टीआरपी वॉर: टीवी न्यूज़ चैनलों पर कैसे और किसका नियंत्रण हो?
सुशांत सिंह की मौत और कोरोना वायरस की ख़बरों की कवरेज पर चैनलों की आलोचना हो रही है.
सूचना-प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एक ट्वीट में कहा है, "स्वतंत्र प्रेस हमारे लोकतंत्र को परिभाषित करने वाला एक आयाम है और संविधान के अहम मूल्यों में से एक है..."
ये बयान उस दौर में आया है जब एक ओर मीडिया पर सरकार के दबाव की आलोचना हो रही है तो वहीं, न्यूज़ चैनलों की पत्रकारिता पर सवाल उठाते हुए अदालतों और रेग्यूलेटरी इकाइयों में अर्ज़ियां डाली गई हैं.
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस एसए बोबड़े ने एक केस की सुनवाई के दौरान गुरुवार को कहा कि "बोलने की आज़ादी का हाल के दिनों में बहुत ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है."
ये बयान उन्होंने उस केस में दिया जिसमें न्यूज़ चैनल्स पर तबलीग़ी जमात के बारे में ऐसी ख़बरें प्रसारित करने का आरोप है जिनसे मुसलमान समुदाय के ख़िलाफ़ ग़लत धारणाएं बनीं.
इस साल अप्रैल में दायर की गई इस याचिका में न्यूज़ चैनलों पर तबलीग़ी जमात को 'मानव बम' और 'देश को धोखा देने वाले' बताने जैसी बातों का ज़िक्र है.
भारत में पत्रकारों की आज़ादी के लिए विशेष क़ानून नहीं हैं लेकिन संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आज़ादी है. हालांकि, इस आज़ादी पर 'रीज़नेबल रिस्ट्रिकशन्स' यानी वाजिब प्रतिबंध का प्रावधान है.
तबलीग़ी जमात केस में याचिकाकर्ता जमीयत-उलेमा-हिंद के व़कील दुष्यंत दवे ने बीबीसी से बातचीत में कहा, "ये ग़लत और झूठी पत्रकारिता थी जिससे कई गांवों और शहरों में मुसलमान समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत फैली, सरकार को अपने क़ानूनों का सही इस्तेमाल कर इन चैनलों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए ताकि ऐसा दोबारा न हो, लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही है क्योंकि कुछ चैनल उनके एजेंडा को आगे बढ़ा रहे हैं."
तबलीग़ी जमात के मामले में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दायर करके ये कहा है कि इस मामले में कोई 'ख़राब और ग़लत रिपोर्टिंग' नहीं हुई. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराज़गी जताते हुए सरकार से एक नए हलफ़नामे की मांग की है.
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क़ानून में क्या हैं प्रावधान?
केबल टीवी नेटवर्क (रेगुलेशन) ऐक्ट 1995 केंद्र सरकार को 'सार्वजनिक हित' में, केबल टीवी नेटवर्क बंद करने या किसी प्रोग्राम को प्रसारित होने से रोकने का अधिकार देता है अगर ऐसा कोई देश की अखंडता, सुरक्षा, दूसरे देश के साथ दोस्ताना संबंध, पब्लिक सुव्यवस्था, शिष्टाचार या नैतिकता पर बुरा असर डालता हो.
क़ानून के तहत बताए गए 'प्रोग्राम कोड' के उल्लंघन पर भी सरकार ये कदम उठा सकती है.
प्रोग्राम कोड में धर्म या किसी समुदाय के ख़िलाफ़ भावनाएं भड़काना, झूठी जानकारी या अफ़वाहें फैलाना, अदालत की अवमानना, औरतों या बच्चों का बुरा चित्रण वगैरह शामिल हैं.
क़ानून के उल्लंघन पर अधिकतम पांच साल की सज़ा और दो हज़ार रुपए जुर्माने का प्रावधान है.
इसके अलावा भारतीय दंड संहिता की धारा 505 के तहत अगर कोई ऐसे बयान, रिपोर्ट या अफ़वाह को छापता या फैलाता है जो किसी विशेष समुदाय के ख़िलाफ़ अपराध करने के लिए लोगों को उक़साने का काम करे तो उसे तीन साल तक की सज़ा और जुर्माना हो सकता है.
समय-समय पर सरकार ने न्यूज़ चैनल्स के ख़िलाफ़ कार्रवाई की भी है. पर दुष्यंत दवे का आरोप है, "मीडिया पर नियंत्रण के इन क़ानूनों का इस्तेमाल सरकार सभी चैनलों के लिए एक तरीके से नहीं कर रही."
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न्यूज़ चैनल पर बैन
इसी साल मार्च में सूचना प्रसारण मंत्रालय ने मलयालम चैनल्स 'एशियानेट' और 'मीडिया वन' के प्रसारण पर 48 घंटे का प्रतिबंध लगा दिया था.
समाचार एजेंसियों के मुताबिक आदेश में कहा गया था, "दिल्ली हिंसा पर चैनल की रिपोर्टिंग सीएए समर्थकों की तोड़फोड़ पर केंद्रित होने की वजह से पक्षपातपूर्ण लगती है," और "एक समुदाय का पक्ष ज़्यादा दिखाया जा रहा है".
बैन की ख़बर पर पत्रकारों, विपक्ष और आम लोगों की आलोचना के कुछ ही घंटों बाद सूचना-प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसे 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' के हित में वापस लेने का ऐलान किया.
न्यूज़ चैनल्स में दो दशक से ज़्यादा काम करने के बाद स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे अभिसार शर्मा के मुताबिक सरकार का 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का समर्थन करना "हास्यास्पद" है.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "2014 के बाद सरकार का मीडिया पर दबदबा बहुत बढ़ गया है और उसी दबाव में चैनल एक भीड़ में चलने लगते हैं, सरकार का प्रचार करने वाले चैनलों के साथ ही वो खड़ी है, और सवाल पूछने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने से नहीं हिचकती."
वो हाथरस हिंसा के मामले की कवरेज करने आई मलयालम समाचार एजेंसी 'अज़िमुख्म' के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन पर कट्टरपंथी संगठन 'पॉपुलर फ़्रंट ऑफ़ इंडिया' यानी 'पीएफ़आई' के साथ संबंध होने के आरोप में यूएपीए लगाए जाने का हवाला देते हैं.
कप्पन की गिरफ़्तारी को लेकर अब 'केरल यूनियन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स' ने सुप्रीम कोर्ट में एक 'हेबियस-कोर्पस' यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर उन्हें कोर्ट में हाज़िर किए जाने की मांग की है.
मई के महीने में अंतरराष्ट्रीय एनजीओ, 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' ने भारत में कोरोना वायरस पर प्रशासनिक फ़ैसलों की रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों की पुलिस प्रताड़ना के 15 मामले सामने आने पर चिंता जताई थी.
साथ ही सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि वो केंद्र और राज्य सरकारों को याद दिलाएं कि प्रेस की स्वतंत्रता बनाए रखना उनकी संवैधानिक ज़िम्मेदारी है.
सुशांत सिंह राजपूत की कवरेज पर जुर्माना
विश्व भर में स्वतंत्र मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है. मीडिया के नियंत्रण में सरकारों की जगह स्वायत्त इकाइयों की भूमिका सही मानी गई है. निष्पक्षता के लिए अक़्सर प्रेस 'सेल्फ़-रेग्युलेशन' का रास्ता अपनाती है.
भारत में न्यूज़ चैनलों ने भी अब तक यही किया है.
क़रीब 70 चैनलों का प्रतिनिधित्व करने वाले 27 सदस्यों वाली ग़ैर-सरकारी संस्था 'न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन' (एनबीए) के तहत बनाई गई सेल्फ़-रेग्यूलेटरी इकाई 'न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंगग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी' (एनबीएसए) ने अपने सदस्यों के लिए पत्रकारिता के मूल्य और मानक तय किए हैं.
एनबीएसए, अपने सदस्य चैनलों के ख़िलाफ़ शिकायतों की सुनवाई करती है. फ़िलहाल पूर्व जस्टिस एके सीकरी इसकी अध्यक्षता कर रहे हैं.
बुधवार को एनबीएसए ने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की ख़बर के कवरेज पर उनके पास आईं कई शिकायतों की सुनवाई कर, 'आज तक' चैनल को सुशांत सिंह राजपूत के 'फ़ेक ट्वीट्स' दिखाने पर एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया और सार्वजनिक माफ़ी प्रसारित करने का आदेश दिया.
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद उनके शव की तस्वीरें दिखाने के मामले में एनबीएसए ने 'आज तक' और 'इंडिया टीवी' को, और आपत्तिजनक हेडलाइनों के मामले में 'आज तक', 'ज़ी न्यूज़' और 'न्यूज़24' को, सार्वजनिक माफ़ी प्रसारित करने का आदेश दिया.
एनबीएसए की वेबसाइट के मुताबिक वो अपने सदस्य चैनल को चेतावनी, अधिकतम एक लाख रुपए जुर्माना, सार्वजनिक माफ़ी और सदस्यता रद्द करने और सूचना-प्रसारण मंत्रालय को उनका लाइसेंस रद्द करने की सिफ़ारिश जैसे कदम उठा सकती है.
हालांकि, उनकी वेबसाइट पर मौजूद फैसलों से ज़ाहिर होता है कि ज़्यादातर मामलों में न्यूज़ चैनल को चेतावनी ही दी जाती है.
"क्या आप टीवी देखते हैं?"
कई सालों से काम कर रही एनबीएसए के प्रभावी होने पर सवाल उठते रहे हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने 'सुदर्शन टीवी' मामले में एनबीएसए की वकील से पूछा था, "क्या लेटरहेड के आगे आपका कोई वजूद है?"
कोर्ट में 'सुदर्शन टीवी' पर प्रसारित एक कार्यक्रम में मुस्लिम समुदाय को "संघ लोकसेवा में घुसपैठ करने वाले जिहादी" बताने के ख़िलाफ़ याचिका की सुनवाई चल रही थी.
कार्यक्रम के चार एपिसोड प्रसारित हो चुके थे पर आने वाले भागों के प्रसारण पर फ़िलहाल रोक लगाते हुए कोर्ट ने पाया कि कार्यक्रम का मक़सद मुस्लिम समुदाय को 'विलिफाइ' करना यानी बुरा दिखाना था.
कोर्ट ने एनबीएसए से पूछा, "क्या आप टीवी नहीं देखते हैं? तो न्यूज़ पर जो चल रहा है उसे आप नियंत्रित क्यों नहीं कर पा रहे?"
कई चैनल, जैसे 'रिपब्लिक टीवी', 'टाइम्स नाउ', 'सुदर्शन टीवी' वगैरह एनबीएसए के सदस्य नहीं हैं. ऐसे में उनके ख़िलाफ़ शिकायत होने पर भी एनबीएसए कोई कार्रवाई नहीं कर सकता.
पिछले साल 'रिपब्लिक टीवी' ने एनबीएसए छोड़, क़रीब 70 चैनल्स के साथ मिलकर 'न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स फ़ेडरेशन' (एनबीएफ़) नाम की एक और इकाई बनाई, जिसका अध्यक्ष अर्णब गोस्वामी को चुना गया.
हालांकि, इस इकाई ने कोई वेबसाइट नहीं बनाई और ना ही अब तक किसी सार्वजनिक मंच पर अपने काम के बारे में जानकारी साझा की है.
एनबीएसए की वकील ने कोर्ट से दरख़्वास्त की कि इस इकाई को ज़्यादा ताकत दी जानी चाहिए ताकि ये सभी चैनलों के ख़िलाफ़ शिकायतों की सुनवाई कर सके और फ़ैसला सुना सके.
सुशांत सिंह कवरेज मामले में एनबीएसए ने जिन शिकायतों पर फ़ैसला सुनाया उनमें से एक पत्रकार और आरटीआई ऐक्टिविस्ट सौरव दास ने दर्ज की थी. उनके मुताबिक ऐसी इकाइयों के प्रभावी होने के लिए उनका पूरी तरह से स्वायत्त होना और सज़ा कड़ी होना ज़रूरी है.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "मुझे नहीं पता इस फ़ैसले से क्या बदलेगा, पर ये एक पहल है जो सवाल उठाने से ही हुई. इससे पहले श्रीदेवी की मृत्यु पर भी 'मौत का बाथटब' जैसी हेडलाइन चलाई गई थीं, जब मीडिया ऐसे हाई प्रोफाइल मामलों में असंवेदनशील कवरेज करता है, तो हमें चुप नहीं रहना चाहिए."
आम लोग उठाएं आवाज़
सुशांत सिंह की मौत के बाद हुई कवरेज से जुड़ी कई शिकायतों की सुनवाई मुंबई हाई कोर्ट में भी जारी है.
उनमें से एक असीम सरोदे की है. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि ये याचिका उन्होंने इसलिए दायर की क्योंकि कई अंतरराष्ट्रीय शोध बताते हैं कि आत्महत्या के बारे में ऐसी कवरेज आम लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकती है.
आठ पूर्व पुलिस अफ़सरों, ऐक्टिविस्ट्स और वकीलों की इन याचिकाओं की सुनवाई के दौरान गुरुवार को मुंबई हाई कोर्ट ने कहा, "जांच एजंसियों को ये बताना कि जांच कैसे की जाए, क्या मीडिया का काम है? या जांच एजंसियां अपना दिमाग लगाएं कि जांच कैसे की जानी चाहिए?"
असीम ने कहा, "जब तक सरकार न्यूज़ चैनल्स के नियंत्रण के लिए कोई क़ानून नहीं बनाती, सुप्रीम कोर्ट को मीडिया के लिए दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए, जैसे यौन उत्पीड़न के लिए विशाख़ा गाइडलाइन्स बनाई गई थीं".
लेकिन दुष्यंत दवे का मानना है कि और क़ानून बनाने की ज़रूरत नहीं है बल्कि मौजूदा प्रावधानों को बिना भेदभाव लागू किए जाने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, "सबसे बड़ी परेशानी यही है कि हमारे देश की सभी इकाइयों पर मौजूदा सरकार का ज़ोर रहा है, फिर चाहे वो बीजेपी हो या कांग्रेस, जिस वजह से वो सचमुच स्वतंत्र नहीं रह पातीं. यही बदलने की ज़रूरत है वरना हमारा लोकतांत्रिक ढांचा ख़तरे में ही रहेगा."
टीवी चैनल छोड़ डिजिटल मीडिया का रुख़ कर चुके अभिसार शर्मा के मुताबिक बदलाव आम लोगों के ज़रिए ही हो पाएगा.
उन्होंने कहा, "आम जनता जब ज़हरीली पत्रकारिता के ख़िलाफ़ सभ्य तरीके से आवाज़ उठाएगी, उसे ख़ारिज करेगी, ये सोचेगी कि हमारे बच्चे भी हमारे साथ यही समाचार देख रहे हैं, एक नई पीढ़ी में ज़हर घुल रहा है, तभी पत्रकारिता के स्तर में बदलाव आएगा, और ज़्यादा क़ानूनों, संस्थाओं और नियंत्रण से नहीं."