AUKUS समझौता: परमाणु पनडुब्बी में आख़िर ऐसा क्या ख़ास है
रिएक्टर के भीतर यूरेनियम 235 पर न्यूट्रॉन्स की बमबारी की जाती है जिससे परमाणु विखंडन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और ज्यादा न्यूट्रॉन्स रिलीज़ होते हैं. विज्ञान में इसी प्रक्रिया को 'श्रृंखलाबद्ध नाभिकीय प्रतिक्रिया' कहते हैं. ये ऊर्जा ऊष्मा के रूप में प्राप्त होती है और इसका इस्तेमाल पनडुब्बी के भीतर बिजली पैदा करने के लिए टरबाइन चलाने के काम में लिया जाता है.
ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने ब्रिटेन और अमेरिका के साथ एक ऐतिहासिक रक्षा समझौता किया है जिसके तहत परमाणु ताक़त से लैस पनडुब्बियों का बेड़ा तैयार किया जाएगा.
ये पनडुब्बियां ऑस्ट्रेलिया के तटीय इलाकों और उसके जल क्षेत्र की सुरक्षा और निगरानी के काम लाई जाएंगी.
'परमाणु युग' की शुरुआत के साथ ही 1940 के दशक में न्यूक्लियर पावर से चलने वाले समुद्री जहाज़ों पर रिसर्च का काम शुरू हो गया था.
उसके बाद से केवल छह देशों के पास ही परमाणु ताक़त से लैस पनडुब्बियों की ताक़त है. ये देश हैं चीन, फ्रांस, भारत, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका.
ऐसे में ये सवाल पूछा जा सकता है कि आख़िर एक 'न्यूक्लियर सबमरीन' में परमाणु ताक़त का क्या इस्तेमाल होता है और इसका मतलब क्या है?
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शक्तिशाली ऊर्जा
पहली बात तो हमें ये समझ लेनी चाहिए कि परमाणु ताक़त से लैस पनडुब्बी का ये मतलब नहीं है कि वो कोई परमाणु हथियार है. ऊपर से ये सामान्य पनडुब्बियों की तरह लगती हैं. लेकिन प्रमुख अंतर उस ऊर्जा का है जिसकी मदद से ये चलती हैं.
परमाणु ऊर्जा पर रिसर्च के शुरुआती दिनों में ही वैज्ञानिकों को ये बात समझ में आ गई थी कि परमाणुओं के विखंडन से निकलने वाली ऊर्जा की विशाल मात्रा का इस्तेमाल बिजली पैदा करने में किया जा सकता है.
दुनिया भर में पिछले 70 सालों से बिजली संयंत्रों में लगे न्यूक्लियर रिएक्टर्स बिजली पैदा करके घरों और उद्योगों को रोशन कर रहे हैं. ठीक इसी तरह से एक परमाणु पनडुब्बी के भीतर न्यूक्लियर रिएक्टर लगा होता है और वही उसकी ऊर्जा का स्रोत होता है.
हरेक परमाणु का नाभिक प्रोटॉन और न्यूट्रॉन्स से बना होता है. परमाणुओं के विखंडन की प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में ऊर्जा पैदा होती है. परमाणु ऊर्जा से लैस पनडुब्बियों में ईंधन के लिए यूरेनियम का इस्तेमाल होता है.
प्राकृतिक यूरेनियम में दो तरह के आइसोटोप (समस्थानिक) होते हैं- यू 235 और यू 238. एक तत्व के परमाणु जिनकी परमाणु संख्या तो समान होती हैं, परन्तु भार अलग-अलग होता है, उन्हें आइसोटोप यानी समस्थानिक कहा जाता है.
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माना जाता है कि यू-235 का इस्तेमाल हथियार बनाने या ऊर्जा के उत्पादन के लिए किया जाता है. लेकिन अयस्क में यू-238 की मात्रा अधिक होती है. इस कारण यू-235 को अलग करने के लिए ख़ास तरह के सेंट्रीफ्यूज़ की ज़रूरत होती है.
न्यूक्लियर रिएक्टर के काम करने के लिए यूरेनियम फ़्यूल को शोधित करना होता है ताकि यू-235 की मात्रा को वांछित स्तर पर लाया जा सके. सबमरीन में ये स्तर 50 फ़ीसदी तक होता है.
न्यूक्लियर रिएक्टर में 'श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया' के लिए परमाणु ईंधन का संवर्धन काफी मायने रखता है, इसी से नियमित और सुरक्षित स्तर पर ऊर्जा का उत्पादन संभव हो पाता है.
रिएक्टर के भीतर यूरेनियम 235 पर न्यूट्रॉन्स की बमबारी की जाती है जिससे परमाणु विखंडन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और नतीज़ा ये होता है कि और न्यूट्रॉन्स रिलीज़ होते हैं. विज्ञान में इसी प्रक्रिया को 'श्रृंखलाबद्ध नाभिकीय प्रतिक्रिया' कहते हैं.
ये ऊर्जा ऊष्मा के रूप में प्राप्त होती है और इसका इस्तेमाल पनडुब्बी के भीतर बिजली पैदा करने के लिए टरबाइन चलाने के काम में लिया जाता है.
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परमाणु ऊर्जा के फ़ायदे और नुक़सान क्या हैं?
परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी का सबसे बड़ा फ़ायदा ये होता है कि उन्हें फिर से ईंधन लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती है. किसी परमाणु पनडुब्बी को जब ड्यूटी पर उतारा जाता है तो उसमें ईंधन के रूप में यूरेनियम की इतनी मात्रा मौजूद होती है कि वो अगले 30 सालों तक काम करते रह सकती है.
डीज़ल से चलने वाली पारंपरिक सबमरीन की तुलना में परमाणु ऊर्जा से लैस पनडुब्बी लंबे समय तक तेज़ रफ़्तार से काम कर सकती हैं. इसकी एक और ख़ास बात है. पारंपरिक कम्बस्टन इंजन के विपरीत इस पनडु्ब्बी को हवा की ज़रूरत नहीं पड़ती.
इसका मतलब ये हुआ कि एक न्यूक्लियर सबमरीन महीनों तक गहरे पानी में रह सकती है. उसे लंबे सफ़र पर दूरदराज़ के इलाकों में खुफिया अभियानों पर भेजा जा सकता है. लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी है. इसकी लागत बहुत ज़्यादा पड़ती है.
एक न्यूक्लियर सबमरीन को तैयार करने में अरबों डॉलर का खर्च आता है और इसे परमाणु विज्ञान के अनुभवी और जानकार लोग ही बना सकते हैं. ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालयों और सरकारी एजेंसियों न्यूक्लियर साइंस से जुड़े विषयों पर ट्रेनिंग प्रोग्राम्स चलाए जाते हैं और माना जा रहा है कि ऑस्ट्रेलिया इस सिलसिले में प्रशिक्षित वर्कफोर्स की बढ़ती मांग को पूरा करने में सक्षम है.
इसके अलावा उसे ब्रिटेन और अमेरिका से हुए समझौते के कारण उनके अनुभवों का भी फायदा मिलेगा. हालांकि अभी ये बात साफ़ नहीं है कि ऑस्ट्रेलिया के लिए जो परमाणु पनडुब्बियां बनाई जाएंगी, उसका ईंधन कहां से आएगा लेकिन ऑस्ट्रेलिया के पास यूरेनियम के भंडार पहले से मौजूद हैं. उसके पास इनके संवर्धन की क्षमता नहीं है जिससे इन्हें न्यूक्लिय फ़्यूल में बदला जा सकता है लेकिन ये तकनीक दूसरे देशों से खरीदी जा सकती है.
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परमाणु कचरे का क्या होगा?
ऑस्ट्रेलिया में साल 2015 में न्यूक्लियर फ़्यूल साइकिल रॉयल कमीशन का गठन किया गया था.
कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया में रेडियोएक्टिव कचरे का लंबे समय के लिए रखरखाव किया जा सकता है.
लेकिन अगर ऐसा होता है तो इसमें कोई शक़ नहीं कि आने वाले सालों में संघीय और प्रांतीय सरकार के बीच इसे लेकर बातचीत होगी.
और बातचीत के नतीज़े पर ही काफी कुछ निर्भर करेगा.
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गलतफ़हमियां
ऑकस समझौते का ये मतलब नहीं है कि ऑस्ट्रेलिया अपने जल क्षेत्र में परमाणु हथियारों की तैनाती करने जा रहा है. अगर वो ऐसा करता है तो इसके लिए 'वीपन ग्रेड' के यूरेनियम की ज़रूरत पड़ेगी. इसके लिए उसे यूरेनियम 235 को 90 फ़ीसदी तक संवर्धन करना होगा. लेकिन न्यूक्लियर सबमरीन के लिए उस तरह के ईंधन की ज़रूरत नहीं पड़ती है.
ऑस्ट्रेलिया ने परमाणु हथियारों के प्रसार पर रोकथाम लगाने वाली कई संधियों पर हस्ताक्षर किए है और वो परमाणु हथियार नहीं बना सकता है. परमाणु पनडुब्बी का सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि वो खुफिया तरीके से अपने मिशन को अंजाम दे सकता है. वो खुद बिना पकड़ में आए अपने टारगेट को निशाना बना सकता है.
चालक दल और पर्यावरण दोनों के लिहाज से इसकी सुरक्षा मायने रखती है. लेकिन आधुनिक टेक्नोलॉजी के सहारे सुरक्षा के इंतज़ाम जिस तरह से पुख़्ता हो रहे हैं, उससे ये उम्मीद की जाती है कि परमाणु पनडुब्बियों के दुर्घटनाग्रस्त होने के ख़तरे को कम किया जा सकता है. इस राजनीतिक फ़ैसले का आने वाले समय में क्या नतीजा निकलेगा, ये फिलहाल भविष्य के गर्भ में है.
लेकिन एक बात जो फिलहाल स्पष्ट लग रही है, वो ये है कि ऑस्ट्रेलिया की नई विदेश नीति में न्यूक्लियर साइंस के लिए पूर्व स्वीकार्यता की भावना है.
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