भारत-चीन तनाव: अमरीका क्या मुश्किल वक़्त में भारत से मुंह मोड़ लेता है?
अमरीका और चीन में प्रतिद्वंद्विता है और अभी तो चरम पर है. अमरीका और भारत में न तो ऐसी कोई दुश्मनी है और न ही प्रतिद्वंद्विता. इसके बावजूद क्या चीन के ख़िलाफ़ अमरीका भारत के साथ है?
एक पुरानी कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. लेकिन यह कहावत भारत, चीन और अमरीका के मामले में बहुत फिट नहीं बैठती है. भारत और चीन में दुश्मनी रही है और अब भी बहुत कड़वाहट है.
अमरीका और चीन में प्रतिद्वंद्विता है और अभी तो चरम पर है. अमरीका और भारत में न तो ऐसी कोई दुश्मनी है और न ही प्रतिद्वंद्विता. इसके बावजूद क्या चीन के ख़िलाफ़ अमरीका भारत के साथ है? अमरीका के लिए भारत कितना दोस्त है, इसे इतिहास में परखने की कोशिश करें या वर्तमान में, नतीजा बहुत आश्वस्त नहीं करता है.
भारत के 20 सैनिकों की मौत चीन और भारत की सीमा पर हुई. चीन ने इसके लिए भारत को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया. अमरीका का बयान इतना सधा हुआ आया कि न चीन को निराशा हुई होगी और न ही भारत को ख़ुशी. इतने मुश्किल वक़्त में राष्ट्रपति ट्रंप ने H1B वीज़ा की व्यवस्था को रद्द कर दिया. कहा जा रहा है कि ट्रंप के इस फ़ैसले से सबसे ज़्यादा प्रभावित भारतीय होंगे.
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ग्रीन कार्ड और विदेशियों को मिलने वाले वर्क वीज़ा H1B पर लगी पाबंदियों को साल के अंत तक के लिए बढ़ा दिया है. आँकड़े बताते हैं कि इसका सीधा असर भारतीयों पर सबसे ज्यादा पड़ेगा.
यूएस सिटीज़नशिप एंड इमिग्रेशन सर्विसेज के डेटा के मुताबिक़ पाँच अक्टूबर 2018 तक 3,09,986 भारतीयों ने इस वीज़ा के लिए आवेदन दिए थे. ये संख्या दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा है. दूसरे नंबर पर चीन आता है जहां के 47,172 लोगों ने इस वीज़ा के लिए आवेदन दिया.
ऐसे में सवाल ये पूछा जा रहा है कि जब पीएम मोदी और ट्रंप इतने अच्छे दोस्त हैं तो प्रतिकूल फ़ैसले क्यों ले रहे हैं?
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अमेरिकी, कनाडाई और लातिन अमेरिकी स्टडी सेंटर में प्रोफ़ेसर चिंतामणी महापात्रा के मुताबिक़, "इस फ़ैसले को भारत विरोधी फ़ैसले के बजाए प्रो-अमरीकन फ़ैसले के तौर पर देखा जाना चाहिए. अमरीका में नवंबर के महीने में चुनाव होना है और फ़िलहाल कोरोना के दौर में अमरीका में बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ी है. डोनाल्ड ट्रंप की मजबूरी है कि वहाँ की बेरोज़गारी की समस्या पर ध्यान दें. ये फैसला ट्रंप की चुनावी रणनीति का हिस्सा है और इस समय ट्रंप को लगता है कि ये अमरीका और वहाँ के लोगों के हित से जुड़ा फ़ैसला है."
महापात्रा मानते हैं कि इस फ़ैसले से दोनों देशों की जनता के बीच के समाजिक संबंधों पर असर पड़ेगा, लेकिन ये दोस्ती और दुश्मनी से अलग बात है.
भारत-चीन सीमा विवाद
डोनल्ड ट्रंप के इस फ़ैसले से कुछ दिन पहले ही भारत-चीन सीमा पर दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई. दोनों देशों में इस तनाव पर अमरीका की ओर से पहली प्रक्रिया चार दिन बाद आई.
अमरीका ने 19 जून को प्रतिक्रिया देते हुए अपनी संवेदना जताई है. अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने प्रतिक्रिया दी है, "हम चीन के साथ हाल में हुए संघर्ष की वजह से हुई मौतों के लिए भारत के लोगों के साथ गहरी संवेदना जताते हैं. हम इन सैनिकों के परिवारों, उनके आत्मीय जनों और समुदायों का स्मरण करेंगे. ऐसे समय जब वो शोक मना रहे हैं."
ट्रंप के बयान से भी वो आक्रमकता ग़ायब दिखी जिसकी भारतीयों को उम्मीद थी. उन्होनें बस इतना कहा कि ये बहुत मुश्किल परिस्थति है. हम भारत से बात कर रहे हैं. हम चीन से भी बात कर रहे हैं. वहां उन दोनों के बीच बड़ी समस्या है. दोनों एक दूसरे के सामने आ गए हैं और हम देखेंगे कि आगे क्या होगा. हम उनकी मदद करने की कोशिश कर रहे हैं.
ये ऐसी ही मदद की पेशकश थी जैसे भारत-पाकिस्तान संदर्भ में वो कई बार पहले भी बयान दे चुके हैं. और जिसे भारत ठुकराता रहा है.
चिंतामणी महापात्रा के मुताबिक़ डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के सभी इलाक़ों से अपनी सैन्य उपस्थिति हटाना चाहते हैं. अमरीका और चीन के बीच ट्रेड वॉर के बावजूद दोनों देशों के बीच व्यापार तो हो ही रहा है. चीन अमरीका की आर्थिक ज़रूरत भी है.
रही बात भारत की तो महापात्रा कहते हैं, " भारत ये जानता है कि अमरीका, सब कुछ छोड़ कर भारत का साथ देने नहीं आएगा, अगर परिस्थितियां बिगड़ती भी हैं." वैसे भी अमरीका ऐसा करने वाला नहीं है. लेकिन इतना ज़रूर है कि अमरीका चीन को अपना प्रतिद्वंदी ज़रूर मानता है और समय-समय पर दूसरे तरीक़ों से इसका अहसास चीन को कराता रहता है.
इतिहास में देखें तो यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 1962 के युद्ध में अमेरिका ने भारत की मदद की थी. अमेरिका के सामने 1962 में चीन की ताक़त कुछ भी नहीं थी. जब चीन ने भारत पर हमला किया उसी वक़्त अमेरिका क्यूबा मिसाइल संकट का सामना कर रहा था.
सोवियत संघ ने क्यूबा में मिसाइल तैनात कर दी थी और एक बार फिर से परमाणु युद्ध की आशंका गहरा गई थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू उस वक़्त अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी को बार-बार पत्र लिख रहे थे कि वो मदद करें.
नेहरू के अनुरोध पर राष्ट्रपति केनेडी मदद के लिए तैयार हो गए थे. लेकिन जब अमरीका का सपोर्ट पहुंचा उसके पहले ही चीन ने अपना क़दम पीछे खींच लिया. ऐसे में अमरीका के लिए कुछ बाक़ी नहीं रह गया था.
अमरीका को भारत की मदद
लेकिन ऐसे भी उदाहरण मिल जाएँगे जब अमरीका को भारत से ज़रूरत पड़ी तो डरा धमका कर काम निकलवा लिया. ताज़ा मिसाल हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन की है. जब भारत से दवा माँगने के लिए ट्रंप ने दोस्ती का हवाला दिया और कहा कि मैंने भारत के प्रधानमंत्री मोदी से बात की है.
भारत बड़ी मात्रा में हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन बनाता है. भारत ने तब इस दवा के निर्यात पर रोक लगा दी थी. लेकिन ट्रंप को ज़रूरत पड़ी तो भारत ने निर्यात से प्रतिबंध हटा लिया.
क्या वाक़ई अमरीका भारत का दोस्त है या नहीं ये तय करना मुश्किल है?
महापात्रा कहते हैं, रणनीतिक तौर पर भारत और अमरीका पिछले दो दशकों से दोस्त रहे हैं. लेकिन आर्थिक मोर्चे की बात हो या फिर दूसरे समाजिक मुद्दों की वहाँ अक्सर दोनों देश अलग-अलग नज़र आते हैं. जहाँ तक राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप का सवाल है वो कहते हैं ट्रंप किसी को दोस्त या दुश्मन नहीं मानते. वो सिर्फ़ अपना और अमरीका के हित के आधार पर फ़ैसला लेते हैं.
आब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्टडीज़ विभाग के डायरेक्टर हर्ष पंत का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में दोस्त दुश्मन नहीं होता है. अगर दो देशों के हितों में टकराव होता है तो उस पर ज़्यादा कुछ किया नहीं जा सकता. उनके मुताबिक़ भारत और अमरीका का रिश्ता पार्टनरशिप का ज़्यादा है और एलायंस का कम है. इसलिए दोनों देश एक दूसरे की बात को माने ऐसी बाध्यता नहीं है.
कश्मीर पर ट्रंप की दिलचस्पी
पिछले साल अगस्त में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने कश्मीर पर बयान दिया था, "कश्मीर काफ़ी जटिल जगह है. वहां हिंदू भी हैं, मुसलमान भी हैं. मैं यह भी नहीं कह सकता है कि वे साथ में शानदार ढंग से रह पाएंगे, ऐसे में जो मैं सबसे अच्छा कर सकता हूं वह यह है कि मैं मध्यस्थता कर सकता हूं."
उनका ये बयान भारत सरकार के अनुच्छेद 370 ख़त्म करने को लेकर आया था. ट्रंप ये जानते हैं कि भारत कश्मीर के मुद्दे पर तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करता, बावजूद इसके उन्होंने इस तरह की पेशकश की. उनकी ये पेशकश ख़ुद अमरीकी नीति के बिल्कुल उलट थी जिसके तहत अमरीका कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय मसले यानी भारतीय संवेदनाओं के साथ देखता आया था.
ईरान अमरीका संबंधों का असर भारत पर
ईरान और अमरीका की दुश्मनी किसी से छिपी नहीं है. लेकिन इसका असर पिछले दिनों भारत पर भी पड़ा है.
2015 जुलाई में ईरान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों के बीच परमाणु समझौता हुआ था. अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने समझौते के तहत ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने के बदले में प्रतिबंधों से राहत दी थी. लेकिन मई, 2018 में ईरान पर ज़्यादा दबाव बनाने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ये समझौता तोड़ दिया.
2018 में अमरीका ने भारत से कहा है कि वो ईरान के साथ अपने संबंधों की समीक्षा करे और ईरान से तेल का आयात पूरी तरह बंद कर दे. भारत चीन के बाद कच्चा तेल ख़रीदने वाला दूसरा सबसे बड़ा ख़रीददार है. वहीं ईरान अपना दस प्रतिशत तेल निर्यात सिर्फ़ भारत को करता है. ईरान के अलावा इराक़ और सऊदी अरब से भी भारत तेल ख़रीदता है.
लेकिन अमरीका ने इस पर रोक लगा दी है. इस साल फ़रवरी में ट्रंप के अहमदाबाद दौरे से ठीक पहले कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी सरकार से यही सवाल पूछा था. उन्होंने केन्द्र सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा था कि मोदी सरकार ने अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद ईरान से सस्ते दामों में तेल ख़रीदना बंद कर दिया, जिससे भारत में तेल के दाम बढ़ गए. यही बात भारत-अमरीका संबंधों के जानकार भी मानते हैं.
अमरीकी मामलों के जानकार हर्ष पंत की माने तो ये इस फ़ैसले को केवल भारत के संदर्भ में देखना ग़लत होगा. इसका असर सभी देशों पर पड़ा. लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि चाबहार बंदरगाह निर्माण पर उस प्रतिबंध का असर नहीं पड़ा. दरअसल, ये पूरा मामला ईरान और अमरीका के आपसी रिश्तों की देन था ना कि भारत के प्रति दोस्ती या दुश्मनी से प्रेरित.
चिंतामणि महापात्रा भी हर्ष पंत की बात से सहमत हैं. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि ईरान पर लगे प्रतिबंधों का विरोध इसराइल के अलावा सभी देश ने किया था. ये बात और है कि इसका असर भारत पर नकारात्मक तरीक़े से हुआ.
जहाँ तक तेल ख़रीदना बंद करने की बात है इस पर हर्ष पंत कहते हैं कि वो दूसरे लॉजिस्टिक कारणों की वजह से भी भारत को बंद करना पड़ा.
भारत अमरीका व्यापार संबंध
अमेरिका ने पाँच जून 2019 को व्यापार में सामान्य तरजीही व्यवस्था (जीएसपी) जैसी चीज़ों पर भारत को शुल्क मुक्त आयात की सुविधा देनी बंद कर दी. इससे अमेरिका में 5.6 अरब डॉलर का भारतीय निर्यात प्रभावित हुआ, जिसमें रत्न, आभूषण, चावल, चमड़ा आदि शामिल हैं.
जीएसपी का मतलब है जेनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफ्रेंस लिस्ट. आसान शब्दों में समझें तो जीएसपी अमरीका की व्यापारिक वरीयता की लिस्ट है.
अमरीका ने 2019 के इस फ़ैसले के बाद भारतीय निर्यातकों के उत्पादों पर अमरीका में 10 फ़ीसदी ज़्यादा शुल्क लग रहा है.
1976 में जीएसपी को अमरीका ने लागू किया था जो कि अमरीका और दूसरे 120 देशों के बीच व्यापार में वरीयता देने का एक समझौता है. इसे लाया गया ताकि विकासशील देश अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ा सकें और अमरीकियों को उन देशों से आयातित सामान सस्ता उपलब्ध हो सके.
2018 में भारत इस योजना का सबसे बड़ा लाभार्थी था क्योंकि भारत ने लगभग 630 करोड़ डॉलर का सामान अमरीका में निर्यात किया जिस पर बहुत कम या ना के बराबर शुल्क लगा.
इस फ़ैसले के पीछे की वजह बताते हुए राष्ट्रपति ट्रंप ने बताया था कि भारत-अमरीकी कंपनियों को अपने बाज़ार में बराबर और उचित मौक़ा नहीं दे रहा.
इस शिकायत के पीछे वजह है वो विवाद जिसमें मेडिकल उपकरण और डेयरी उत्पादों को भारत में बेचने की इजाज़त नहीं मिलना है. लेकिन तमाम बातचीत के बाद भी अमरीका की जीएसपी सूची में भारत वापस नहीं आ पाया है.
चिंतामणि महापात्र मानते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप विश्व की अर्थव्यवस्था को एक बिज़नेस मैन से नज़रिए से देखते हैं. वो ख़ुद को एक कठिन वार्ताकार के तौर पर पेश करते आए हैं. भारत के साथ साथ दूसरे यूरोपीय देशों, कनाडा और चीन के साथ भी व्यापार के मामले में वो इतने ही सख्त रहे हैं.
उन्होंने विश्व की किसी अर्थव्यवस्था को नहीं छोड़ा है, जिसके साथ वो सख्ती से पेश ना आए हों. अमरीका के भीतर भी उनकी ट्रेड और दूसरी आर्थिक नीतियों की आलोचना होती रहती है. इस साल फ़रवरी के महीने में जब मोदी उन्हें गुजरात ले गए थे, तब भी व्यापारिक समझौतें होने की अटकलें थी. लेकिन वो आए दोस्ती दिखा कर चले गए.
आर्थिक मोर्चे पर भारत अमरीका ज़रूर अलग-अलग दिखते हैं.
लेकिन ऐसा नहीं कि रिश्तों में ये उतार चढ़ाव केवल ट्रंप प्रशासन के दौरान ही रहा. जानकार मानते हैं कि ओबामा और उससे पहले के राष्ट्राध्यक्षों के कार्यकाल में भी दोनों देशों के रिश्तों में ये उतार-चढ़ाव चलते रहे. रक्षा सौदे हों या सुरक्षा क्षेत्र के दूसरे मामले, अमरीका भारत की केमेस्ट्री बाक़ी सेक्टर के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर है.
परमाणु परीक्षण और आर्थिक प्रतिबंध
1971 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के दौरान अमरीका ने चीन के साथ निकटता के संदर्भ में मध्यस्थ की भूमिका ली और पाकिस्तान को सहयोग किया था.
1974 में इंदिरा गांधी के समय हुए परमाणु परीक्षण के बाद भारत का क़द दुनिया में बढ़ा था. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच सदस्यों के बाद ऐसा करने वाला पहला देश बना गया था. लेकिन परमाणु परीक्षणों की वजह से अमरीका के साथ अगले दो दशकों तक संबंधों में खिंचाव की नींव पड़ी. भारत के इस परीक्षण को जहां इंदिरा गांधी ने शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण करार दिया तो वहीं दूसरी तरफ़ अमेरिका ने भारत को परमाणु सामग्री और ईधन की आपूर्ति रोक दी थी.
1978 में अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर भारत यात्रा पर राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से मिले थे. उन्होंने भारतीय संसद को संबोधित भी किया. कार्टर ने परमाणु अप्रसार अधिनियम खड़ा किया और भारत सहित तमाम देशों के परमाणु संयंत्रों की जांच की मांग की. भारत के इनकार के बाद अमरीका ने भारत से सभी तरह का परमाणु सहयोग ख़त्म किया.
1998 में परमाणु परीक्षणों के बाद अमरीका के साथ भारत के संबंधों में तनाव आया था. अमरीकी राजदूत को वापस बुलाने के साथ राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे. जिसके बाद 2001 में जॉर्ज बुश प्रशासन ने आर्थिक प्रतिबंध हटाए.
1999 में करगिल युद्ध के दौरान क्लिंटन ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को वॉशिंगटन बुलाया. इसके बाद पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा पर अपनी सेना पीछे हटाई.