उ. कोरिया पर हमले से इसलिए परहेज़ करता है अमरीका..
क्या है इसमें चीन और उत्तर कोरिया के बीच 1961 में हुई संधि की भूमिका?
चीनी नेता माओ त्से-तुंग ने कहा था कि दोनों देश( उत्तर कोरिया और चीन ) होंठों और दांतों जितने क़रीब हैं.
बीती सदी के मध्य से ही चीन उत्तर कोरिया का सबसे स्पष्ट राजनीतिक और सैन्य सहयोगी रहा है. अमरीका से उत्तर कोरिया के विवादित रिश्तों के बीच उसने मध्यस्थ की भूमिका भी निभाई है.
1953 में दक्षिण और उत्तर कोरिया के बीच युद्ध में चीन ने उत्तर का साथ दिया था. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, इसमें चीन के डेढ़ लाख से ज़्यादा सैनिक मारे गए थे. तब से बीजिंग और प्योंगयांग के बीच रिश्ते बेहतर होने की प्रक्रिया जारी है.
संबंधों का आधार, 1961 की संधि
चीन और सोवियत संघ ने न सिर्फ युद्ध में उत्तर कोरिया की मदद की, बल्कि युद्ध के बाद देश को दोबारा खड़े होने का सहारा दिया.
लेकिन चीन और उत्तर कोरिया के बीच संबंधों के सबसे अहम आधारों में एक संधि है, जिस पर दोनों देशों ने 1961 में हस्ताक्षर किए थे. इसे मित्रता, सहयोग और पारस्परिक मदद की संधि कहते हैं.
इसके तहत चीन अपने सहयोगी की संस्कृति, अर्थशास्त्र, सामाजिक और तकनीकी विकास के क्षेत्र में मदद करने के संकल्प से बंधा हुआ है.
यही वो समझौता है, जिसके तहत चीन उत्तर कोरिया को आर्थिक सहयोग देता है, जिसकी हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने आलोचना की थी.
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सैन्य सहयोग की बुनियाद
यह संधि सिर्फ व्यापारिक सहयोग तक सीमित नहीं है. इसके अनुच्छेद दो में साफ़ लिखा है कि दोनों में से कोई देश अगर किसी के ख़िलाफ युद्ध का ऐलान करता है या हमले का शिकार होता है तो दूसरा देश हर तरीके से सैन्य सहयोग देगा.
इस तरह चीन और उत्तर कोरिया ने दक्षिण पूर्व एशिया में अमरीकी दख़ल के संभावित ख़तरों के जवाब में एक प्रतीकात्मक ढाल बना ली है.
जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में एशियन स्टडीज़ की शोधकर्ता ऐनी कोवालेस्की कहती हैं, 'मुझे लगता है कि यह संधि चीन और उत्तर कोरिया के बीच कानूनी आधार मुहैया कराती है, साथ ही कोरियाई क्षेत्र में चीन के भौगोलिक-राजनीतिक हितों को भी दर्शाती है.'
इसी संधि की वजह से बचता रहा है अमरीका
कोवालेस्की के मुताबिक, चीन इस संधि को एशिया में अपने 'हम विचार' कॉमरेड देश के लिए प्रतिबद्धता से ज़्यादा अमरीका और उसके सहयोगियों को यह संकेत देने की तरह देखता है कि वह मौजूदा स्थिति को बदलने की कोशिश न करें.
हाल ही में चीनी सरकार के फंड से हुए एक अध्ययन में सामने आया कि 1961 की संधि की वजह से अमरीका और उत्तर कोरिया ने प्रत्यक्ष तौर पर दोनों कोरियाई देशों को एक करने की कोशिशों से परहेज़ किया है.
हालांकि उत्तर कोरिया के परमाणु प्रसार और उस पर चीन की ताज़ा प्रतिक्रियाओं से इस संधि के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल हैं.
'किम जोंग-उन से थक चुका है चीन'
बीबीसी मुंडो ने जिन जानकारों से बात की, उनके मुताबिक उत्तर कोरिया के परमाणु प्रसार पर चीन का हालिया रुख दिखाता है कि कुछ हद तक चीन अब 'असहज किम जोंग-उन' से थक चुका है.
मई से चीन का सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स यह लिख रहा है कि उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम से चीन और क्षेत्र की सुरक्षा पर चोट हुई है.
इसके जवाब में अपनी एजेंसी केसीएनए के ज़रिये उत्तर कोरिया ने कहा, 'जीवन जितने कीमते अपने परमाणु कार्यक्रम को जोख़िम में डालकर चीन से दोस्ती की भीख नहीं मानेंगे.'
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'अब संधि की अहमियत ज़्यादा नहीं'
उधर, अमरीकी थिंक टैंक काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस की शोधकर्ता ओरियाना स्कायलर मानते हैं कि यह संधि अब चीन और उत्तर कोरिया के बीच संबंधों का आधार नहीं रह गई है.
वह कहते हैं, 'बल्कि मुझे लगता है कि संधि अब उस धुएं के स्तंभ की तरह है, जो कोरियाई प्रायद्वीप में चल रहे सत्ता संघर्ष और प्रभुत्व को छिपाती है.'
स्कायलर मास्त्रो बताते हैं कि किसी भी कीमत पर किसी सैन्य संघर्ष की स्थिति में चीन उत्तर कोरिया का साथ देने के लिए मजबूर नहीं होगा. ख़ुद संधि चीन को यह हक़ देती है कि अगर चीनी राष्ट्रपति युद्ध जैसी स्थिति में हिस्सा लेने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं तो वह ऐसा कर सकते हैं.
'चीन के पास संधि तोड़ने का भी विकल्प'
इसी संधि के पहले अनुच्छेद में लिखा है कि दोनों देशों को एशिया, दुनिया में शांति और लोगों की सुरक्षा को बचाए रखना होगा. इसके उल्लंघन के हवाले से चीन संधि से बाहर आ सकता है.
कोवालेस्की कहती हैं, 'चीन और उत्तर कोरिया अब एक ही ख़ून वाले दोस्त नहीं रह गए, जैसा संधि पर हस्ताक्षर करते हुए वे दावा करते थे. मेरा मानना ये है कि चीन की ओर से अमरीका से किसी संभावित लड़ाई में उलझने का फैसला संधि पर निर्भर नहीं करेगा, बल्कि इस पर निर्भर करेगा कि वह ख़तरे को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कितना ख़तरनाक मानता है.'
'कभी किम से मिले भी नहीं हैं जिनपिंग'
लेकिन स्कायलर मास्त्रो के मुताबिक, इसका यह मतलब नहीं होगा कि दोनों देशों के बीच 'प्यार ख़त्म हो चुका है.'
मास्त्रो कहते हैं, 'शी जिनपिंग कभी किम से मिले नहीं हैं और उन्हें पसंद न करने के लिए जाने जाते हैं. जहां तक मैं जानता हूं, सत्ता में आने के बाद से जिनपिंग की सिर्फ उत्तर कोरिया के वरिष्ठ अधिकारियों से ही मुलाक़ात हुई है.'
वह कहते हैं, 'साथ ही चीन ने 2013 में उत्तर कोरिया से अपना रक्षा समझौता रद्द कर दिया था. सर्वे बताते हैं कि चीन के लोगों ने इस फैसले का समर्थन किया था. अपने मक़सद और नीयत में यह संधि अब मर चुकी है.'