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शहद से भीगी हुई आवाज़ थी तलत महमूद की

कहा जाता है कि पचास के दशक में जब भी संगीत की कोई महफ़िल होती थी और जिसमें संगीत की दुनिया के दिग्गज जैसे मोहम्मद रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार मौजूद रहते थे, सबसे आख़िर में तलत महमूद को गाने के लिए बुलाया जाता था.

एक बार किशोर कुमार ने तलत महमूद के पास जाकर कहा था, 'मैं समझता हूं मुझे गाना छोड़ देना चाहिए.

By BBC News हिन्दी
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शहद से भीगी हुई आवाज़ थी तलत महमूद की

कहा जाता है कि पचास के दशक में जब भी संगीत की कोई महफ़िल होती थी और जिसमें संगीत की दुनिया के दिग्गज जैसे मोहम्मद रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार मौजूद रहते थे, सबसे आख़िर में तलत महमूद को गाने के लिए बुलाया जाता था.

एक बार किशोर कुमार ने तलत महमूद के पास जाकर कहा था, 'मैं समझता हूं मुझे गाना छोड़ देना चाहिए. उर्दू ज़ुबान पर जो आपकी पकड़ है, उसका मुक़ाबला, मैं भला कैसे कर पाऊंगा?'

तलत महमूद की बेटी सबीना तलत महमूद बताती हैं, 'एक बार मैं शणमुखानंद हॉल में किशोर कुमार के एक कंसर्ट में जाना चाहती थी. जब मैंने ये बात अपने पिता को बताई तो न सिर्फ़' उन्होंने उस कंसर्ट का टिकट ख़रीदा, बल्कि मेरे साथ किशोर कुमार को सुनने खुद शणमुखानंद हॉल गए. बीच कंसर्ट में किसी ने उन्हें पहचान लिया और किशोर कुमार तक ये ख़बर पहुंच गई कि तलत महमूद अपनी बेटी के साथ हॉल में मौजूद हैं. किशोर ने फ़ौरन मंच से घोषणा की कि हमारे बीच तलत साहब बैठे हुए हैं. उन्होंने उन्हें मंच पर बुलवाया और कहा कि 'तलत साब आपकी जगह वहां नहीं, यहां है. आप मेरे साथ बैठिए.'

तलत की नज़ाकत

आज भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो मोहम्मद रफ़ी, मुकेश या किशोर कुमार जैसा गा सकते हैं, या गाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन ऐसा कोई बहुत मुश्किल से मिलेगा, जो अपनी आवाज़ में तलत महमूद जैसी मधुरता और नज़ाकत पैदा कर सके. मानिक प्रेमचंद ने हिंदी फ़िल्म संगीत पर कई किताबें लिखी हैं. उनमें से एक है तलत महमूद की जीवनी, 'द वेल्वेट वॉयस'.

मानिक बताते हैं कि तलत की आवाज़ से उनका सम्मोहन 1958 में हुआ था. 'बात 1958 की है, जब मैं एक कार में अपने परिवार के साथ दिल्ली में गणतंत्र दिवस परेड देख कर लौट रहा था. सभी लोग आपस में बातें कर रहे थे. तभी रेडियो पर तलत महमूद का गीत गूंजा, 'रात ने क्या क्या ख़्वाब दिखाए.'मैंने नोट किया कि सभी लोग अचानक चुप हो गए. ये उनका तलत महमूद की आवाज़ को सम्मान देने का अपना तरीक़ा था. तब से तलत महमूद मेरी जिदगी में हमेशा के लिए घर कर गए. '

रॉयल अल्बर्ट हॉ में गाने का गौरव

24 फ़रवरी, 1924 को लखनऊ में जन्मे तलत महमूद ने लखनऊ के अदब और तहज़ीब को आत्मसात कर लिया था. वो जितना मीठा गाते थे, उतना ही मीठा बोलते थे. तलत महमूद की नवासी सहर ज़माँ एक पत्रकार हैं और टीवी चैनल 'मिरर नाऊ' से जुड़ी हुई हैं.

सहर बताती हैं, 'उनके अंदर लखनऊ की तहज़ीब कूट-कूट कर भरी हुई थी. मिज़ाज के बहुत सौम्य थे. उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर ग़ज़ब का था. बहुत हँसी मज़ाक करते थे. जब मेरी माँ छोटी थीं तो वो उनके स्कूल की लाइब्रेरी से कॉमिक्स मंगा कर पढ़ा करते थे. उनसे ज़्यादा वो आइसक्रीम के शौकीन थे. उनको स्टाइलिश कपड़े पहनने का शौक था. हमेशा सूटबूट में रहते थे. उनको दुनिया घूमने का भी शौक था. पचास के दशक में ही उन्होंने वर्ल्ड टूर का चलन शुरू किया था. वो दूसरे भारतीय गायक थे जिन्होंने लंदन के 'रॉयल अल्बर्ट हॉल' में गाया था. बाद में उन्होंने न्यूयार्क के 'मेडिसन स्क्वेयर गार्डेन' में भी गाया.'

सिर्फ़ आलाप सुन कर दाख़िला

तलत महमूद ने संगीत की पढ़ाई लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय में की थी जिसे पहले मैरिस कॉलेज कहा जाता था. तलत वहाँ की प्रवेश परीक्षा की लिखित परीक्षा में कुछ ख़ास नहीं कर पाए, लेकिन जब उनकी स्वर परीक्षा हुई, तो परीक्षक उनका आलाप सुन कर आश्चर्यचकित रह गए और बिना कोई सवाल पूछे तलत महमूद का दाख़िला कर लिया गया.

मानिक प्रेमचंद बताते हैं, 'बाद में तलत ने फ़िल्म शिकस्त के गीत 'सपनों की सुहानी दुनिया को आँखों में बसाना मुश्किल है' के पहले पचास सेकेंडों में यही आलाप गाया.'

अनिल बिस्वास ने दिया पहला ब्रेक

चालीस का दशक शुरू होते होते वो ऑल इंडिया रेडियो के लखनऊ स्टेशन से गाने लगे थे. 1941 में वो कलकत्ता चले गए जहाँ एचएमवी ने उनके साथ तीस रुपए प्रति गाने पर एक कांट्रैक्ट साइन किया. कलकत्ता में उनका फ़ैयाज़ हाशमी का लिखा गाना 'तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी' पूरे भारत में मशहूर हो गया.

1949 में वो अपनी तक़दीर आज़माने बंबई पहुंचे. तलत की प्रसिद्धि उनके वहाँ पहुंचने से पहले ही वहाँ पहुंच चुकी थी. अनिल बिस्वास ने उन्हें पहला ब्रेक दिया और उन्होंने दिलीप कुमार की फ़िल्म 'आरज़ू' के लिए 'ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल, जहाँ कोई न हो' गाया.

सीमित दायरे में गाते हुए भी बनाया दीवाना

अपने करियर के शुरुआती दौर में उनकी आवाज़ में पाए जाने वाले कंपन की वजह से उन्हें कई बार रिजेक्ट किया गया. ये अलग बात है कि यही कंपन और यही लरज़िश आगे चल कर उनके गाने की यूएसपी बन गई.

मानिक प्रेमचंद बताते हैं, 'वो जिस तरह से गाते थे, उसी तरह से बोलते भी थे. उनको सुनने के लिए उनके नज़दीक आना पड़ता था. उनका अपना स्वभाव उनके गानों में दिखाई पड़ रहा था. वो बहुत अदबी आदमी थे. अगर आप तलत को सुनने का शौक रखते हैं, तो आप पाएंगे कि उनके गानों का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है, उसकी काव्यात्मकता.'

तलत को उर्दू शायरी की बहुत समझ थी, इसलिए वो उन गीतों को गाने के लिए चुनते थे जो श्रोताओं के दिल के बहुत नज़दीक थे. इनकी आवाज़ में मोहम्मद रफ़ी जैसी रेंज नहीं थी. उनकी आवाज़ में वो बैरी टोन भी नहीं था, जो हेमंत कुमार की आवाज़ में था. लेकिन इसके बावजूद एक सीमित दायरे में गाते हुए भी वो संगीत प्रेमियों के दिल में घर करते जा रहे थे.

किशोर बोले, 'चलो हम भाग चलें'

तलत महमूद की मन्ना डे से बहुत नज़दीकी दोस्ती थी. मन्ना डे अपनी आत्मकथा 'मेमोरीज़ कम अलाइव' में लिखते हैं, 'एक बार मदन मोहन ने बंबई आई मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर के सम्मान में रात्रि भोज दिया जिसमें बंबई की हर बड़ी संगीत हस्ती को बुलाया गया. जैसी कि उम्मीद थी भोज से पहले संगीत की एक महफ़िल हुई और सबसे पहले तलत महमूद से माइक के सामने आने के लिए कहा गया. जैसे ही उनकी पहली ग़ज़ल ख़त्म हुई, इतनी तालियाँ बजीं कि मेरे और मोहम्मद रफ़ी के बीचोबीच बैठे हुए किशोर कुमार ने हम दोनों से फुसफुसा कर कहा, चलिए हम दोनों चुपके से भाग चलें. तलत के फैलाए जादू के बाद अब हम लोगों को और कौन सुनेगा?'

जब चू एन लाई तलत महमूद को सुन कर झूम उठे

1962 के भारत चीन युद्ध से पहले जब चीन के प्रधानमंत्री चू एन लाई भारत आए तो वो मुंबई भी गए. वहाँ कार्यवाहक राज्यपाल मोहम्मद करीम चागला ने उनके सम्मान में एक संगीत सम्मेलन आयोजित किया.

मानिक प्रेमचंद बताते हैं, 'उन्होंने तलत महमूद और गीता दत्त को चीनी प्रधानमंत्री के मनोरंजन के लिए बुलाया. आधे घंटे बाद चू एन लाई की शक्ल से लगा कि इस महफ़िल में उन्हें मज़ा नहीं आ रहा है. उन्होंने इच्छा प्रकट की कि वो 'आवारा' फ़िल्म का आवारा हूँ गाना सुनना चाहते हैं. अब वहाँ मुकेश तो थे नहीं, इसलिए आयोजकों ने तलत महमूज से ही अनुरोध किया कि वो ही 'आवारा हूँ' गा कर सुनाएं. तलत और गीता दत्त ने 'आवारा' की ही धुन में उस गीत का मुखड़ा गाया...' घरबार नहीं, संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं... आवारा हूँ.' फिर गीता दत्त ने भी इसी लाइन को दोहराया. तलत के मुँह से ये गीत सुन कर चू एन लाई झूम उठे.'

मेहदी हसन और जगजीत सिंह पर तलत का असर

जगजीत सिंह और मेहदी हसन दोनों ने स्वीकार किया है कि उनके गायन पर तलत महमूद का बहुत बड़ा असर रहा है. मेहदी को तो पहली प्रसिद्धि तब मिली थी जब उन्होंने कराची की एक महफ़िल में तलत की एक ग़ज़ल 'हुस्न वालों को न ये दिल दो ये मिटा देते हैं'. इस गायन के लिए मेहदी हसन को 17,000 रुपए मिले थे जो कि उस ज़माने में बहुत बड़ी रकम समझी जाती थी.

वक्त से पहले करियर का अंत

इस सब के बावजूद मात्र 40 साल की उम्र में तलत महमूद के करियर का अंत शुरू हो गया था. आमतौर से गायक 40 साल की उम्र में अपने करियर की 'पीक' पर पहुंचते हैं, लेकिन इस उम्र तक आते-आते तलत की मांग कम हो चुकी थी.

मानिक प्रेमचंद कहते हैं, 'ये 'अर्ली बर्न आउट' का केस था. चालीस साल की उम्र में कोई इस तरह अपनी दुकान नहीं बंद करता. अपने करियर की पीक पर तलत अक्सर तीन-चार महीनों के लिए वर्ल्ड टूर पर चले जाते थे. इसका भी उनके करियर पर बुरा असर पड़ा. दूसरा भारतीय फ़िल्मों में संगीत का स्वरूप बदल रहा था. शोर शराबे वाला संगीत हावी होने लगा था. गानों में शब्दों का महत्व कम होता जा रहा था और तलत महमूद इस पूरे माहौल में ख़ुद को 'मिसफ़िट' पा रहे थे.

तलत को ये बात भी काफ़ी बुरी लगती थी कि कई बार इनसे गवाने के बाद वही गीत संगीतकार दूसरे गायकों से गवा लेते थे. इस बात से वो अंदर ही अंदर घुटते जा रहे थे.' 'जहाँआरा' उनके करियर की आखिरी बड़ी फ़िल्म थी. बेहतरीन गानों के बावजूद ये फ़िल्म बुरी तरह से फ़्लॉप हुई थी और तीन दिनों के भीतर ये थियटरों से उतर गई थी. इस फ़िल्म ने कई लोगों के दिल तोड़े थे, जिसमें तलत का दिल भी शामिल था. सहर ज़माँ बताती हैं, 'तलत को बहुत अच्छी तरह से पता था कि उनकी आवाज़ कुछ तरह के गानों के लिए ही उपयुक्त है. उनको पता था कि शोर वाले संगीत में उनकी आवाज़ खो कर रह जाएगी. इसका उन्हें अंदाज़ा हो गया था. '

अगर आप तलत महमूद और मेहदी हसन के करियर पर नज़र दौड़ाएं तो आप पाएंगे कि मेहदी हसन तलत महमूद से मात्र तीन साल छोटे थे. चालीस साल की उम्र में जहाँ तलत अपने करियर के अंतिम पड़ाव पर थे, वहीं 1964 में 37 साल की उम्र में 'गुलों में रंग भरे' गाकर मेंहदी हसन अपने करियर का आगाज़ कर रहे थे.

'मेरी याद में तुम न आंसू बहाना'

9 मई, 1998 को पार्किंसन बीमारी से जूझते हुए तलत महमूद ने इस दुनिया को अलविदा कहा. अपने जीवन के आख़िरी दिनों में वो किसी से बात तक करने की स्थिति में नहीं थे. मानिक प्रेमचंद बताते हैं, 'मेरे जीवन की सबसे दुखदायी याद है तलत साहब से उनके आख़िरी दिनों में मिलना. पूरी दुनिया को अपनी आवाज़ से मदहोश कर देने वाला शक्स एक-एक शब्द बोलने के लिए जद्दोजहद कर रहा था. मेरा कलेजा बैठा जाता था कि काश उनकी तकलीफ़ मुझे लग जाती !' रह रह कर तलत महमूद का गाया एक गीत याद आता था, मेरी याद में तुम न आँसू बहाना, न जी को जलाना, मुझे भूल जाना.

तलत साहब को कोई कैसे भूल सकता है ?

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English summary
There was a sound from honey, it was Talat Mahmood
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