राजनीति में ऐसे कमल (हासन) खिलेंगे तो समझो सुरक्षित है ‘कमल’
नई दिल्ली। फ़िल्म खलनायक 1993 में रिलीज़ हुई थी यानी उसी साल, जब मुम्बई में सीरीज़ ब्लास्ट हुए थे। दोनों घटनाएं अयोध्या में बाबरी विध्वंस के छह महीने के भीतर की हैं। उसके बाद से 2010 तक समूचा देश आतंकवाद की घटनाओं की चपेट में रहा। कह सकते हैं कि पिछले 7 साल से देश आतंकी धमाकों से बचा हुआ है। कम से कम राजधानी दिल्ली तो 2005 के बाद से ही शांत है। और, अब तो दिवाली में भी सुकुन सबने महसूस किया। सवाल उठ सकता है कि इन सबको फ़िल्म खलनायक से क्यों जोड़ा जा रहा है? 'खलनायक' वह दौर है जब देश ने एक नेगेटिव चरित्र को पसंद किया। खलनायक ही नायक बन गया। 'खलनायक' वह फ़िल्म है जिसके अभिनेता संजय दत्त को इस फ़िल्म के रिलीज़ होने से छह महीने पहले हुए बम ब्लास्ट से जुड़े मामले में आगे चलकर सज़ा भुगतनी पड़ी। दरअसल बैड कैरेक्टर को स्वीकार करने का दुस्साहस इसी फ़िल्म ने सिखाया था जिस पर अलग-अलग मंचों पर अमल होने लगा।
कमल हासन ने छेड़ा 'हिंदू आतंकवाद' का मुद्दा
जनता भी ऐसे चरित्र को गोद में उठा लेने के आरोप से नहीं बच सकती। पर्दे का नायक खलनायक के रूप में पसंद किया जा रहा था, तो मुम्बई ब्लास्ट का ज़िम्मेदार खलनायक दाऊद इब्राहिम पाकिस्तान ही नहीं, भारत समेत दूसरे पड़ोसी मुल्कों में भी माफिया डाऊन बनकर खलनायकी को हीरो का दर्जा दिला रहा था। लोग अपने बच्चों के नाम ओसामा, सद्दाम और दाऊद इब्राहिम रखने लगे थे। पोस्टर ब्वॉय बन गये थे खलनायक।
कमल हासन की टिप्पणी से बीजेपी नाराज
2002 में गोधराकांड के ‘शूरवीरों' का बचाव करने वाले छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी हों या गोधरा के बाद गुजरात दंगों पर मोदी सरकार पर राजधर्म नहीं निभाने की तोहमत- खलनायक का चरित्र दोनों तरफ मजबूत हो रहा था। कहते हैं आविष्कार शब्दों की जननी होती है, आंदोलन के दौरान भाषा मजबूत होती है मगर जब नकारात्मक फ़िजां परवान चढ़ती है तो नकारात्मक शब्द ही जन्म लेते हैं इसे देश ने महसूस किया। गुजरात दंगों के बाद पहली बार फ्रंटलाइन ने ‘भगवा आतंकवाद' शब्द का प्रयोग किया। इससे पहले अमेरिका में 9/11 हमले के बाद से दुनिया भर में ‘इस्लामिक आतंकवाद' का जबरदस्त तरीके से उपयोग हो रहा था। खासकर भारत में राजनीतिक मकसद से नकारात्मक शब्दों के इस्तेमाल की स्पर्धा हो रही थी और वास्तव में इसी स्पर्धा की वजह से ‘भगवा आतंकवाद' शब्द ने जन्म लिया।
‘हिन्दू आतंकवाद' शब्द प्रचलन में कब आया
‘हिन्दू आतंकवाद' शब्द प्रचलन में तब आया जब 2008 में मालेगांव ब्लास्ट हुआ। उसी साल मक्का मस्जिद में विस्फोट और फिर 2007 में समझौता एक्सप्रेस व अजमेर दरगाह धमाका जैसी घटनाएं पृष्ठभूमि में थीं, जो ‘भगवा आतंकवाद' के रूप में गुनहगारों को खोज रही थीं। कथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार बने नेता चाहे वो कांग्रेस के ‘बैडमैन' दिग्विजय सिंह हों या फिर एनसीपी नेता शरद पवार, उन्होंने भगवा आतंकवाद की जगह ‘हिन्दू आतंकवाद' के रूप में नया प्रयोग शुरू कर दिया। इस प्रयोग पर बीजेपी और हिन्दूवादी संगठनों में जो प्रतिक्रिया हुई, उसने इस प्रयोग को स्थायी मान्यता दे दी।
टिप्पणी करके फंसे कमल हासन
2013 में गृहमंत्री ने NIA की जांच रिपोर्ट के हवाले से जब 10 हिन्दू आतंकवादियों की सूची जारी की और तत्कालीन गृहसचिव आरके सिंह, जो मोदी सरकार में मंत्री हैं, ने उसकी पुष्टि करते हुए उसे सबूतों के आधार पर बताया था तब केन्द्र सरकार ने भी भगवा आतंकवाद और हिन्दू आतंकवाद पर सरकारी मुहर लगा दी थी। असीमानन्द समेत सूची में दर्ज सभी नामों का आरएसएस और दूसरे हिन्दू संगठनों के साथ संबंध था। इतना ही नहीं तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने जांच रिपोर्ट के हवाले से आरएसएस और बीजेपी पर आतंकवादी ट्रेनिंग कैम्प चलाने के आरोप मढ़ दिए। इस घटना के बाद भगवा और हिन्दू आतंकवाद मीडिया में धड़ल्ले से उपयोग होने लगा। वामपंथी और लालू समेत यूपीए नेताओं को बीजेपी और संघ पर हमला करने का हथियार मिल चुका था।
राजनीति में एंट्री की तैयारी में हैं कमल हासन
इन सबके बावजूद भारतीय जनमानस ने ‘हिन्दू आतंकवाद' या ‘भगवा आतंकवाद' को कभी स्वीकार नहीं किया। ऐसी कोशिशों ने बीजेपी की सफलता का ग्राफ हमेशा ऊंचा किया। लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व विजय और देश के 19 राज्यों में बीजेपी की सरकार यही साबित करती है कि या तो देश के लोगों ने ‘हिन्दू आतंकवाद' या ‘भगवा आतंकवाद' का स्वागत किया या फिर इन्हें आरोप मानकर बिल्कुल ख़ारिज़ कर दिया। मगर, हिन्दुस्तान से बाहर रहने वाला शख्स ही ऐसी तटस्थता दिखला सकता है अन्यथा ये कहने की हिम्मत दिखलानी होगी कि भारतीय जनता ने ‘हिन्दू आतंकवाद' या ‘भगवा आतंकवाद' को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया।
कमल हासन के खिलाफ वाराणसी में केस
कमल हासन भी पर्दे के नायक रहे हैं। खलनायकी को भलीभांति समझते हैं। राजनीति में कदम बढ़ाने की उनकी इच्छा है। पाला उन्होंने तय कर लिया है। उनकी मुलाकात बीजेपी विरोधियों से हुई है चाहे वे अरविन्द केजरीवाल हों या सीपीएम के नेता। ऐसे में उनके लिए हिन्दू या भगवा आतंकवाद का शिगूफ़ा छोड़कर ही मोदी विरोधियों में ‘नैतिक घुसपैठ' का आधार दिखा। फिर फ़िल्मकार फ़िल्म की लॉन्चिंग से पहले विवाद पैदा करना और मीडिया का इस्तेमाल करना अच्छी तरह से जानते हैं। लिहाज़ा राजनीति के सिल्वर स्क्रीन पर ‘भगवा आतंक' के धमाके के रूप में उन्होंने जोरदार एन्ट्री की है।
सियासत पर क्या होगा असर
सम्भव है कि कमल हासन की एन्ट्री हिट रहे। वे दिग्विजय सिंह की तरह राजनीति में अपने लिए मुकाम बना लें, आगे बढ़ने की सीढ़ी तैयार कर लें और मंत्री भी बन जाएं, लेकिन बीजेपी और संघ को भी वे और ताकतवर बना देंगे। जिस मुद्दे पर बीजेपी चुनाव में उतरना चाहती है, वो मुद्दा कमल हासन उन्हें हाथ में पकड़ा रहे हैं। राहुल की कांग्रेस अगर तात्कालिक लाभ का मोह छोड़ दे और बीजेपी व आरएसएस का उनकी नीतियों के आधार पर विरोध की राजनीति पर विश्वास करें तो निश्चित रूप से वे कमल हासन की खलनायकी स्वीकार नहीं करेंगे। मगर, क्या कांग्रेस गलती दोहराने से बच पाएगी?