गुजरात की मीना कैसे बन गईं सबकी 'पैड दादी'
लोग दान में बहुत कुछ देते हैं, लेकिन 'पैड दादी' के दान देने का तरीका ही अलग है.
''भारत में लोग कई चीजें दान करते हैं, लेकिन सैनिटरी पैड और अंडरगार्मेंट दान करने के बारे में ज़्यादातर लोग सोच भी नहीं पाते. लेकिन ज़रा उनके बारे में सोचिए जो इन्हें ख़रीद ही नहीं पाते.''
ये कहना है 62 साल की मीना मेहता का जो गुजरात के सूरत में रहती हैं.
सूरत के सरकारी स्कूलों की लड़कियां उन्हें पैड दादी कह कर बुलाती हैं जबकि झुग्गियों में रहने वाली लड़कियां उन्हें 'पैड वाली बाई' के तौर पर जानती हैं.
भारत के पैडमैन के बारे में तो हम पहले से जानते हैं, लेकिन पैड दादी के बारे में बहुत कम जानकारी है.
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बांटती हैं पांच हज़ार पैड
मीना हर महीने 5,000 पैड दान करने के लिए सूरत में अलग-अलग स्कूलों और झुग्गियों का चक्कर लगाती हैं. वह झुग्गियों में रहने वाली लड़कियों को एक किट देती हैं.
मीना पहले लड़कियों को सिर्फ़ पैड दिया करती थीं, लेकिन जब वह झुग्गियों में रहने वाली लड़कियों से मिलीं तो उन्हें पता चला कि सिर्फ़ पैड देना ही काफ़ी नहीं है क्योंकि इन लड़कियों के पास पैड इस्तेमाल करने के लिए अंडरगार्मेंट भी नहीं हैं.
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लड़कियों की इस दिक्कत को दूर करने के लिए उन्होंने 'हेल्थ किट' देने के बारे में सोचा. इस हेल्थ किट में आठ सैनेटरी पैड, दो अंडरवियर, शैंपू और साबुन होते हैं.
घटना जिसने दी प्रेरणा
मीना ने बीबीसी गुजराती को बताया, ''जब साल 2004 में तमिलनाडु में सुनामी आई थी. तब इंफ़ोसिस फ़ाउंडेशन की अध्यक्ष सुधा मूर्ति ने पीड़ितों को सैनेटरी पैड बांटे थे. उन्होंने सोचा था कि लोग पीड़ितों को खाना और अन्य चीजें दे रहे हैं, लेकिन उन बेघर महिलाओं का क्या जिन्हें माहवारी हो रही होगी? उनके इन्हीं शब्दों से मुझे काम करने की प्रेरणा मिली.''
''बाद में मैंने कुछ ऐसा देखा जिसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया और जो मैं आज कर रही हूं उसके लिए मजबूर कर दिया. मैंने देखा कि दो लड़कियां कचरे से इस्तेमाल किए गए पैड ले रही थीं.
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मैंने उनसे पूछा कि वो इन पैड का क्या करने वाली हैं. उन्होंने कहा कि वो इन्हें धोएंगी और उसके बाद फिर से इस्तेमाल करेंगी. यह सुनकर मेरे होश उड़ गए. इसके बाद मैंने अपनी कामवाली और अन्य पांच लड़कियों को पैड देने शुरू किए. फिर मैं स्कूलों में भी जाकर पैड बांटने लगी''
मीना ने आगे बताया, ''जब मैं स्कूल में पैड देने गई तो एक लड़की मेरे पास आई और कान में बोली, दादी आप हमें पैड दे रही हैं, लेकिन हमारे पास पैड इस्तेमाल करने के लिए अंडरवियर ही नहीं है. तब से मैं अंडरवियर भी दे रही हूं. वहीं, झुग्गियों में रहने वाली लड़कियों को साफ़-सफ़ाई की जानकारी न होने के कारण वो संक्रमण का शिकार हो जाती हैं. इसलिए मैं उन्हें पूरी किट देती हूं.''
उन्होंने कहा, ''सुधा मूर्ति ये सुनकर बहुत हैरान थीं. उन्होंने मुझसे कहा कि वो कई सालों से महिलाओं के लिए काम कर रही हैं, लेकिन ये बात कैसे उनके दिमाग़ में कभी नहीं आई? बाद में उन्होंने मुझे एक लाख रुपये के सैनेटरी पैड दो बार भेजे.''
विदेश से भी मिली मदद
मीना कहती हैं कि शुरुआत में इस काम में होने वाले खर्चे में उनके पति मदद किया करते थे. उन्होंने मीना को 25 हज़ार रुपये दिए थे. लेकिन, बाद में कई और लोग इस अभियान से जुड़ गए.
लंदन, अफ़्रीका और हांगकांग से कई लोगों ने मीना की इस अभियान में मदद की.
अब मीना मेहता मानुनी संस्थान चलाती हैं.
मीना ने बताया कि जिन महिलाओं ने पैड का इस्तेमाल शुरू किया वो कहती हैं कि अब उन्हें खुजली या अन्य सफ़ाई संबंधी समस्याएं नहीं होतीं. वो आराम से काम कर सकती हैं.
भारत में माहवारी से जुड़े टैबू के बारे में मीना ने बीबीसी गुजराती से कहा, ''क्या हम सब्ज़ी बेचने वाली किसी औरत से सब्ज़ी खरीदने से पहले पूछते हैं कि उसे माहवारी है या नहीं? माहवारी को लेकर ये छुआछूत और टैबू अस्वीकार्य हैं.''