कश्मीर: पुलिस की लाठी और भीड़ के पत्थरों के बीच फँसे पत्रकार
कश्मीरी पत्रकार 90 के दशक से ही ऐसी हिंसा का सामना कर रहे हैं. यानी जब से कश्मीर में चरमपंथ की शुरुआत हुई.
पिछले तीन दशक से भारत प्रशासित कश्मीर में पत्रकारों के लिए काम करना बेहद मुश्किल रहा है.
कश्मीर में पत्रकार आए दिन हिंसा और न जाने कितनी मुश्किलों का सामना करते आ रहे हैं.
अभी इसी मंगलवार को कश्मीर में सुरक्षाबलों और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ की घटना कवर करने वाले दो पत्रकारों को बुरी तरह पीटा गया.
कश्मीरी पत्रकारों ने इस पर कड़ी नाराज़गी जताई है. वैसे ये पहली बार नहीं है जब कश्मीर में पुलिस ने पत्रकारों को पीटा हो.
श्रीनगर में रहने वाले मल्टीमीडिया पत्रकार कामरान युसुफ़ को पुलिस ने उस वक़्त पीटा जब वो दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा ज़िले में हुई मुठभेड़ की रिपोर्टिंग के लिए गए थे.
उन्होंने बीबीसी से बताया, "मंगलवार सुबह मैं जल्दी उठकर पुलवामा के मरवाल गाँव के लिए निकल गया था. मैं और मेरे दो अन्य पत्रकार साथी एनकाउंटर वाली जगह से तकरीबन 300 मीटर दूर बैठे थे. मेन रोड पर ट्रैफ़िक सामान्य था. सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक सीआरपीएफ़ के एक जवान ने हमें क़रीब न आने को कहा.''
''ये सुनकर मैं वहाँ से दूर जाने लगा. जैसे ही मैं वहाँ से उठा, जम्मू-कश्मीर पुलिस के लोग और डीएसपी के काफ़िले के कुछ लोगों ने मुझसे बिना कुछ पूछे पीटना शुरू कर दिया.''
किसी ने लात मारी, किसी ने गाली दी
कामरान याद करते हैं, "उन्होंने मुझे पकड़ लिया और बाँस की छड़ी से बेरहमी से पीटने लगे. कुछ ने मेरी पीठ पर लात मारी, कुछ ने मेरे चेहरे पर चाँटा मारा और कुछ ने मुझे गालियाँ दीं. ये सब तकरीबन एक मिनट तक चला. बाकी के दो पत्रकारों को भी पीटा गया लेकिन वो भाग निकले. मैं नहीं भाग सका.''
''जब वो मुझे पीट रहे थे तो ऐसा लग रहा था जैसे मैं मरने वाला हूँ. आख़िरकार मैंने किसी तरह ख़ुद को उनके शिकंजे से छुड़ाया. तब मैं दौड़ता और भागता रहा, वो मेरा पीछा करते रहे और मुझे पीटते रहे."
कामरान को दाहिने पैर और दोनों हाथों में चोटें आई हैं. उनके हाथ सूज गए हैं. उन्हें इलाज के लिए श्रीनगर के महाराजा हरि सिंह अस्पताल में जाना पड़ा.
उन्होंने बताया, "मैं अकेले ही कार चलाकर अस्पताल गया. वहाँ डॉक्टरों में मेरा एक्स-रे और अल्ट्रासाउंड स्कैन टेस्ट किया. उन्होंने मुझे कुछ दिन आराम करने को कहा है."
कामरान युसुफ़ को साल 2017 में राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) ने गिरफ़्तार किया था. उन्हें छह महीने तक दिल्ली के तिहाड़ जेल में रहना पड़ा था लेकिन बाद में वो ज़मानत पर रिहा हो गए थे.
वो कहते हैं, "ये पहली बार नहीं था जब मुझे पीटा गया. इससे पहले भी कई बार मुझे रिपोर्टिंग के दौरान पीटा गया है. जब 2017 में एनआईए ने मुझे गिरफ़्तार किया था, मैं यही सोचता रहता था कि मुझे गिरफ़्तार किया क्यों गया है?"
ये भी पढ़ें: कश्मीर में इंटरनेट कर्फ़्यू के बीच पत्रकारिता कितनी मुश्किल
पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की माँग
एक अन्य फ़ोटो पत्रकार फ़ैसल भी कामरान के पुलिस पर लगाए आरोपों की पुष्टि करते हैं. फ़ैसल को भी पुलवामा में एनकाउंटर की रिपोर्टिंग के दौरान पुलिस ने पीटा था.
पत्रकारों की पिटाई पर कश्मीर में काफ़ी ग़ुस्सा और इसके लिए ज़िम्मेदार पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की माँग की जा रही है.
कश्मीर एडिटर्स गिल्ड ने मरवाल में रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर बल प्रयोग और हिंसा का कड़ा विरोध किया है.
एडिटर्स गिल्ड के एक बयान में कहा गया है, "हम मीडियाकर्मियों पर बल प्रयोग की निंदा करते है. हम अधिकारियों से माँग करते हैं कि मीडिया को उसका काम करने दिया जाए. कश्मीर एडिटर्स गिल्ड की माँग है कि पुलिस नेतृत्व अपने स्टाफ़ को मीडिया के काम के बारे में संवेदनशील बनाए और इस मामले की जाँच करे."
श्रीनगर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार हारून रेशी कहते हैं कि कश्मीरी पत्रकार 90 के दशक से ही ऐसी हिंसा का सामना कर रहे हैं. यानी जब से कश्मीर में चरमपंथ की शुरुआत हुई.
उन्होंने कहा, "मंगलवार को पत्रकारों को जिस तरह पीटा गया, वो पहले की कई घटनाओं की तुलना में कुछ नहीं है. यहाँ पत्रकारों को हिरासत में ले लिया जाता है और मीडिया पर पाबंदी लगा दी जाती है. ऐसी स्थिति में काम करना बेहद मुश्किल होता है. लेकिन इन सभी कठिनाइयों के बाद कश्मीरी पत्रकारों ने बहुत अच्छा काम किया और हिम्मत नहीं हारी है. ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि पत्रकार न सिर्फ़ सुरक्षा एजेंसियों बल्कि चरमपंथियों और अन्य बाहरी तत्वों की प्रताड़ना के भी शिकार होते हैं."
रेशी कहते हैं कि सबसे बड़ी त्रासदी तो ये है कि ऐसे मामलों में होने वाली जाँच का कोई स्पष्ट नतीजा नहीं निकलता.
ये भी पढ़ें: भारत प्रशासित कश्मीर में महिला पत्रकार के ख़िलाफ़ UAPA के तहत मामला दर्ज
पुलिस का पक्ष: पत्रकारों ने बहस और हाथापाई की
कामरान युसुफ़ और अन्य दो पत्रकारों की पिटाई के मामले में पुलिस का कहना है कि मीडियाकर्मी एनकांउटर वाली जगह के क़रीब आ रहे थे इसलिए उन्हें रोकना पड़ा."
शोपियाँ के एसपी आशीष मिश्रा ने बीबीसी से कहा, "वो उस इलाक़े में घुस गए थे जहाँ पुलिस ने घेराबंदी की हुई थी. जब उन्हें वहाँ से हटने के लिए कहा गया तो वे वर्दीधारी पुलिसकर्मियों से बहस और हाथापाई करने लगे. ऐसे में पुलिस तो जवाबी कार्रवाई करेगी ही. आपको पता है कि जब झगड़ा होता है तो क्या होता है."
हालाँकि कामरान और फ़ैसल 'घेराबंदी' वाले इलाक़े में जाने के पुलिस के आरोपों को ख़ारिज करते हैं.
गुरुवार को श्रीनगर के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) दिलबाग सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में एक पत्रकार के मीडियाकर्मियों की पिटाई से जुड़े सवाल के जवाब में कहा, "ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा हुआ. ये नहीं होना चाहिए और कोई इसका समर्थन नहीं करता.''
''हमें पत्रकारों के लिए बुरा लगता है. कभी-कभी ऑपरेशन के दौरान जहाँ स्थिति बहुत ज़्यादा संवेदनशील होती है वहाँ 'रिएक्शन' को 'ओवररिएक्शन' की तरह देखा जाता है. लेकिन कोई ऐसा जानबूझकर नहीं करता और हमें ऐसा घटनाओं के लिए खेद है."
कश्मीर प्रेस क्लब ने भी गुरुवार को पत्रकारों की पिटाई के सम्बन्ध में एक बयान जारी किया है.
बयान के मुताबिक़, "हम ये साफ़ करना चाहते हैं कि कश्मीर में ये पहली बार नहीं है जब सुरक्षाबलों ने पत्रकारों को निशाना बनाया हो और उन्हें अपना काम करने से रोका है. अतीत में भी पत्रकारों को पीटने, प्रताड़ित करने और समन करने की कई घटनाएं हुई हैं. हमने वरिष्ठ अधिकारियों का ध्यान ऐसी घटनाओं की ओर दिलाया है."
ये भी पढ़ें: क्यों हो रही है कश्मीरी पत्रकारों पर कार्रवाई
सरकार तय करती है कौन सी ख़बर 'देश-विरोधी'
मानवाधिकार के लिए काम करने वाली संस्था एम्नेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने भी अपनी हालिया रिपोर्ट में कश्मीरी पत्रकारों के उत्पीड़न की निंदा की है.
एम्नेस्टी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, "हमने पाँच अगस्त, 2019 से लेकर अब तक कम से कम 18 कश्मीरी पत्रकारों पर शारीरिक हमले, उत्पीड़न और धमकाने जैसी घटनाएं दर्ज की हैं. इस क्षेत्र में सरकार की मीडिया नीति खुलेआम यह चाहती है कि 'मीडिया सरकार के काम करने के तरीक़े का एक ख़ास ढंग से चित्रण करे'. सरकार यहाँ पत्रकारों की 'देश-विरोधी गतिविधियों', फ़ेक न्यूज़ और नक़ल रोकने के नाम पर मीडिया की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की कोशिश करती है."
इसी साल जून में जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने एक नई मीडिया नीति का एलान किया था जिसके तहत सरकार को यह तय करने का अधिकार है कि क्या 'फ़ेक न्यूज़' है क्या 'अनैतिक न्यूज़' है और क्या 'देश-विरोधी न्यूज़.'
बारामुला डिग्री कॉलेज में मीडिया स्टडीज़ पढ़ाने वाले असिस्टेंट प्रोफ़ेसर परवेज़ मजीद कहते हैं कि अधिकारी अपने आस-पास पत्रकारों को नहीं देखना चाहते.
वो कहते हैं, "मुझे लगता है कि ऐसी घटनाएं तब होती हैं जब पत्रकार ख़बर की तह तक पहुँचना चाहते हैं और अधिकार अपने बल प्रयोग से उन्हें रोकना चाहते हैं. भविष्य में ऐसी घटनाएँ न हों इसके लिए पत्रकारों और अधिकारियों के बीच एक ऐसा संपर्क बिंदु होना चाहिए जहाँ सम्मानजनक तरीके से बातचीत हो सके ताकि दोनों पक्षों के बीच ऐसी अप्रिय घटनाएं होने से रोका जा सके ."
कश्मीर में पिछले 10 वर्षों से ज़्यादा समय से पत्रकारिता करने वाले मजीद ने बताया कि अपने करियर में उन्होंने सुरक्षाबलों और प्रदर्शनकारियों के हाथों कई बार उत्पीड़न और अपमान का सामना किया है जब वो अपने आस-पास पत्रकारों को नहीं फटकने देना चाहते थे.
ये भी पढ़ें: बुलेट और पत्थरों के बीच कश्मीर में रिपोर्टिंग कितनी मुश्किल
पुलिस स्टेशन में पत्रकार, रोज़-रोज़ की बात
कश्मीर में पत्रकारों को पुलिस स्टेशन समन करना अब रोज़ की बात हो गई है.
पिछले एक साल में कई पत्रकारों को उनकी ख़बरों और रिपोर्टिंग से जुड़े सवाल पूछने के लिए पुलिस स्टेशन बुलाया जा चुका है.
यहां तक कि कुछ पत्रकारों पर तो विवादास्पद यूएपीए (अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट) के तहत भी मामले दर्ज किए गए हैं.