मस्जिद-ए-रहमत-उल-लिल-आलमीन के मदरसा अबू ज़र ग़फ़्फारी के परिसर में दफ़नाया गया था और 21 नवंबर, 2020 को उनके बेटे साद हुसैन रिज़वी को उनका उत्तराधिकारी और तहरीक का दूसरा अमीर नियुक्त कर दिया गया.
साद रिज़वी अपने पिता के मदरसे अबू ज़र गफ़्फ़ारी में दरस-ए-निज़ामी (धार्मिक शिक्षा में एमए के समकक्ष) के छात्र थे.
साद रिज़वी भी विरोध के रास्ते पर
अपने पिता और पूर्ववर्ती ख़ादिम रिज़वी की तरह साद हुसैन रिज़वी ने भी विरोध का रास्ता अपनाया.
नए नेतृत्व ने जनवरी 2021 में सरकार को चेतावनी दी कि अगर 17 फरवरी तक फ्रांसीसी राजदूत के निर्वासन समझौते को लागू नहीं किया गया तो आंदोलन सड़कों पर उतरेगा.
इस धमकी के बाद, सरकार और तहरीक-ए-लब्बैक के नए अमीर के बीच एक बार फिर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए.
इस नए समझौते के तहत यह तय हुआ कि सरकार न केवल 20 अप्रैल, 2021 तक फ्रांसीसी राजदूत के निर्वासन के लिए संसद को संदर्भित करेगी, बल्कि फ़ोर्थ शिड्यूल (गतिविधियों से अधिकारियों को सूचित रखने वाले कड़े क़ानून) में शामिल किये जाने वाले तहरीक-ए-लब्बैक के सभी सदस्यों के नाम भी सूची से हटाए जायेंगे.
'लेकिन फिर, अचानक फ़ैसले के तहत, साद रिज़वी को 12 अप्रैल, 2021 को गिरफ़्तार करके उन पर आतंकवाद विरोधी अधिनियम के तहत मुक़दमा दर्ज कर दिया गया.'
और रिज़वी की गिरफ़्तारी से तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में भारी अशांति फ़ैल गई.
एक बार फिर लाहौर, कराची और इस्लामाबाद समेत कई शहरों में धरना दिया गया. सड़कें, राजमार्ग और रास्ते बंद कर दिए गए और यातायात बंद हो गया. विरोध सिंध और बलूचिस्तान तक फैल गया और खुज़दार में एक मौत के बाद स्थिति और तनावपूर्ण हो गई. देश भर में लोग बहुत परेशानी में दिखाई दिए.
इस बार विरोध प्रदर्शनों को दबाने के प्रयास में दो पुलिसकर्मियों सहित पांच लोग मारे गए और 300 से अधिक घायल हुए.
जेल अधिकारियों और तहरीक-ए-लब्बैक के नेताओं दोनों ने ही दावा किया कि साद रिज़वी और नेताओं को 20 अप्रैल तक रिहा कर दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.
तहरीक-ए-लब्बैक प्रतिबंधित घोषित
तहरीक-ए-लब्बैक जब हाई कोर्ट पहुंची तो लाहौर हाई कोर्ट के समीक्षा बोर्ड ने भी कहा कि साद रिज़वी को हिरासत में रखने का कोई औचित्य नहीं था. इसके बावजूद सरकार ने साद रिज़वी की हिरासत 90 दिन बढ़ा दी और 14 अप्रैल को वर्तमान गृह मंत्री शेख़ रशीद अहमद ने तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान को 'आतंकवादी पार्टी' करार देते हुए इस पर प्रतिबंध लगा दिया. तहरीक-ए-लब्बैक की सभी वित्तीय संपत्तियां फ़्रीज़ कर दी और राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
लेकिन कुछ ही दिनों के भीतर, इसी सरकार ने, जिसने तहरीक-ए-लब्बैक पर प्रतिबंध लगा दिया फिर उसी तहरीक-ए- लब्बैक से न केवल बातचीत की, बल्कि समझौते पर अमल करते हुए फ्रांसीसी राजदूत के निर्वासन के संबंध में 20 अप्रैल को संसद में एक प्रस्ताव भी पेश कर दिया.
लेकिन फिर भी, कोट लखपत जेल में क़ैद साद रिज़वी को रिहा नहीं किया गया. बल्कि 9 अक्टूबर को सरकार ने साद रिज़वी की रिहाई के संबंध में लाहौर हाई कोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया.
तहरीक-ए-लब्बैक ने धमकी दी कि अगर साद रिज़वी को 21 अक्टूबर तक रिहा नहीं किया गया तो वह दोबारा धरना देंगे.
आख़िरकार साद रिज़वी की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ तहरीक के उग्र कार्यकर्ता 20 अक्टूबर 2021 को सड़कों पर उतर आए और देश के ज़्यादातर शहर एक बार फिर सरकार और तहरीक की इस 'ज़ोर आज़माई' में जंग का मैदान बन गए.
इस बार, लाहौर के मुल्तान रोड पर शुरू हुए दो सप्ताह के विरोध अभियान में छह पुलिसकर्मियों की मौत हो गई, दर्जनों घायल हो गए और करोड़ो रूपये की संपत्ति और करोड़ो डॉलर के कारोबार को नुक़सान हुआ. लाहौर में गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने एक जिला पुलिस अधिकारी (एसएसपी) समेत 16 अधिकारियों को बंधक बना लिया.
यह पूछे जाने पर कि गुस्साए प्रदर्शनकारियों पर काबू पाने के लिए पुलिस भरसक प्रयास करती क्यों नहीं दिखाई देती, एक प्रांत के पूर्व आईजी ने कहा, कि अगर पुलिसकर्मी सरकार के आदेश पर गोली चलाएं और प्रदर्शनकारियों की मौत हो जाये तो इंक्वायरी भुगते, गोली न चलाएं और पुलिसकर्मी शहीद हो जाए तो भी इंक्वायरी भुगते! फिर क्या होता है? सरकार तो राजनीतिक मस्लिहत से काम लेते हुए दूसरे दिन या दूसरे हफ्ते वार्ता भी कर लेती है और समझौता भी. इस बार भी 6 पुलिसकर्मी शहीद हुए. और सरकार ने क्या किया? समझौते और माफ़ी का वादा! शहीद भी पुलिसकर्मी हुए 4 नवंबर को अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना भी पुलिस को करना पड़ा और सज़ा के तौर पर पूरे पंजाब में तबादले भी पुलिस अधिकारियों के हुए.'
अब जिस समझौते के तहत रिज़वी को रिहा किया गया है उसको तय करने वाली कमेटी के सदस्य और पकिस्तान की रुइयत-ए-हिलाल कमेटी (सरकारी चाँद कमेटी) के पूर्व प्रमुख मुफ्ती मुनीब ने 31 अक्टूबर को सरकार की तरफ़ से विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. जिसमे दोनों पक्षों में समझौता होने की घोषणा की, लेकिन आज तक दोनों में से किसी भी पक्ष की तरफ़ से इसकी शर्तों या विवरणों का ख़ुलासा नहीं किया गया है.
और अब, 18 नवंबर को, पाकिस्तान के संघीय सूचना मंत्री फ़वाद चौधरी ने कहा है कि सरकार और राज्य चरमपंथ से लड़ने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हैं. टीएलपी (तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान) के मामले में राज्य को पीछे हटना पड़ा.'
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