बांग्लादेश में शेख़ हसीना की जीत पर क्यों ख़ुश हो सकता है भारत: दुनिया जहान
देव मुखर्जी कहते हैं, "अगर विदेश से कोई सहायता या निवेश देने को तैयार है तो आप ये आशा नहीं कर सकते कि बांग्लादेश सरकार इससे इनकार करेगी. अगर भारत को करना है तो उसे आगे आना चाहिए. इसका सबसे बड़ा उदाहरण श्रीलंका का हम्बनटोटा का है. अब हम इतनी बात कर रहे हैं कि वहां चीन आ रहा है. पर हमें ये याद रखना चाहिए कि श्रीलंका ने हम्बनटोटा के विकास का पहला प्रस्ताव भारत को दिया था. भारत सोता रहा."
"बांग्लादेश, बांग्लादेश, जहां बहुत सारे लोग मर रहे हैं और यह बिल्कुल बर्बादी जैसा मंज़र है जो मैंने कभी नहीं देखा."
मशहूर संगीतकार जॉर्ज हैरीसन का ये गीत साल 1971 में रिलीज़ हुआ था. ये वो वक़्त था जब भारतीय सेना की मदद से बांग्लादेश पाकिस्तान से एक हिंसक संघर्ष कर रहा था. और वहां आम लोगों की एक बड़ी तादाद शरणार्थियों में बदल गई थी.
1971 के इसी युद्ध से बांग्लादेश अस्तित्व में आया और इसी स्वतंत्रता संग्राम ने भारत से उसके संबंधों की नींव रखी. 15 साल के सैन्य शासन के बाद 1990 में वहां लोकतंत्र स्थापित लेकिन हुआ, लेकिन फिर भी राजनीतिक स्थिति नाज़ुक बनी रही.
हसीना के दौर में बांग्लादेश
मौजूदा दौर में बांग्लादेश में सियासत दो महिलाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है. एक ओर हैं 1971 के स्वतंत्रता संग्राम के नायक मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख़ हसीना और दूसरी तरफ़ हैं इसी युद्ध के सैन्य जनरल रहे ज़िया-उर रहमान की विधवा ख़ालिदा ज़िया.
ख़ालिदा ज़िया भ्रष्टाचार के एक मामले में जेल में हैं और शेख़ हसीना लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाली हैं. उनकी सत्ताधारी पार्टी अवामी लीग और उसके सहयोगियों ने चुनावों में एकतरफ़ा जीत दर्ज करते हुए 300 में से 288 सीटें अपने नाम की हैं.
ख़ालिदा ज़िया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की अगुवाई वाले विपक्षी गठबंधन को महज़ सात सीटें हासिल हुई हैं. विपक्षी दलों ने रविवार को हुए आम चुनावों की निंदा की है और इसे 'हास्यास्पद' बताया है. विपक्षी दलों ने फिर से मतदान कराने की मांग की है.
बांग्लादेश की संसद को जातीय संसद कहते हैं जिसमें तीन सौ पचास सदस्य होते हैं. इनमें से तीन सौ सांसद चुनाव के ज़रिये चुने जाते हैं और बाक़ी की पचास सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होती हैं, जिनका चयन सत्ताधारी दल या गठबंधन करता है.
दुनिया की सबसे सघन आबादी वाले देशों में गिने जाने वाले बांग्लादेश में ग़रीबी की जड़ें गहरी और व्यापक रही हैं लेकिन शेख़ हसीना के कार्यकाल में आबादी की रफ़्तार घटी है और स्वास्थ-शिक्षा के क्षेत्र में भी सुधार हुए हैं.
बांग्लादेश में भारत की राजदूत रही वीना सीकरी कहती हैं, "पिछले दस साल में बांग्लादेश ने अच्छी आर्थिक तरक्की की है. पिछले साल 2017-18 में उनकी विकास दर क़रीब 8 फीसदी रही थी. इसलिए विकास केंद्रित रवैया जारी रहेगा, ये बांग्लादेश के लिए अच्छी बात है."
बांग्लादेश में भारत के राजदूत रहे देव मुखर्जी भी इससे इत्तेफाक रखते हैं. वह कहते हैं, "अगर आप बांग्लादेश के सामाजिक सूचकांक देखें तो वे दक्षिण एशिया में शायद सबसे आगे हैं. सबसे बड़ी बात है कि शेख हसीना ने देश में इस्लामी चरमपंथ की समस्या का बहुत क़ाबिलियत के साथ मुक़ाबला किया है."
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हसीना की जीत भारत के लिए सकारात्मक क्यों?
चार हज़ार किलोमीटर की सीमा के साथ साथ भारत और बांग्लादेश बहुत कुछ साझा करते हैं. बांग्ला भाषा की वजह से दोनों देशों में सांस्कृतिक समानता भी है. जहां ख़ालिदा ज़िया की बीएनपी को कुछ मामलों में भारत विरोधी माना जाता है, वहीं अवामी लीग का रुख़ भारत समर्थक रहा है.
देव मुखर्जी बताते हैं, "कहा जाता है कि अवामी लीग की विचारधारा 1971 पर आधारित है. यानी वे बांग्ला भाषा और बांग्ला राष्ट्रवाद को बहुत अहमियत देते हैं. इस्लाम को भी देते हैं. वे इस्लाम के ख़िलाफ़ नहीं हैं. लेकिन बीएनपी इस्लाम को बहुत ज़्यादा ज़ोर देती है और कहा जाता है कि उनकी विचारधारा 1947 की है. जिसका एक पहलू ये है कि हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते. इसका एक नतीजा ये होता है कि भारत के साथ अच्छे संबंधों में उनकी इतनी रुचि नहीं होती और वे ख़ुद को पाकिस्तान के ज़्यादा क़रीब देखते हैं."
बांग्लादेश की 16 करोड़ की आबादी में 10 फीसदी आबादी अल्पसंख्यकों की है, जिनमें 8 से 9 फीसदी हिंदू समुदाय के लोग हैं. भारत ने इस बार बांग्लादेश चुनावों पर कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया और दोनों प्रमुख पार्टियों ने भी अपने चुनाव प्रचार में भारत को लेकर दूरी बनाई रखी.
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लेकिन शेख़ हसीना ने बीते दस साल में जो कुछ किया है, उसके आधार पर वीना सीकरी उनकी जीत को बांग्लादेश, भारत और बाक़ी दुनिया के लिए एक सकारात्मक घटना बताती हैं.
वह कहती हैं, "बांग्लादेश और भारत के बीच अभी बहुत मज़बूत संबंध हैं. मैं तो कहूंगी कि शायद ऐसे संबंध भविष्य में भी कभी न हों. दोनों देशों के बीच बीते दस सालों में जो सहयोग हुआ है और ख़ास तौर से पांच साल में, दरअसल उसमें काफ़ी चीज़ें अमल में लाई गई हैं. सीमा समझौते को लागू किया गया है, जल सीमा की समस्या ख़त्म हो गई है और आतंकवाद विरोधी मोर्चे पर दोनों देशों के बीच सहयोग बहुत अच्छा रहा है."
वहीं देव मुखर्जी कहते हैं कि शेख हसीना ने उस क्षेत्र में भारत की सबसे बड़ी चिंता दूर कर दी. उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनकी ज़मीन से पूर्वोत्तर भारत के विद्रोही गुटों को समर्थन न मिले.
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वीना सीकरी कहती हैं कि भारत के लिए यह ख़बर इसलिए भी सकारात्मक है क्योंकि पाकिस्तान का पक्ष ख़ालिदा ज़िया के पक्ष में रहा है. वह कहती हैं, "पाकिस्तान का रुख़ बिल्कुल बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी की ओर रहा है. जब बांग्लादेश में बीएनपी और जमात की सरकार थी साल 2001-06 में, उन दिनों में भारत में होने वाली आतंकी गतिविधियों में बांग्लादेश का कोई ना कोई फुटप्रिंट अक्सर मिलता था. पाकिस्तान ने जिस तरह से बांग्लादेश में अतिवादी मुसलमानों को समर्थन मिला, उसकी वजह से शेख हसीना के दौर में बांग्लादेश और पाकिस्तान के रिश्ते भी काफ़ी ख़राब हो गए थे. मैं तो ये नहीं कहूंगी कि पाकिस्तान अपनी कोशिशें बंद कर देगा."
कितनी लोकतांत्रिक हैं हसीना?
ख़ालिदा ज़िया को अतिवादी इस्लामी समर्थन ने तुलनात्मक तौर पर शेख़ हसीना की उदार छवि बनाने में मदद की है. हालांकि उनके अपने दौर में भी सेक्युलरों की हत्या और क़ानून व्यवस्था को लेकर नाराज़गी के स्वर उठते रहे हैं.
इस चुनाव में भी विपक्ष ने फर्ज़ीवाड़े के आरोप लगाए हैं और दोबारा मतदान की मांग की है. उनका आरोप है कि पुलिस का रुख़ उनके लिए पक्षपातपूर्ण रहा और उन्हें खुलकर प्रचार नहीं करने दिया गया. शेख़ हसीना का कहना है कि ये आरोप विपक्ष इसलिए लगाता है क्योंकि वह लोगों का समर्थन खो चुका है. लेकिन बीबीसी बांग्ला के एक संवाददाता ने चिटगांव में मतदान शुरू होने से पहले ही एक भरी हुई मतपेटी देखी थी.
विपक्षी चुनाव अभियान की अगुवाई करने वाले कमाल हुसैन ने चुनाव नतीजों के बाद मीडिया से कहा था, "लोगों की हत्याएं हुई हैं. लोगों को गिरफ़्तार किया गया है. उम्मीदवारों को गिरफ़्तार किया गया है. ये बिल्कुल अप्रत्याशित है. मैं एक बुरे सपने में भी नहीं सोच सकता था कि बांग्लादेश के 47 साल के इतिहास में कभी ऐसे हालात देखूंगा."
वीना सीकरी बताती हैं, "जो 2008 के चुनाव हुए थे, जिसके बाद शेख़ हसीना की सरकार बनी थी, वे चुनाव सेना के नियंत्रण में हुए थे. 2014 के चुनाव का बीएनपी ने ही ख़ुद बहिष्कार कर दिया. वो चुनाव में हिस्सा इसलिए नहीं लेना चाहते थे क्योंकि वे एक न्यूट्रल सरकार चाहते थे. जबकि बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाई हुई है. इस बार के चुनाव में ज़रूर कुछ शिकायतें चुनाव आयोग के पास पहुंची हैं और चुनाव आयोग ने कुछ बूथ्स पर दोबारा मतदान की बात कही है. यह ज़रूर मैं कहूंगी कि लोकतंत्र में लोकतांत्रिक संस्थाओं को हर हाल में मज़बूत किया जाना चाहिए."
शेख़ हसीना के दस साल के शासन में बांग्लादेश ने क़रीब छह फीसदी की रफ्तार से आर्थिक प्रगति की है और भारत-बांग्लादेश के बीच व्यापारिक रिश्ते भी सुधरे हैं. दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय कारोबार में बीते तीन साल में करीब तीस फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और यह क़रीब 10 अरब डॉलर का हो गया है.
चीन का प्रभाव
हालांकि बांग्लादेश में भारत की एक चिंता चीन को लेकर भी है. भारत नहीं चाहेगा कि चीन अपनी कर्ज़ देने की रणनीति के तहत बांग्लादेश पर प्रभाव बना ले और भारत पीछे रह जाए. चीन ने हाल के दिनों में बांग्लादेश में काफी निवेश किया है और बांग्लादेश में भी चीन को लेकर सकारात्मक स्वर हैं.
देव मुखर्जी कहते हैं, "अगर विदेश से कोई सहायता या निवेश देने को तैयार है तो आप ये आशा नहीं कर सकते कि बांग्लादेश सरकार इससे इनकार करेगी. अगर भारत को करना है तो उसे आगे आना चाहिए. इसका सबसे बड़ा उदाहरण श्रीलंका का हम्बनटोटा का है. अब हम इतनी बात कर रहे हैं कि वहां चीन आ रहा है. पर हमें ये याद रखना चाहिए कि श्रीलंका ने हम्बनटोटा के विकास का पहला प्रस्ताव भारत को दिया था. भारत सोता रहा."
कई जानकार मानते हैं कि शेख़ हसीना ने बाद के दिनों में बहुत चतुराई से भारत और चीन दोनों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से साधने की रणनीति बनाई है.
वो ये जानती हैं कि भारत के बिना उनका काम नहीं चल सकता लेकिन उनके सामने भारत पर निर्भर बने रहने की मजबूरी भी नहीं है.
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