उत्तर प्रदेश चुनाव: स्वामी प्रसाद मौर्य तो बहाना है, ग़ैर यादव ओबीसी वोट बैंक पर सभी पार्टियों का निशाना है
दो दिन में योगी सरकार के दो बड़े मंत्रियों ने इस्तीफ़ा दिया और दोनों अन्य पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते हैं. अखिलेश यादव ने एक फ़ोटो ट्वीट करके बीजेपी की धड़कनें और बढ़ा दी हैं. इस रिपोर्ट के ज़रिए जानिए उत्तर प्रदेश चुनाव में ग़ैर यादव ओबीसी वोट क्यों है अहम?
स्वामी प्रसाद मौर्य का इस्तीफ़ा इस बार के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब तक का बड़ा उलटफेर क़रार दिया जा रहा है.
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मौर्य का इस्तीफ़ा ट्रेलर है, पूरी पिचर अभी बाक़ी है. एक दिन बाद ही योगी सरकार के दूसरे मंत्री दारा सिंह चौहान ने भी अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
स्वामी प्रसाद मौर्य उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री और राज्य में बीजेपी का बड़ा चेहरा माने जाते थे. ओबीसी में उनकी अच्छी पैठ मानी जाती है.
मौर्य गुट का दावा है कि अभी और इस्तीफे होंगे. उनके साथ जाने वाले मंत्री और विधायकों की लिस्ट लंबी है. इस वजह से कहा जा रहा है कि आने वाले चुनाव में बीजेपी का 'जातीय अंकगणित' थोड़ा कमज़ोर हो जाएगा और अगर समाजवादी पार्टी उन्हें अपने साथ लाने में कामयाब हो जाती है तो सपा का 'जातीय अंकगणित' और मज़बूत हो जाएगा.
लेकिन इन दावों के पीछे का आधार क्या है? क्या स्वामी प्रसाद मौर्य का ओबीसी होना, इतनी बड़ी बात है कि किसी पार्टी के लिए जीत-हार तय कर सकते हैं या फिर 'फ़ैक्टर' और भी हैं?
इसका जवाब तलाशने के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य के राजनीतिक सफ़र का आकलन करने के साथ-साथ, पिछली विधानसभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करना होगा और जाति के आधार पर उत्तर प्रदेश चुनाव के वोटिंग पैटर्न को भी बारीकी से समझने की ज़रूरत होगी.
ये भी पढ़ें : स्वामी प्रसाद मौर्य का बीजेपी छोड़ना योगी के लिए कितना बड़ा झटका?
स्वामी प्रसाद मौर्य का उत्तर प्रदेश की राजनीति में असर
अपने इस्तीफ़े के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य ने टीवी चैनलों से बात करते हुए कहा, "जब मैंने बसपा छोड़ा था, उससे एक दिन पहले तक बसपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में नंबर एक थी. आज उसका कहीं अता-पता नहीं है. भाजपा में मैं जब सम्मिलित हुआ, तो 14 साल के वनवास से पार्टी को निकाला, पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में मैंने सहयोग दिया."
ज़ाहिर है 2017 के चुनाव में बीजेपी की जीत का सेहरा वो ख़ुद के सिर बांध रहे हैं. उनका दावा है कि उनके साथ कई और विधायक और मंत्री भी इस्तीफा देंगे. कुछ इस्तीफ़े हो भी चुके हैं.
लेकिन एक सच ये भी है कि 2007 में बसपा की टिकट पर वो डलमऊ विधानसभा सीट से चुनाव हार गए थे. फिर कुशीनगर की पडरौना सीट से उपचुनाव जीत कर वो विधानसभा पहुँचे थे और उसके बाद से लगातार उस सीट पर जीतते आए हैं. बीजेपी की लहर में भी 2017 में वो अपने बेटे को चुनाव नहीं जीता पाए थे.
हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार मानते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के साथ-साथ प्रदेश के कुछ अन्य इलाकों में ग़ैर यादव ओबीसी आबादी में उनकी पैठ है.
शरद गुप्ता अमर उजाला के राजनीतिक मामलों के संपादक हैं.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्वामी प्रसाद मौर्य का क़द कितना बड़ा है, इस सवाल के जवाब में वो कहते हैं, "जो नेता ख़ुद पडरौना से लड़ता हो, जो लगभग बिहार बॉर्डर पर है, बेटे के लिए उन्नाव की एक सीट से टिकट माँग रहा हो जो सेंट्रल उत्तर प्रदेश में आता है और जिनकी बेटी बदायूं से सांसद हो, जो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किनारे पर है, उस आदमी के क़द का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक ही परिवार में लोग तीन अलग-अलग इलाके से चुनाव लड़ रहे हैं."
शरद गुप्ता का अपना आकलन है कि स्वामी प्रसाद मौर्य का प्रभाव तक़रीबन 50-70 सीटों पर है. वो आगे कहते हैं, "2016 में जब बसपा छोड़ कर मौर्य बीजेपी में आए थे तो 15 सीटों पर उन्होंने अपने उम्मीदवार को टिकट दिए जाने की डील की थी जिसमें से 12 उम्मीदवार जीते थे. तीन हारने वालों में उनका अपना बेटा भी शामिल था."
मीडिया में चल रही ख़बरों के मुताबिक़ बेटे के टिकट को लेकर ही बीजेपी से उनकी बात इस बार नहीं बन रही थी. हालांकि इस पर दोनों पक्षों की तरफ़ से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है. इलाके की बात करें तो प्रयागराज, रायबरेली, कौशांबी, संतकबीरनगर, सिद्धार्थनगर, बदायूं, कुशीनगर में इनका प्रभाव अच्छा है.
बीजेपी को इस बात का एहसास है और इस वजह से उनको मनाने का काम पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को सौंपा गया है.
ये भी पढ़ें : योगी सरकार के मंत्री मौर्य ने दिया इस्तीफ़ा, अखिलेश ने कहा -सपा में स्वागत
उत्तर प्रदेश चुनाव में ओबीसी फ़ैक्टर
सेंटर फ़़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) के प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार का मानना है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के पीछे सवर्णों के साथ साथ नॉन-डॉमिनेंट (लोअर) ओबीसी बहुत बड़ा कारण रहे हैं.
उत्तर प्रदेश की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में संजय कुमार कहते हैं, "मंडल पॉलिटिक्स के बाद दो दौर आए. एक दौर में ओबीसी की बात राजनीति में ख़ूब हुई. उस दौर में ओबीसी पार्टियाँ उभर कर आईं, चुनावी राजनीति में उन्हें एक वोट बैंक के तौर पर देखा जाने लगा. दूसरा दौर पिछले 10-15 सालों में आया है, जब ओबीसी में भी दो तरह के ओबीसी की बात होने लगी है. डॉमिनेंट ओबीसी और नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी. उत्तर प्रदेश में यादव डॉमिनेंट ओबीसी में आते हैं और मौर्य, लोध, शाक्य नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी में."
राजनीति में ओबीसी के अंदर इस तरह की नई श्रेणी में ओबीसी को बांटने का श्रेय संजय कुमार बीजेपी को देते हैं. वो कहते हैं, "बीजेपी को मालूम था कि डॉमिनेंट ओबीसी का वोट क्षेत्रीय पार्टी को जाता है. उत्तर प्रदेश की बात करें तो वो समाजवादी पार्टी का वोट बैंक है. इस वजह से बीजेपी ने नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी को साधने की कोशिश शुरू की."
एक अनुमान के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोट 35 फ़ीसदी हैं जिसमें डॉमिनेंट यादव ओबीसी 10 फ़ीसदी के आस-पास हैं. बीजेपी के निशाने पर बाक़ी के 25 फ़ीसदी नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी हैं.
आँकड़ों की बात करें तो साल 2009 से पहले तक बीजेपी के पास 20-22 फ़ीसदी ओबीसी वोटर थे. साल 2014 में ओबीसी वोट 33-34 फ़ीसदी हो गए. साल 2019 में ये और बढ़कर 44 फ़ीसदी हो गए. इसमें नॉन- डॉमिनेंट ओबीसी का योगदान ज़्यादा था.
2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 39 प्रतिशत वोट शेयर मिला था. कुर्मी और कोइरी के साथ साथ नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी ने भी भारी संख्या में बीजेपी का साथ दिया.
ये भी पढ़ें : उत्तर प्रदेश चुनाव: यूपी की राजनीति में छोटे दलों की क्या भूमिका है?
ओबीसी को साथ रखने की बीजेपी की कोशिशें
2017 में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत से जीत के बाद केशव प्रसाद मौर्य को उप-मुख्यमंत्री पद दिया गया. उन्हीं की अध्यक्षता में बीजेपी ने चुनाव भी लड़ा था. स्वामी प्रसाद मौर्य को भी मंत्री पद दिया गया था.
केंद्र में पिछले साल मंत्रिमंडल विस्तार की बात आई तो सात मंत्री उत्तर प्रदेश से बनाए गए जिसमें से केवल एक ब्राह्मण और बाक़ी 6 ओबीसी और दलित समाज से थे और वो भी गै़र यादव और ग़ैर जाटव. पंकज चौधरी और अनुप्रिया पटेल ओबीसी कुर्मी समाज से हैं. कौशल किशोर पासी समाज से हैं. जाटव के बाद उत्तर प्रदेश में पासी समाज का बड़ा वोट बैंक है. बीएल वर्मा लोध (पिछड़ी जाति ) समाज से आते हैं और माना जाता है कि लोध समुदाय पर उनका अच्छा असर है. पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी लोध समाज से थे. भानु प्रताप वर्मा दलित हैं.
लेकिन शरद गुप्ता कहते हैं कि केंद्र और उत्तर प्रदेश में बीजेपी, ओबीसी को अलग-अलग तरीके का बर्ताव करती है.
उनका कहना है, "पिछले कुछ सालों में बीजेपी भले ही 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे के साथ सभी को जोड़ कर चलती प्रतीत होती है, लेकिन पिछड़ी जाति के नेता ख़ुद को जुड़ा हुआ महसूस नहीं करते. केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों को बहुत कुछ मिला है. लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं है. यहाँ मुख्यमंत्री ठाकुर है. केशव प्रसाद मौर्य मुख्यमंत्री होते तो शायद बात और होती."
ऐसे में कुछ जानकार मानते है कि आने वाले दिनों में इस चुनाव में स्वामी प्रसाद मौर्य का बीजेपी से जाना एक तरह से सवर्ण बनाम ओबीसी का मामला बन सकता है जिसकी काट बीजेपी को ढूंढनी होगी.
ये भी पढ़ें : योगी के 'चुनाव 80 बनाम 20 का' वाले बयान पर अखिलेश बोले 'अपमान करने वाली राजनीति'
ग़ैर यादव ओबीसी को साथ रखने की समाजवादी पार्टी की मुहिम
समाजवादी पार्टी की तरफ़ देखें तो वो ग़ैर यादव ओबीसी वोट को एकजुट करने की रणनीति पर इस बार काम करती दिख रही है.
2017 के आँकड़ों को ग़ौर से देखें तो समाजवादी पार्टी ने ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, संजय चौहान, अपना दल (कृष्णा पटेल) और महानदल के साथ गठबंधन किया है. ये सभी नॉन डॉमिनेंट ओबीसी में आते हैं.
इनके अलावा अगर स्वामी प्रसाद मौर्य भी समाजवादी पार्टी का दामन थाम लेते हैं (14 जनवरी को वो शामिल होंगे) और उनके साथ बृजेश प्रजापति, रोशन लाल वर्मा, भगवती सागर, दारा सिंह चौहान जैसे ओबीसी नेता भी साथ आते हैं, तो समाजवादी पार्टी का ग़ैर यादव ओबीसी वोट पिछले चुनाव के मुक़ाबले ज़्यादा मज़बूत होगा.
इसी उम्मीद में समाजवादी पार्टी अपने 'जातीय अंकगणित' को मज़बूत मान कर चल रही है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूबपर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)