India Russia relations:पाकिस्तान के लिए पुतिन का प्यार उमड़ने का मतलब क्या है ? जानिए
नई दिल्ली, 15 अप्रैल: रूस ने अचानक से पाकिस्तान पर बहुत ज्यादा भरोसा करना शुरू कर दिया है। शीत युद्ध के बाद से लेकर अबतक रूस ने पाकिस्तान को कभी अपने इतने करीब नहीं आने दिया था। जाहिर है कि भारत के एक अहम सहयोगी और ऐतिहासिक दोस्त से मिले सहारे ने इमरान सरकार को गदगद कर दिया है। लेकिन, सवाल है कि भारत को इस बदले अंतरराष्ट्रीय माहौल में खुद को किस तरह से ढालने की जरूरत है। क्योंकि, रूस भारत की विदेश नीति का हमेशा से अहम किरदार रहा है और इसे एक-दो घटनाओं से ठुकराया नहीं जा सकता। लेकिन, सिर्फ पुरानी दोस्ती के भरोसी ही कान में तेल डालकर पड़े रहने में भी भलाई नहीं है। इसीलिए, आवश्यक है बदली हुई परिस्थितियों में ही भारत-रूस संबंधों को नए सिरे से संवारा जाए।
पाकिस्तान के लिए क्यों उमड़ा पुतिन का प्यार?
पाकिस्तानी अखबार ट्रिब्यून एक्सप्रेस में एक खबर छपी है, जिसमें रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की ओर से पाकिस्तान को दिए गए ऑफर को इमरान सरकार की ओर से 'ब्लैंक चेक' बताया जा रहा है। 11 अप्रैल को छपी इस खबर में रूसी विदेश मंत्री सर्गे लैव्रोव की हालिया इस्लामाबाद यात्रा का जिक्र किया गया है। इस दौरान उन्होंने पुतिन की ओर से जो वहां भाषण दिया, उसमें उन्होंने कहा कि मास्को पाकिस्तान के साथ 'किसी भी तरह के सहयोग' के लिए तैयार है। पुतिन सरकार के इसी भरोसे को इमरान खान सरकार पुतिन की ओर से 'ब्लैंक चेक' मान रही है। पुतिन ने इमरान को यह आश्वासन ऐसे वक्त में दिया है, जब उन्होंने 2036 तक अपनी सत्ता सुरक्षित कर ली है। इसीलिए, अगर उन्होंने इस्लामाबाद के प्रति लाड़ दिखाया है तो उसके मायने गंभीर हैं। गौरतलब है कि रूस और पाकिस्तान के कूटनीतिक संबंधों में यह बहुत बड़ा बदलाव है। रूसी विदेश मंत्री का यह दौरा 9 साल बाद हुआ है और हैरानी नहीं होगी कि पुतिन भी उनकी मेहमानबाजी कबूल करने के लिए जल्द तैयारी शुरू कर दें। (पहली तस्वीर सौजन्य: पाकिस्तानी पीटीआई के ट्विटर से)
भारत-रूस संबंध आज भी अच्छे हैं, लेकिन....
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विद्यार्थी शीत युद्ध के दौरान भारत-रूस की मित्रता के कसीदे पढ़ते रहे हैं। हालांकि, मास्को और नई दिल्ली के ताल्लुकात आज भी बहुत अच्छे हैं, और तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि रूसी विदेश मंत्री भारत होकर ही पाकिस्तान पहुंचे थे। लेकिन, इसमें उस गर्माहट की कमी जरूर महसूस की जा रही है, जो दोनों देशों के लोगों ने कई दशकों तक देखी है। 2020 में सालाना भारत-रूस सम्मेलन दो दशकों में पहलीबार रद्द कर दिया गया। वैसे दोनों देशों ने इसके लिए कोविड-19 महामारी का हवाला दिया, लेकिन अनुमान है कि चीन की चालबाजियों के बीच भारत और अमेरिका की बढ़ती नजदीकियां मास्को को रास नहीं आ रहा था। वैसे, भारत ने अमेरिका से दोस्ती की कीमत पर रूस के संबंधों को कभी कमतर नहीं होने दिया है और ना ही इसके लिए अपने स्वतंत्र निर्णय लेने के अधिकार से पीछे हटा है। अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत ने रूस से एस-400 लंबी-दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल खरीदने का फैसला किया। यह भारत की जरूरत भी है और उसके सामरिक स्वतंत्रता बरकरार रखने के लिए आवश्यक भी।
भारत-रूस दोस्ती पर लगी है चीन-पाकिस्तान की नजर!
सच्चाई ये है कि पूर्वी लद्दाख में चीन की हरकतों को देखने के बावजूद रूस ने जिस तरह से उसे नजरअंदाज करने की कोशिश की है, उससे भारत को सही संदेश नहीं मिला है। जबकि, रूस को भी पूरा इल्म होगा कि अगर चीन खुद को अमेरिका के खिलाफ विश्व का सुपरपावर बनाना चाह रहा है तो वह रूस को भी आज न कल पिछलग्गू बनाने का ही मंसूबा लेकर चल रहा होगा। ये बात सही है कि हाल के वर्षों में भारत और अमेरिका के संबंध बेहतर हुए हैं, लेकिन इसके लिए न तो भारत ने कभी रूस से अपनी मित्रता को कमतर होने दिया है और ना ही उछलकर अमेरिका की गोद में बैठने की कोशिश की है। देशहित में उसे जो भी सही लगा है, उसने वही कूटनीति अपनाई है और अपनी सामरिक जरूरतों को ही हमेशा प्राथमिकता दी है। भारत में कई लोग मानते हैं कि जब व्लादिमीर पुतिन की सत्ता को चुनौती मिल रही थी और रूस के करीब 200 शहरों में उनपर लगे भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे थे, तब उन्होंने भारत के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे थे। भारत को भी अपनी रक्षा जरूरतों के लिए उनकी साझेदारी की जरूरत है। लेकिन, भारत उसकी कीमत पर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में और भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के क्वार्डिलैटेरल (क्वैड) से खुद को अलग नहीं कर सकता। क्योंकि, भारत की विदेश नीति के सामने सबसे बड़ी चुनौती ड्रैगन है। हकीकत ये भी है कि आने वाले समय में एशिया को लेकर ही अमेरिका और चीन में जबर्दस्त संघर्ष होना तय है; ऐसे में चीन की दगाबाजियों को इस समय नजरअंदाज करना भारत के लिए अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने की तरह है।
रूस से दोस्ती को नई कसौटी पर कसने की जरूरत
ऐसे में अगर रूस ने अब पाकिस्तान को अपनी दक्षिण एशिया नीति के लिए मजबूत सहयोगी के तौर पर पुचकारना शुरू किया है, जो भारत के लिए भी अपनी परंपरागत कूटनीति और विदेश नीति को समय की जरूरतों के मुताबिक दुरुस्त करने की जरूरत बढ़ गई है। तथ्य यह भी है कि रूस ने तालिबान के साथ शांति प्रक्रिया में चीन और पाकिस्तान को साथ लेने का तो फैसला किया है, जबकि भारत को उपेक्षित छोड़ दिया है। जबकि, भारत की विदेश नीति के लिए अफगानिस्तान की हालातों पर आंखें मूंद कर बैठे रहना भी संभव नहीं है। जाहिर है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के ऐलान के बाद रूस एकबार फिर से अपनी विदेश नीति को वहां फोकस करना चाह रहा है, जो शायद उसकी सामरिक जरूरतों को पूरा कर सकता है। इसीलिए भारत को बहुत ही होशियारी से रूस के साथ डील करने का वक्त आ चुका है। ना तो वह पुरानी दोस्ती को भुला सकता है और ना ही उसकी वजह से अपने हितों से किसी तरह से समझौता कर सकता है। इसलिए उसके पास विकल्प यही है कि रूस के साथ जहां भी संभव है साझेदारी में काम करे और जहां भी ऐसा करना मुश्किल है, वहां उसे नजरअंदाज कर देने में ही समझदारी है।