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हिंदू बनाम मुसलमान: धर्म की खाई 2022 की फ़िल्में कितना पाट पाईं?

2022 में रिलीज़ वो कुछ हिंदी फ़िल्में जिनसे बढ़ी धर्मों के बीच मिठास या कड़वाहट. अतीत की फ़िल्मों से अब की फ़िल्में कितनी अलग या समान हैं?

By BBC News हिन्दी
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एक कहानी, कई किरदार, बहुत सारे लोगों की मेहनत... तब जाकर तैयार होती है एक फ़िल्म. वही फ़िल्में, जिन्हें अनगिनत बार 'समाज का आईना' कहा गया है.

लेकिन ये आईना बीते वक़्त में कितना धुंधला या साफ़ हुआ?

याद करिए वो आख़िरी फ़िल्म जिसे देखकर आपको धर्मों के बीच की खाई मिठास से भरती या कड़वाहट से गहराती नज़र आई हो?

इस कहानी में हम 2022 में रिलीज़ उन कुछ फ़िल्मों की बात करेंगे जिनका कोई सीन या फ़िल्म के बैकग्राउंड में धर्म रहा हो.

ऐसे दौर में जब किसी गाने में पहने कपड़े के रंग को धर्म से जोड़ लिया जाए, तब ऐसी कुछ फ़िल्मों का ज़िक्र ज़रूरी है जिनकी कहानी के केंद्र या पस-मंज़र (पृष्ठभूमि) में धर्म हो.

लेकिन पहले एक नज़र अतीत की फ़िल्मों पर जिनमें धार्मिक सौहार्द बढ़ाने और मौजूदा दौर की कड़वाहट दिखाने की कोशिशें हुईं.

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साल 1941. वी शांताराम की फ़िल्म 'पड़ोसी' रिलीज़ हुई. फ़िल्म के पहले ही सीन में रामायण पढ़ते पंडित (ठाकुर) तब उठ जाते हैं, जब नमाज़ पढ़ने मिर्ज़ा आते हैं.

मिर्ज़ा पूछते हैं- क्यों उठ गए ठाकुर, अभी तो तुम्हारा रामायण पढ़ने का और मन था? पंडित बोले- मैं और पढ़ूँ, उधर तुम्हारी नमाज़ का वक़्त गुज़र जाए और पाप मुझे लगे.

सीन की ख़ूबसूरती ये भी है कि फ़िल्म में पंडित का किरदार मज़हर ख़ान और मिर्ज़ा का किरदार गजानन जागीरदार ने निभाया था.

ये उस दौर की फ़िल्म है, जब धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनाने की तैयारी ज़ोरों पर थी.

फ़िल्म की कहानी ये थी कि हिंदू मुसलमान दो दोस्त कैसे बांध बनाने आए इंजीनियर के मंसूबों के चलते दुश्मन बन जाते हैं. ये दुश्मनी तब ख़त्म होती है, जब सब्र और गाँव का नया बांध दोनों टूट जाते हैं.

1946 में पीएल संतोषी की 'हम एक हैं' भी ऐसी फ़िल्म है. फ़िल्म में ज़मींदार मां के किरदार में दुर्गा खोटे तीन अलग धर्म के बच्चों को पालती हैं.

ये तीनों बच्चे अपने-अपने धर्म को मानते हुए आगे बढ़ते हैं. 'हम एक हैं' फ़िल्म से देवानंद ने अपने करियर की शुरुआत की थी.

1959 में फ़िल्म 'धूल का फूल' की कहानी में एक मुसलमान शख्स अब्दुल जंगल में मिले बच्चे को पालता है और इस 'नाजायज़' बच्चे के कारण ख़ुद भी समाज से बेदखल होता है.

अब्दुल बच्चा पालते हुए फ़िल्माए गीत में कहता है- ''तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा...'' क्या ऐसा कोई नया गाना या डायलॉग बीते कुछ सालों में आपको सुनाई दिया?

इसी लिस्ट में 'अमर, अकबर, एंथनी' की ज़िंदगी जीते तीन भाइयों की कहानी भी पर्दे पर दिखी.

ये भी पढ़ें:- अमर, अकबर, एंथनी फ़िल्म का वो सीन

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हिंदू-मुसलमान दंगों या बँटवारे के दुखों को बयां करती कई और फ़िल्में भी बनी हैं. ये लिस्ट काफ़ी लंबी हो सकती है. लेकिन अपना असर छोड़ देने वाली फ़िल्में गिनती की ही हैं.

बलराज साहनी की फ़िल्म 'गर्म हवा' विस्थापन के दर्द को बयाँ करती है. फ़िल्म का असरदार क्लाइमेक्स धर्म के आधार पर देश छोड़ने से ज़्यादा ज़रूरी रोज़गार जैसी ज़रूरतों को दिखाता है.

ऐसी कुछ और फ़िल्में 'पिंजर', 'ट्रेन टू पाकिस्तान' और 'तमस' भी हैं.

बाबरी विध्वंस के बाद मणि रत्नम की फ़िल्म 'बॉम्बे', 2002 दंगों की पृष्ठभूमि पर बनी 'फ़िराक़', 'देव' और 'परज़ानिया' जैसी फ़िल्में भी आईं.

'बॉम्बे' फ़िल्म के क्लाइमेक्स में क़त्ल-ए-आम मचाते हाथों से हथियार फेंकवाकर हाथ से हाथ मिलवाए गए.

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सिनेमा स्टडीज़ की प्रोफ़ेसर इरा भास्कर बीबीसी हिंदी से कहती हैं, ''बॉम्बे फ़िल्म के अंत में एक चाहत के तौर पर ये दिखाया गया कि दो संप्रदायों के बीच सौहार्द होना चाहिए. हाथ से हाथ मिलाते सीन से हिंदू-मुस्लिम समस्या दूर नहीं होगी. लेकिन तब आप ये सोच पाते हैं कि ऐसा होना चाहिए, मिल-जुलकर रहना चाहिए.''

इन फ़िल्मों में उस दौर की सच्चाई दिखाने की कोशिश हुई.

फ़िल्म 'सरफ़रोश' के किरदार इंस्पेक्टर सलीम (मुकेश ऋषि) को एसीपी अजय सिंह राठौड़ (आमिर ख़ान) से ये कहना पड़ा, ''बचाने के लिए 10 नहीं, 10 हज़ार सलीम मिलेंगे. अगर आप भरोसा करेंगे तो.... फिर कभी किसी सलीम से ये मत कहना कि ये मुल्क उसका घर नहीं.''

2006 की फ़िल्म 'रंग दे बसंती' में लक्ष्मण पांडे (अतुल कुलकर्णी) और असलम (कुणाल कपूर) का किरदार हिंदू-मुसलमान की दूरियाँ दिखाने से शुरू हुआ और वक़्त के साथ नज़दीकियों में बदला.

ऐसे वक्त में जब फ़िल्मों की रिलीज़ पर संकट के बादल छाए रहते हैं और मुक़दमों का डर बना रहता है. तब 'रंग दे बसंती' से जुड़ा एक क़िस्सा बताना ज़रूरी है.

'रंग दे बसंती' की कहानी सत्ता और नेता-बाबू गिरोह पर उंगली उठाती है.

वायुसेना के लड़ाकू विमानों की दुर्घटना और देश के रक्षा मंत्री पर तीखी टिप्पणी करती इस फ़िल्म को रिलीज़ से पहले तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी समेत सेना प्रमुखों को दिखाया गया.

फ़िल्म देखकर उठे प्रणब मुखर्जी बोले- 'मेरा काम देश की रक्षा करना है न कि फ़िल्मों को सेंसर करना... बच्चों ने अच्छा काम किया है.'

ये बात उस फ़िल्म के लिए देश के तत्कालीन रक्षा मंत्री कह रहे थे जिस फ़िल्म की कहानी में रक्षा मंत्री को ही भ्रष्टाचार के चलते गोली मार दी गई थी.

2002 दंगों के बैकग्राउंड वाली 'काई पो चे' फ़िल्म भी असर छोड़ने में सफल रही.

नफ़रत की आग किस क़दर झुलसा देती है और मन को आत्मग्लानि से भर देती है... 'काई पो चे' फ़िल्म के किरदार इसके बेहतरीन उदाहरण हैं.

ख़ासकर एक मुसलमान बच्चे अली को बचाने की कोशिश में जान गँवाता ईशान और अंत में ग्लानि से भरा ओमी... जिसके गिरते आंसू बताते हैं कि बड़ी से बड़ी आग कई बार आंसू की एक बूंद से बुझ जाती है.

2012 की 'ओह माई गॉड' और विवादों में रही 'पीके' जैसी फ़िल्में भी धर्म को मानने वाले लोगों के बीच दूरियाँ बढ़ाने वालों का पर्दाफ़श करती है.

हाल के दिनों में हुए फ़िल्मी विवादों पर प्रोफ़ेसर इरा बोलीं, ''हम क्या ईरान और चीन जैसे बन जाना चाहते हैं? जब 100 सालों के भारतीय सिनेमा में ये नहीं हुआ तो अब क्यों हो रहा है, ये सोचना चाहिए.''

ये भी पढ़ें:- RRR: फ़िल्म के किरदारों की असल कहानी

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अब सवाल ये कि 2022 में कौन सी फ़िल्में रहीं जिनके केंद्र या परछाईं में कहीं न कहीं धर्म रहा और क्या संदेश देने की कोशिश हुई या सोशल मीडिया के दौर में जनता में क्या संदेश गया? ऐसी ही कुछ फ़िल्मों पर एक नज़र:-

'बाहुबली' फ़िल्म बनाने वाले राजामौली की फ़िल्म 'RRR' के एक दृश्य में एनटीआर जूनियर और राम चरण के बीच एक संवाद है.

इस सीन में राजू (राम चरण) अपने दोस्त अख़्तर (एनटीआर जूनियर) के लिए जेनिफ़र की गाड़ी को कील बिछाकर रोकता है.

गाड़ी रुकने यानी टायर पंचर होने की बात पता चलते ही अख़्तर कहता है- 'अब मैं उसका पंचर ठीक कर दूँगा तो वो शुक्रिया बोलेगी और फिर हम बात कर लेंगे.'

अख़्तर जेनिफ़र से कहता भी है- 'मेरी दुकान पास में ही है, पाँच मिनट में ही ठीक कर दूंगा.'

पूरे संदर्भ के साथ देखें तो इस सीन में बस फ़िल्म के दो किरदार मिलाने की संभावनाएं दिखती हैं.

चूंकि मुसलमानों के पंचर का काम करने से जुड़े असंख्य मैसेज या टिप्पणियां आपने पढ़ी होंगी, इसलिए लोगों ने इस सीन की अलग व्याख्या की.

https://twitter.com/iamparodyyy/status/1511280739387834372

कुछ सोशल मीडिया पोस्ट में राजामौली को इस बात के लिए सैल्यूट किया गया कि उन्होंने मुसलमान किरदार अख़्तर से पंचर बनाने जैसा डायलॉग बुलवाया.

ये वही 'आरआरआर' फ़िल्म है जिसके अंत में आज़ादी के लिए लड़ने वाले नेताओं, क्रांतिकारियों को नमन किया गया. लेकिन महात्मा गांधी और नेहरू को जगह नहीं मिली.

वजह राजामौली के पिता और 'बजरंगीभाई जान' जैसी फ़िल्मों की कहानी लिख चुके लेखक केवी विजयेंद्र प्रसाद ने बताई, ''...क्योंकि गांधी के कारण सरदार पटेल नहीं, नेहरू प्रधानमंत्री बने और कश्मीर अभी तक जल रहा है.''

2022 में केवी विजयेंद्र प्रसाद राज्यसभा के लिए मनोनीत किए गए.

ये भी पढ़ें:- बाहुबली से अलग पहचान दिलाने वाले राजामौली की कहानी

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कश्मीर के पस-मंज़र के साथ कई फ़िल्में बनीं. जैसे- 'रोजा', 'हामिद', 'मिशन कश्मीर', 'यहाँ', 'तहान', 'हैदर', 'शिकारा'.

लेकिन 'द कश्मीर फ़ाइल्स' जैसी कामयाबी दूसरी फ़िल्मों को नहीं मिली.

वेबसाइट IMDB के मुताबिक़, 20 करोड़ के बजट से बनी 'द कश्मीर फ़ाइल्स' ने 340 करोड़ से ज़्यादा कमाई की.

'द कश्मीर फ़ाइल्स' संभवत: पहली ऐसी फ़िल्म होगी जिसको देखने की देश के प्रधानमंत्री मोदी ने अपील की.

अक़्सर फ़िल्मों या गानों पर भावनाएँ आहत होने की शिकायत करने वाले मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा हों या यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ, सब 'कश्मीर फ़ाइल्स' फ़िल्म के प्रति उत्सुक, उदार दिखे.

कई राज्यों में फ़िल्म को टैक्स फ़्री किया गया.

https://twitter.com/myogiadityanath/status/1503605180876869635

फ़िल्म 1990 में कश्मीरी पंडितों के पलायन की सच्ची घटना पर आधारित थी. फ़िल्म में दिखाया गया कि किस तरह रातों-रात कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी.

एक बड़ी आबादी को ये फ़िल्म अच्छी लगी. कहा गया कि बरसों तक कश्मीरी पंडितों की कहानी को नज़रअंदाज़ किया गया.

लेकिन फ़िल्म से संदेश क्या गया? इसे आप कई तरह से समझ सकते हैं.

एक अपने आस-पास की चर्चाओं में जो आपने सुना. या फिर जब सिनेमाघरों में 'कश्मीर फ़ाइल्स' चल रही थी, तब के सोशल मीडिया पर शेयर किए कुछ वीडियो जिसमें लोग फ़िल्म देखने के बाद रोते हुए विवेक अग्निहोत्री के पैर छूने लगे.

https://twitter.com/JayantBhandari5/status/1504209462881517568

कुछ वीडियो ऐसे भी शेयर हुए जिसमें फ़िल्म ख़त्म होते ही कुछ लोग मुसलमान लड़कियों से शादी करके बच्चे पैदा करने या फिर हिंसक मिज़ाज के साथ नज़र आए.

ये वीडियो कश्मीर मुद्दे पर ही बनी फ़िल्म 'हैदर' के डायलॉग की याद दिलाते हैं, ''इंतकाम से सिर्फ़ इंतकाम पैदा होता है.''

फिर क्या वजह रही कि जनता को कश्मीरी पंडितों पर बनी 'शिकारा' जैसी फ़िल्म रास नहीं आई और 'कश्मीर फ़ाइल्स' ख़ूब भाई?

कश्मीरी पंडित संजय काक ने बीबीसी से कहा था, '' 'द कश्मीर फ़ाइल्स' ने कहानी को ठीक वैसे कहा जैसा दक्षिणपंथी चाहते थे. 'शिकारा' इस मामले पर खरी नहीं उतरी थी इसलिए निशाने पर आई. लेकिन 'कश्मीर फ़ाइल्स' के मामले में लगता है कि पूरा इको-सिस्टम इसे दुनिया के सामने लाने पर उतारू है.''

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और सिनेमा के जानकार आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ''ये फ़िल्म इसलिए लोकप्रिय हुई क्योंकि इस सोच के लोग समाज, राजनीति में बढ़े हैं.

दक्षिणपंथ के लिए एक बहुत बड़ा काम मीडिया कर रहा है, सिनेमा उसका एक हिस्सा है. एक पूरी कैटेगिरी है जो उस सोच के लिए काम कर रही है. 'कश्मीर फ़ाइल्स' उसी सोच की नुमाइंदगी करती है. ये सच है कि 'कश्मीर फ़ाइल्स' के कुछ सीन आपको दहला देते हैं. इस फ़िल्म को नापसंद करने वाले लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि ये किसी न किसी के साथ हुआ है.

लेकिन 'कश्मीर फ़ाइल्स' एक अच्छी कला और सिनेमा नहीं है क्योंकि ये एकतरफ़ा तरीके से कहानी बयां करती है और सिर्फ़ यही नहीं हुआ, इससे मिलता-जुलता या इसके ख़िलाफ़ बहुत कुछ हुआ है. कला का काम ये भी है कि जो मानवीय पहलू हैं, जो आगे जाने में हमारी मदद करता है वो हमें दिखाए. अगर ऐसा नहीं करेंगे तो हमेशा अतीत में क़ैद रहेंगे.

प्रोपेगैंडा फ़िल्म हमेशा बुरी फ़िल्म नहीं होती है. पर 'कश्मीर फ़ाइल्स' एक बुरी प्रोपेगैंडा फ़िल्म है क्योंकि ये समाज में जोड़ने वाले तत्वों की पूरी तरह अवहेलना करती है. कमज़ोर होती जोड़ने वाली ताक़तों पर ये फ़िल्म आक्रमण करती है.''

ये 'कश्मीर फ़ाइल्स' फ़िल्म ही थी जिसे इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल के चीफ़ ज्यूरी नदाव लपिड ने 'प्रोपेगैंडा' और 'भद्दी' फ़िल्म बताया था.

प्रोफ़ेसर इरा भास्कर कहती हैं, ''मैंने क्लास में कश्मीर के बैकग्राउंड पर बनी 'हैदर' फ़िल्म पढ़ाई. फिर मैंने 'कश्मीर फ़ाइल्स' को देखा. मैं एकदम हैरान थी. पर क्या कहें. 'कश्मीर फ़ाइल्स' ने न सिर्फ सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाया बल्कि कहानी को एक तरफ़ा दिखाया. मैं जानती हूं कि कश्मीरी पंडितों का क्या अनुभव रहा. पर मुसलमानों के साथ भी ज़्यादती हुई.''

इरा भास्कर 'कश्मीर फ़ाइल्स' के प्रचार पर बोलीं, ''फ़िल्म की टिकटें फ़्री में बांटी गईं. नेताओं ने जमकर प्रचार किया. इससे ये पता चलता है कि फ़िल्म को सत्ता का समर्थन हासिल है. मैंने इतिहास में ऐसा नहीं देखा कि देश का नेता किसी फ़िल्म का ऐसे समर्थन करे. अगर विवेक अग्निहोत्री को स्पेस दिया जा रहा है तो बाकी फ़िल्म निर्माताओं को भी मौक़े मिलने चाहिए.''

वहीं फ़िल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने विवादों पर कहा था, "एक सवाल जो मैं भारत के लोगों से जानना चाहता हूं वो ये कि लोगों ने कश्मीर के नाम पर तरह-तरह की चीज़ें की हैं. बात की है. बहुत-बहुत तरह की फ़िल्में और दूसरी चीज़ें की हैं तो मुझे विश्वास था कि कश्मीर के लिए लोगों का दिल धड़कता है.

मुझे विश्वास था कि इस फ़िल्म का स्टार कश्मीर ही है. मुझे लगा कि जो लोग कश्मीर को दिन-रात भुनाते हैं, उनके दिल में इतना कश्मीर तो होगा कि वे इस बात की चिंता ना करें कि फ़िल्म में कौन से स्टार हैं और कौन से नहीं."

ये भी पढ़ें:- 'द कश्मीर फ़ाइल्स' को प्रोपेगैंडा कहने वाले नदाव लपिड

https://twitter.com/vivekagnihotri/status/1495632506363822086

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फ़िल्म 'सीता रामम' एक प्रेम कहानी है जिसमें लेफ़्टिनेंट राम को एक अनजान लड़की सीता महालक्ष्मी नाम से ख़त भेजती है.

ये असल में राजकुमारी नूरजहां होती है. दोनों एक-दूसरे से मिले, प्यार हुआ, कहानी में कश्मीर भी आया और हिंदू-मुसलमान से जुड़े मुद्दे भी आए.

ये उन चंद फ़िल्मों में से है जिसने फ़िल्म के पाकिस्तानी किरदारों को भी मानवीय और भावनात्मक पहलू के साथ दिखाया. जैसे- राम का संदेश पहुंचाने के लिए पाकिस्तानी लड़की भारत में इधर से उधर घूम रही है.

फ़िल्म के कुछ सीन में कश्मीरी पंडितों के घर जलाए जाने या फिर बचाने में मुसलमानों की कोशिशों को जैसे दिखाया गया, वो बिना क्लीशे हुए ताज़गी और सकारात्मकता से भरी महसूस होती है.

'अनाथ' लेफ़्टिनेंट राम फ़िल्म में लोगों को जोड़ता दिखा.

एक सीन में जब चरमपंथियों को मारा जाता है तो राम पास रखी क़ुरान उठाकर कहता है- अपने अगले जन्म में शायद क़ुरान का सही मतलब समझ सकोगे!

यहाँ इस बयान को उस नैरेटिव से जोड़कर सोचिए जिसमें एक बड़ी आबादी क़ुरान की अलग ही व्याख्या करके अपनी राय बनाती है.

युवाओं को कैसे धर्म के नाम पर बहकाया जाता है, फ़िल्म इस पर भी चोट करती है.

जैसे ये डायलॉग, ''मज़हब के नाम पर छिड़ी जंग जब ख़त्म हुई तो बाक़ी बचा था तो सिर्फ़ इंसान. हाथ में हथियार लेकर लड़ने वाला बस एक सिपाही है पर धर्म को हथियार बनाने वाला... राम.''

फ़िल्म 'वीर ज़ारा' की कहानी के क़रीब चलते हुए भी 'सीता रामम' नई दिखती है. जब प्रेम सामने आता है तब नूरजहां ये कहने में देर नहीं लगाती, ''अब मुझे नूरजहां नहीं... सीता कहिए.''

कथित 'लव जिहाद' के दौर में एक मुस्लिम लड़की का राम नाम के हिंदू लड़के के लिए प्रेम और पाकिस्तान की लड़की का राम के प्रति सम्मान बढ़ता जाना. 'सीता रामम' में ऐसी कई परतें भी थीं.

'सीता रामम' में राम का किरदार दुलकर सलमान और राजकुमारी नूरजहां का किरदार मृणाल ठाकुर निभा रही थीं.

प्रोफ़ेसर इरा भास्कर कहती हैं, '' 'सीता रामम' जैसी फ़िल्में सांप्रदायिक दूरियां बढ़ाने की बजाय कम करने का काम करती हैं. ये एक बहुत प्यारी फ़िल्म है जो हिंदू-मुसलमान कपल के बीच रोमांस को दिखाती है.

जब माहौल में नफ़रत बहुत ज़्यादा हो तो किसी एक सीन से नफ़रत कम नहीं हो पाती है. साथ ही हमें ये भी देखना है कि भारत का हर प्रांत एक जैसा नहीं है. दक्षिण की फ़िल्में देखें तो बहुत अच्छी फ़िल्में बनी हैं.''

ये भी पढ़ें:- सम्राट पृथ्वीराज चौहान की कहानी

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पृथ्वीराज चौहान की मौत के क़रीब 350 साल बाद लिखी 'पृथ्वीराज रासो' (रचयिता - चंद बरदाई) पर आधारित फ़िल्म सम्राट पृथ्वीराज कई बीजेपी शासित राज्यों में टैक्स फ़्री की गई.

गृह मंत्री अमित शाह ने स्पेशल स्क्रीनिंग में फ़िल्म देखी. ज़ोर-शोर से प्रचार हुआ.

कहा ये भी गया कि मुग़लों के बारे में तो ख़ूब बताया गया, लेकिन हिंदू शासकों के बारे में कोई मुकम्मल काम नहीं हुआ. न ही फ़िल्मों में हिंदू शासकों की कहानी कही गई.

लेकिन इन सबके बावजूद फ़िल्म 'सम्राट पृथ्वीराज' भीड़ नहीं जुटा पाई. आम जनता से लेकर फ़िल्म समीक्षकों तक, सबने 'सम्राट पृथ्वीराज' फ़िल्म को नकारा.

आलोचकों ने कहा कि 'पृथ्वीराज' उन फ़िल्मों में से एक है जो मुसलमानों को बाहरी और क्रूर आक्रांता की छवि से जोड़ने का काम करती है.

इतिहासकार अरुप बनर्जी ने बीबीसी से कहा था, ''ऐसी फ़िल्में एक ख़ास इरादे के तहत बनाई जा रही हैं. पृथ्वीराज अपनी सीमा की रक्षा करने के लिए लड़े थे न कि किसी मुसलमान आक्रमणकारी के ख़िलाफ़.

ऐसे में किसी राजनीतिक पार्टी की रुचि को ध्यान में रखते हुए पृथ्वीराज चौहान का इस्तेमाल करना ग़लत है. फ़िल्म का मकसद लोगों की इस सोच को पक्का करना था कि हिंदुओं ने मुसलमानों पर विजय हासिल की थी.''

फ़िल्म समीक्षक शुभ्रा गुप्ता कहती हैं, ''ऐसी कई फ़िल्में अतीत के गौरव का गुणगान करने के लिए बनाई जाती हैं ताकि दर्शक उसमें खो जाए और जो आज हो रहा है उस पर उनका ध्यान ना जाए. ये सिर्फ़ भारत में ही नहीं, दुनिया भर में हो रहा है.''

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ''अब ऐसी पीरियड फ़िल्में बनाई जा रही हैं जो बहुसंख्यकों की भावनाओं को छूने काम करती हैं. 'सम्राट पृथ्वीराज' जैसी कई फ़िल्में इसका उदाहरण हैं. ऐसी कई फ़िल्में बीते वक़्त में बनीं जो मुसलमान शासकों की नकारात्मक छवि दिखाती हैं.

ये फ़िल्में ऐसे किस्से चुनती हैं जो इतिहास सम्मत तो हैं ही नहीं. लेकिन ये ग़लत किस्म का इतिहास पेश करती हैं. साथ ही ये समाज में पहले से मौजूद अंतर्विरोध को बढ़ाती हैं. ऐसी फ़िल्मों में ऐसे नायकों को नहीं चुना जाता जो जोड़ने की बात करते हैं.''

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2022 में कुछ और फ़िल्में भी आईं. इन कहानियों के केंद्र में धर्म तो नहीं रहा. लेकिन कुछ उम्मीदें दिखीं.

इस लिस्ट में पहला नाम फ़िल्म 'लाल सिंह चड्ढा' का है. फ़िल्म के कई सीन में 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और बाबरी विध्वंस के बाद हुए दंगों और 1993 मुंबई बम धमाकों का ज़िक्र हुआ. हालांकि फ़िल्म में 2002 दंगों का ज़िक्र नहीं आया.

आमिर ख़ान यानी लाल सिंह चड्ढा किरदार की माँ दंगे होने पर अपने लाल को घर में रहने को बोलती हैं- बाहर नहीं जाना, बाहर मलेरिया फैला हुआ है.

लेकिन इस फ़िल्म में भी मोहम्मद भाई किरदार के सहारे एक पाकिस्तानी के भारत में रहने और इंसानी तौर पर बेहतरी की ओर बढ़ने की कहानी पिरोई गई है.

दिलजीत दोसांझ की फ़िल्म 'जोगी' 1984 सिख दंगों की कहानी है जो उस दौर की तकलीफ़ों को बयां करती है.

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अब सवाल ये कि फ़िल्म इंडस्ट्री कितनी बदली और फ़िल्मों से धार्मिक सौहार्द बढ़ाने की बात करना कितना सही या कितना ग़लत?

प्रोफ़ेसर इरा भास्कर कहती हैं, ''आप ये देख सकते हैं कि इतनी सारी चीज़ें हो रही हैं, लेकिन मुख्यधारा की फ़िल्मों में वो नज़र नहीं आ रहा. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर दबाव फ़िल्म निर्माताओं पर है. फ़िल्में अगर बन भी रही हैं तो बहुसंख्यकवाद की राजनीति को ध्यान में रखकर.

कुछ छोटी फ़िल्में भी हैं जो ज़रूरी मुद्दे और सवाल उठाते हुए बन रही हैं. मुख्यधारा में 'मुल्क' जैसी फ़िल्में तो बनती हैं, लेकिन बड़े स्तर पर नहीं.''

इरा के मुताबिक़, ''फ़िल्में सिर्फ़ मनोरजंन का ज़रिया नहीं हैं, ये एक कला है और फ़िल्म निर्माताओं की ज़िम्मेदारी है कि समाज के लिए ज़रूरी मुद्दों पर बात की जाए.''

प्रोफ़ेसर आशीष कहते हैं, ''हिंदी सिनेमा में व्यावसायिक सिनेमा की बढ़त हुई है. लेकिन गोविंद निहलानी, श्याम बेनेगल जैसे बड़े फ़िल्मकारों की तादाद घटी है.''

ये भी पढ़ें:- साउथ की फ़िल्मों के बॉलीवुड रीमेक का फ़ॉर्मूला क्यों फ़ेल हो रहा है?

धार्मिक दूरियों को ख़त्म करने में फ़िल्में कितना बड़ा रोल अदा कर सकती हैं?

इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर इरा बोलीं, ''धर्मों के बीच की खाई को बढ़ाने या भरने में फ़िल्में अहम साबित हो सकती हैं. फ़िल्में राजनीतिक समाधान नहीं दे सकतीं, लेकिन सोच तो बदल सकती हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो मौजूदा सरकार फ़िल्मों में इतना निवेश क्यों कर रही है? सोशल मीडिया से लेकर फ़िल्मों तक में वो अपनी विचारधारा का प्रसार कर रहे हैं.''

इरा कहती हैं, ''हिंदी में जो मुख्यधारा का राजनीतिक माहौल है वो मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत से भरा है. ऐसी फ़िल्में बनना मुश्किल है जो दूरियों को कम करने का काम करें.

अगर ये फ़िल्में बन भी जाएं तो किसी न किसी तरह की दिक़्क़त से जूझेंगी. कई बड़े अभिनेता वही बातें दोहरा रहे हैं जो टॉप लीडरशीप कहती है. वो अपने आपको इससे अलग नहीं रख रहे हैं. एक कलाकार के तौर पर जब आपको ज़रूरी चीज़ों पर बात करनी चाहिए, तब आप चुप्पी बरतते हैं.''

ऐसा ही कुछ प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी भी कहते हैं, ''अब आप देखिए कि वीर हमीद पर आज तक कोई फ़िल्म नहीं बनी. ऐसे लोगों की कोई बात नहीं करेगा जिसने सच्चे बेटे का फ़र्ज़ अदा किया. साथ ही उन हिंदुओं की बात भी नहीं करेगा जिन्होंने ग़द्दार की भूमिका निभाई.

सिनेमा के अर्थशास्त्र ने उसे बहुत प्रभावित किया है. फ़िल्म देखने वाली एक बड़ी तादाद मिडिल क्लास हिंदुओं की है. ऐसे में सिनेमा भी उसको ध्यान में रखते हुए बनाया जा रहा है.

अब सेकुलर सिनेमा कम हुआ है. मेरा मानना है कि राजनीतिक, समाजिक शक्तियां समाज और राजनीति में कमज़ोर होंगी, तभी वो सिनेमा बदलेगा. ये एक ऐसी कला है जो दर्शकों की रुचि से ही प्रभावित होती है.''

धर्मों की दूरियां अक़्सर दंगों की शक्ल लेती हैं. ऐसे में दंगों से बचाने और धर्म मानने वाले लोगों के बीच क़रीबियां बढ़ाने का एक तरीका 'मॉर्डन लव मुंबई' सिरीज़ की एक कहानी 'बाई' में समझाने की कोशिश होती है.

कहानी के एक सीन में घर की बुज़ुर्ग दादी जब दंगाइयों के लिए गेट खोलती है तो वो लौट जाते हैं.

बाद में जब बाई से पूछा जाता है कि दंगाइयों से क्या कहा था? तो जवाब मिलता है- ''पैसे दिए थे. अक़्सर नफ़रत फैलाने वाले लोग बिकाऊ होते हैं. पैसे दिए, चले गए.''

ये भी पढ़ें:-बॉक्स ऑफ़िस 2022: किन फ़िल्मों ने मचाया धमाल और कौन-सी फ़िल्में पिट गईं

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English summary
Hindi movies released based on religion in 2022
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