कोहिनूर हीरे के नादिरशाह से महारानी तक पहुंचने की कहानी
ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय अब इस दुनिया में नहीं रहीं. पढ़िए कोहिनूर हीरे का सफ़र, जो नादिरशाह से होता हुआ महारानी के ताज तक पहुंचा.
ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय अब इस दुनिया में नहीं रहीं.
महारानी के ताज पर लगे कोहिनूर की कहानी बीबीसी हिंदी पर पहली बार मई 2021 में प्रकाशित हुई थी.
पढ़िए कोहिनूर हीरे का सफ़र, जो नादिरशाह से होता हुआ महारानी के ताज तक पहुंचा.
बात 29 मार्च, 1849 की है. किले के बीचोबीच स्थित शीश महल में 10 साल के महाराजा दलीप सिंह को लाया गया. उस बालक के पिता महाराजा रणजीत सिंह एक दशक पहले ही दिवंगत हो चुके थे. उनकी माँ रानी जिंदन कौर को कुछ समय पहले ज़बरदस्ती शहर के बाहर एक दूसरे महल में भेज दिया गया था.
दलीप सिंह के चारों ओर लाल कोट और हैट पहने अंग्रेज़ों ने घेरा बनाया हुआ था. थोड़ी देर बाद एक सार्वजनिक समारोह में उन्होंने अपने दरबार के बचेखुचे सरदारों के सामने उस दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिया, जिसका अंग्रेज़ सरकार बरसों से इंतज़ार कर रही थी.
कुछ ही मिनटों में लाहौर किले पर सिख खालसा का झंडा नीचे उतारा गया और उसकी जगह ईस्ट इंडिया का कंपनी का धारियों वाला झंडा लहराने लगा. इसके साथ ही सिख साम्राज्य पर न सिर्फ़ ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व हो गया बल्कि दुनिया का सबसे मशहूर हीरा कोहिनूर भी उनके कब्ज़े में आ गया.
मुर्गी के छोटे अंडे के बराबर हीरा
कोहिनूर के बारे में कहा जाता है कि इसे संभवत: तुर्कों ने किसी दक्षिण भारतीय मंदिर में एक मूर्ति की आँख से निकाला था. 'कोहिनूर द स्टोरी ऑफ़ द वर्ड्स मोस्ट इनफ़ेमस डायमंड' पुस्तक के लेखक विलियम डेलरेम्पल कहते हैं, ''कोहिनूर का पहला आधिकारिक ज़िक्र 1750 में फ़ारसी इतिहासकार मोहम्मद मारवी के नादिरशाह के भारत के वर्णन में मिलता है. मारवी लिखते हैं कि उन्होंने अपनी आँखों से कोहिनूर को देखा था.
वो उस समय तख़्ते-ताऊस के ऊपरी हिस्से में जड़ा हुआ था, जिसे नादिरशाह दिल्ली से लूट कर ईरान ले गया था. कोहिनूर मुर्गी के छोटे अंडे के बराबर था और जिसके बारे में कहा जाता था कि उसे बेच कर पूरी दुनिया के लोगों को ढ़ाई दिन तक खाना खिलाया जा सकता था.
तख़्ते-ताऊस को बनाने में ताजमहल से दोगुना धन लगा था. बाद में कोहिनूर को तख़्ते-ताऊस से निकाल लिया गया था ताकि नादिरशाह इसे अपनी बाँह में बाँध सके.'
नादिरशाह ने दिल्ली मे करवाया क़त्ले-आम
नादिरशाह ने करनाल के पास अपने डेढ़ लाख सैनिकों की बदौलत मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले की दस लाख लोगों की सेना को हराया था. दिल्ली पहुंचने पर नादिरशाह ने ऐसा क़त्ले-आम कराया जिसके उदाहरण इतिहास में बहुत कम मिलते हैं.
मशहूर इतिहासकार सर एचएम ईलियट और जॉन डोसन अपनी किताब 'द हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया एज़ टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरियंस' में लिखते हैं, 'जैसे ही नादिरशाह के चालीस हज़ार सैनिक दिल्ली में घुसे अनाज के दाम आसमान पर चले गए. जब नादिरशाह के सैनिकों ने मोलभाव करना चाहा तो उनमें और दुकनदारों में झड़प शुरू हो गई और लोगों ने सैनिकों पर हमला करना शुरू कर दिया.
दोपहर तक नौ सौ फ़ारसी सैनिक मारे जा चुके थे. तब नादिरशाह ने दिल्ली की आबादी के क़त्ले-आम का आदेश दिया. क़त्ले-आम सुबह नौ बजे शुरू हुआ. सबसे ज़्यादा लोग लाल किला, जामा मस्जिद, दरीबा और चाँदनी चौक के आसपास मारे गए. कुल मिलाकर तीस हज़ार लोगों का क़त्ल हुआ.
एक और इतिहासकार विलेम फ़्लोर अपनी किताब 'न्यू फ़ैक्ट्स ऑफ़ नादेर शाज़ इंडिया कैम्पेन' में लिखते हैं, 'मोहम्मद शाह के सेनापति निज़ामुल मुल्क बिना पगड़ी के नादिरशाह के सामने गए.
उनके दोनों हाथ पीछे की तरफ़ उन्हीं की पगड़ी से बँधे हुए थे. उन्होंने उनके सामने घुटनों के बल बैठ कर कहा कि दिल्ली के लोगों से बदला लेने के बजाय वो उनसे अपना बदला लें.
नादिरशाह ने इस शर्त पर क़त्ले-आम रुकवाया कि वो उनके दिल्ली छोड़ने से पहले उनको सौ करोड़ रुपए देंगे. अगले कुछ दिनों तक निज़ामुल मुल्क ने अपनी ही राजधानी को लूट कर वो धन चुकाया. संक्षेप में 'एक क्षण में 348 सालों से मुग़लों की जमा की हुई दौलत का मालिक कोई दूसरा हो गया.'
नादिरशाह का पगड़ी बदल कर कोहिनूर हथियाना
विलियम डॉलरेम्पल और अनीता आनंद ने कोहिनूर का इतिहास खंगालने में बहुत मेहनत की है. डॉलरेम्पल कहते हैं, ''मैंने मुग़ल रत्नों के विशेषज्ञों से बातचीत कर अपने शोध की शुरुआत की. उनमें से अधिकतर की राय थी कि कोहिनूर के इतिहास के बारे में जो आम बातें प्रचलित हैं वो सही नहीं हैं. नादिरशाह के पास जाने के बाद ही कोहिनूर पर पहली बार लोगों का ध्यान गया.''
थियो मेटकाफ़ लिखते हैं कि दरबार की एक नर्तकी नूर बाई ने नादिरशाह से मुख़बरी की कि मोहम्मद शाह ने अपनी पगड़ी में कोहिनूर को छिपा रखा है. नादिरशाह ने ये सुन कर मोहम्मद शाह से कहा कि आइए दोस्ती की ख़ातिर हम अपनी पगड़ियाँ आपस में बदल लें.
इस तरह कोहिनूर नादिरशाह के हाथ में आया. जब उसने पहली बार कोहिनूर को देखा तो देखता ही रह गया. उसी ने उसका नाम कोहिनूर यानी रोशनी का पहाड़ रखा.'
दिल्ली की लूट अफ़गानिस्तान ले जाने का बहुत दिलचस्प बयान फ़ारसी इतिहासकार मोहम्मद काज़िम मारवी ने अपनी किताब 'आलम आरा-ए-नादरी' में लिखा है. मारवी लिखते हैं, 'दिल्ली में 57 दिनों तक रहने के बाद 16 मई, 1739 को नादिरशाह ने अपने देश का रुख़ किया. अपने साथ वो पीढ़ियों से जुटाई गई मुग़लों की सारी दौलत ले गया. उसकी सबसे बड़ी लूट थी तख़्ते-ताऊस जिसमें कोहिनूर और तैमूर की रूबी जड़ी हुई थी.
लूटे गए सारे ख़ज़ाने को 700 हाथियों, 400 ऊँटों और 17000 घोड़ों पर लाद कर ईरान के लिए रवाना किया गया. जब पूरी सेना चेनाब के पुल पर से गुज़री तो हर सैनिक की तलाशी ली गई. कई सिपाहियों ने हीरे जवाहरात ज़ब्त किए जाने के डर से उन्हें ज़मीन में गाड़ दिया. कुछ ने तो उन्हें इस उम्मीद में नदी में फेंक दिया कि वो बाद में आकर उन्हें नदी की तली से उठा कर वापस ले जाएंगे.'
1813 में कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंचा
नादिरशाह के पास भी कोहिनूर बहुत दिनों तक नहीं रह पाया. उसकी हत्या के बाद ये हीरा उसके अफ़गान अंगरक्षक अहमद शाह अब्दाली के पास आया और कई हाथों से होते हुए 1813 में महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंचा. भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखे वृताँत में बताया गया है,
'महाराजा रणजीत सिंह कोहिनूर को दीवाली, दशहरे और बड़े त्योहारों के मौके पर अपनी बाँह में बाँध कर निकलते थे. जब भी कोई ब्रिटिश अफ़सर उनके दरबार में आता था तो उसको ये हीरा ख़ासतौर से दिखाया जाता था. जब भी वो मुल्तान, पेशावर या दूसरे शहरों के दौरों पर जाते थे, कोहिनूर उनके साथ जाता था.'
एंग्लो-सिख लड़ाई में अंग्रेज़ो की जीत के बाद कोहिनूर उनके हाथ लगा
1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई. कड़े सत्ता संघर्ष के बाद 1843 में पाँच वर्षीय दलीप सिंह को पंजाब का राजा बनाया गया. लेकिन दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध में अंग्रेज़ों की जीत के बाद उनके साम्राज्य और कोहिनूर पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया. दलीप सिंह को उनकी माँ से अलग कर एक अंग्रेज़ दंपती के साथ रहने के लिए फ़तहगढ़ किले भेज दिया गया.
लॉर्ड डलहोज़ी ख़ुद कोहिनूर लेने लाहौर आए. वहाँ के तोशेख़ाने से हीरे को निकलवा कर डलहौज़ी के हाथों में रखा गया. उस समय उसका वज़न था 190.3 कैरेट. लॉर्ड डलहोज़ी ने कोहिनूर को पानी के जहाज़ 'मेडिया' से महारानी विक्टोरिया को भेजने का फ़ैसला किया. उस जहाज़ को रास्ते में कई परेशानियों का सामना करना पड़ा.
कोहिनूर ले जाने वाला जहाज़ मुसीबतों में फंसा
'कोहिनूर द स्टोरी ऑफ़ वर्ल्ड्स मोस्ट इनफ़ेमस डायमंड' की सहलेखिका अनीता आनंद बताती हैं, 'जब कोहिनूर को जहाज़ पर चढ़ाया गया तो जहाज़ के चालकों को इसकी भनक भी नहीं पड़ने दी गई कि वो अपने साथ क्या ले जा रहे हैं. मेडिया नाम के इस जहाज़ के इंग्लैंड रवाना होने के एक दो हफ़्तों तक तो कोई समस्या नहीं आई लेकिन फिर कुछ लोग बीमार हो गए और जहाज़ पर हैज़ा फैल गया. जहाज़ के कप्तान ने चालकों से कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि मॉरिशस आने वाला है.
वहाँ हमें दवाई और खाना मिलेगा और सब कुछ ठीक हो जाएगा. लेकिन जब जहाज़ मॉरिशस पहुंचने वाला था, वहाँ के लोगों तक जहाज़ पर बीमार लोगों के बारे में ख़बर पहुंच गई. उन्होंने धमकी दी कि अगर जहाज़ उनके तट के पास भी पहुंचा तो वो उसे तोपों से उड़ा देंगे.
चालक दल जो हैजा फैलने से बहुत मुश्किल में आ गया था यही मनाता रहा कि वो किसी तरह इंग्लैंड पहुंच भर जाएं. रास्ते में उन्हें एक बहुत बड़े समुद्री तूफ़ान का भी सामना करना पड़ा जिसने करीब करीब जहाज़ को दो हिस्सों में तोड़ दिया. जब वो इंग्लैंड पहुंचे तब जा कर उन्हें पता चला कि वो अपने साथ कोहिनूर ला रहे थे और शायद इसी वजह से उन्हें इतनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा.'
लंदन में कोहिनूर का अभूतपूर्व स्वागत
जब कोहिनूर लंदन पहुंचा तो उसे क्रिस्टल पैलेस में ब्रिटेन की जनता के सामने प्रदर्शित किया गया. विलियम डालरेम्पेल कहते हैं, 'कोहिनूर को ब्रिटेन ले जाए जाने के तीन साल बाद इसकी वहाँ नुमाइश की गई. द टाइम्स ने लिखा कि लंदन में इससे पहले लोगों का इतना बड़ा जमावड़ा कभी नहीं देखा गया. प्रदर्शनी जब शुरू हुई तो लगातार बूँदाबाँदी हो रही थी.
जब लोग प्रदर्शनी के द्वार पर पहुंचे तो लोगों को अंदर घुसने के लिए घंटों लाइन लगानी पड़ी. ये हीरा पूरब में ब्रिटिश शासन की ताकत का प्रतीक बन गया था और ब्रिटेन की फ़ौजी ताकत के बढ़ते असर को भी दिखाता था.'
दलीप सिंह ने कोहिनूर रानी विक्टोरिया को भेंट किया
इस बीच फ़तहगढ़ किले में रह रहे महाराजा दलीप सिंह ने लंदन जा कर महारानी विक्टोरिया से मिलने की इच्छा प्रकट की. रानी इसके लिए तैयार भी हो गईं. वहीं पर दलीप सिंह ने रानी विक्टोरिया के पास रखे कोहिनूर हीरे को उन्हें भेंट किया. अनीता आनंद बताती हैं, 'रानी विक्टोरिया को हमेशा बुरा लगता था कि उनकी हुकूमत ने एक बच्चे के साथ क्या किया था.
वो दलीप सिंह को दिल से चाहती थी. इसलिए उन्हें उनके साथ किए गए व्यवहार पर दुख था. हालाँकि कोहिनूर उनके पास दो साल पहले पहुंच चुका था लेकिन उन्होंने उसे सार्वजनिक तौर पर अभी तक नहीं पहना था. उन्हें लगता था कि अगर दलीप ने इसे देखा तो वो उनके बारे में क्या सोचेगा. उस ज़माने में एक मशहूर चित्रकार हुआ करता था फ़्राँज ज़ेवर विंटरहाल्टर .
रानी ने उनसे दलीप सिंह का एक चित्र बनाने के लिए कहा जिसे वो अपने महल में लगाना चाहती थीं. जब दिलीप सिंह बकिंघम पैलेस के व्हाइट ड्राइंग रूम में मंच पर खड़े हुए अपना चित्र बनवा रहे थे थे तो रानी ने एक सैनिक को बुला कर एक बक्सा लाने के लिए कहा जिसमें कोहिनूर रखा हुआ था.
उन्होंने दलीप सिंह से कहा कि मैं आपको एक चीज़ दिखाना चाहती हूँ. दलीप सिंह ने कोहिनूर को देखते ही अपने हाथों में उठा लिया. उसे उन्होंने खिड़की के पास ले जा कर धूप में देखा. तब तक उस कोहिनूर की शक्ल बदल चुकी थी और उसे काटा जा चुका था.
अब वोह वो कोहिनूर नहीं रह गया था जिसे दलीप सिंह उस समय पहना करते थे, जब वो पंजाब के महाराजा हुआ करते थे. थोड़ी देर तक कोहिनूर को देखते रहने के बाद दलीप सिंह ने महारानी से कहा यॉर मेजेस्टी मेरे लिए ये बहुत सम्मान की बात है कि मैं ये हीरा आपको तोहफ़े में दूँ. विक्टोरिया ने वो हीरा उनसे लिया और अपनी मृत्यु तक लगातार उसे पहने रखा.
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दलीप सिंह अपनी माँ से मिलने भारत पहुंचे
विक्टोरिया के बहुत प्रिय होने के बावजूद कुछ सालों बाद दिलीप सिंह ने इच्छा प्रकट की कि वो अपनी असली माँ जिंदन कौर से मिलने भारत जाना चाहते हैं. ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत जाने की अनुमति दे दी. जिंदन तब नेपाल में रह रही थीं. उन्हें अपने बेटे से मिलाने कलकत्ता लाया गया. अनीता आनंद बताती हैं, 'दिलीप वहाँ पहले से ही पहुंचे हुए थे. रानी जिंदन कौर को उनके सामने लाया गया. जिंदन ने कहा कि वो अब कभी उनका साथ नहीं छोड़ेंगी.
वो जहाँ भी जाएंगे, वो उनके साथ जाएंगी. उस समय तक जिंदन अपनी आँखों की रोशनी खो चुकी थीं. उन्होंने जब दलीप सिंह के सिर पर हाथ फेरा तो उनको झटका लगा कि उन्होंने अपने बाल कटवा दिए हैं. दुख में उनकी चीख़ निकल गई. उसी समय कुछ सिख सैनिक ओपियम वार में भाग ले कर चीन से वापस आ रहे थे.
उन्हें जब पता चला कि जिंदन कलकत्ता पहुंची हुई हैं तो वो स्पेंस होटल के बाहर पहुंच गए जहाँ जिंदन अपने बेटे दलीप से मिल रही थीं. उन्होंने ज़ोर ज़ोर से नारे लगाने शुरू कर दिए 'बोलो सो निहाल सत श्री अकाल.' इससे घबराकर अंग्रेज़ों ने दोनों माँ बेटे को पानी के जहाज़ पर बैठाया और इंग्लैंड के लिए रवाना कर दिया.'
दलीप सिंह का रानी विक्टोरिया से हुआ मन खट्टा
दलीप सिंह धीरे धीरे रानी विक्टोरिया के खिलाफ़ होते चले गए. उन्हें लगने लगा कि उन्होंने उनके साथ बेइंसाफ़ी की है. उनके मन में ये बात भी घर कर गई कि वो अपने पुराने साम्राज्य को दोबारा जीतेंगे. वो भारत के लिए रवाना भी हुए लेकिन अदन से आगे नहीं बढ़ पाए.
21 अप्रैल, 1886 को उन्हें व उनके परिवार को पोर्टसईद में गिरफ़्तार कर लिया गया. बाद में उन्हें छोड़ा गया लेकिन उनका सब कुछ छीन लिया गया. 21 अक्तूबर, 1893 को पेरिस के एक बहुत मामूली होटल में उनकी लाश मिली. उस समय उनके साथ उनके परिवार का कोई शख़्स मौजूद नहीं था. इसके साथ ही महाराजा रंजीत सिंह का वंश हमेशा के लिए ख़त्म हो गया.
कोहिनूर टावर ऑफ़ लंदन में मौजूद
महारानी विक्टोरिया के बाद उनके बेटे महाराजा एडवर्ड सप्तम ने कोहिनूर को अपने ताज में नहीं लगाया. लेकिन उनकी पत्नी महारानी एलेक्ज़ेंड्रा के ताज में कोहिनूर को जगह मिली. कोहिनूर के साथ एक अंधविश्वास फैल गया कि जो कोई पुरुष उसे हाथ लगाएगा, ये उसे बरबाद कर देगा. लेकिन महिलाओं को इसे पहनने में कोई दिक्कत नहीं थी.
बाद में भावी राजा जार्ज पंचम की पत्नी राजकुमारी मेरी ने भी उसे अपने ताज के बीच में पहना. लेकिन इसके बाद महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय ने कोहिनूर को अपने ताज में जगह नहीं दी. आजकल दुनिया का ये सबसे मशहूर हीरा टावर ऑफ़ लंदन के जेवेल हाउज़ में रखा हुआ है.
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