गुजरात में 3/1 के स्कोर से पिछड़ रही कांग्रेस को हार्दिक के आने से होगा फायदा?
नई दिल्ली- पिछले महीने भर से गुजरात के कांग्रेसी विधायकों में भगदड़ सी मची हुई है। एक के बाद एक विधायक हाथ का साथ छोड़कर बीजेपी का कमल थाम रहे हैं। लेकिन, देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए फिर भी मुस्कुराने का मौका है, क्योंकि 1961 के बाद उसने गुजरात की धरती पर कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक आयोजित करने का मौका निकाला है। खास बात ये है कि इसी दौरान पार्टी ने राज्य के पाटीदार नेता का हार्दिक स्वागत भी किया है। सवाल ये उठता है कि क्या कांग्रेस में जिस तरह से विधायकों को गंवाने का सिलसिला शुरू हुआ है, उसकी भरपाई हार्दिक पटेल के कांग्रेस में शामिल होने से हो सकेगी?
पाटीदार नेता का कांग्रेस में 'हार्दिक' स्वागत का मकसद
मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हार्दिक पटेल दोनों ही गुजरात के सबसे बड़े क्राउड पुलर माने जाते हैं। इस बात में भी कोई शक नहीं कि 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी की छठी जीत का आंकड़ा सिमट कर महज दो अंकों में रह गया, तो उसके पीछे भी हार्दिक पटेल एक बड़ा कारण माने गए थे। माना जा रहा है कि हार्दिक पटेल जामनगर सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे। वे गुजरात विधानसभा के दौरान भी चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन तब उनकी उम्र कम पड़ गई थी। तब उन्होंने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कांग्रेस के लिए काम किया और उनके प्रभाव से पाटीदार युवाओं के एक वर्ग से कांग्रेस को समर्थन भी मिला। इसी के चलते लगातार 6ठी बार भी राज्य की सत्ता में बीजेपी की वापसी तो हुई, लेकिन उसे दो अंकों में पहुंचने के लिए भी बहुत संघर्ष करना पड़ गया। 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य में बीजेपी का वोट शेयर 60.11% था, जो घटकर 2017 के विधानसभा चुनाव में महज 49.05% रह गया। वहीं कांग्रेस का वोट शेयर 33.45% से बढ़कर 41.44% तक पहुंच गया। असेंबली की 182 सीटों में से बीजेपी को 99 और कांग्रेस को 77 सीटें मिलीं। जबकि, कहा जाता है कि ये आंकड़ा भी तब आया जब प्रधानमंत्री मोदी ने प्रचार में पूरा जोर लगा दिया।
जाहिर है कि कांग्रेस की उम्मीदें अब हार्दिक से और भी बढ़ चुकी हैं, लेकिन वो उसे सीटों में कितना बदल पाएंगे, यह अंदाजा लगाना अभी बहुत दूर की कौड़ी है।
गुजरात में कांग्रेस विधायकों की भगदड़
मगर ये भी हकीकत है कि दिसंबर 2017 से मार्च 2019 तक नर्मदा में बहुत पानी बह चुका है। तब कांग्रेस ने भले ही मोदी को उनके ही गढ़ में चुनौती दी थी, लेकिन आज वहां उसे अपना घर भी संभालना मुश्किल हो रहा है। मंगलवार को अहमदाबाग में कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक शुरू होने से पहले एक खबर ने राज्य की सियासत में सनसनी मचा दी। कहा गया कि कच्छ के रापर से कांग्रेस विधायक संतोक आरेथिया ने भी इस्तीफा दे दिया है। बाद में यह खबर पूरी तरह अफवाह निकली। लेकिन, यह अफवाह जंगल की आग की तरह इसलिए फैली, क्योंकि महीने भर में 4 विधायक कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। जवाहर चावड़ा,परषोत्तम साबरिया, वल्लभ धाराविया और आशाबेन पटेल कांग्रेस से निकल बीजेपी के सिपाही बन चुके हैं। इसमें अहिरों के नेता चावड़ा तो इस्तीफा देकर फौरन विजय रुपाणी सरकार में मंत्री भी बन गए हैं।
गौरतलब है कि आम चुनाव में मोदी लहर के चलते गुजरात में बीजेपी ने 26 की 26 सीटें अपने नाम कर ली थी। इसलिए, बीजेपी इस बार भी कोई जोखिम नहीं लेना चाहती और कांग्रेस विधायकों का बीजेपी में शामिल होना उसी से जोड़कर देखा जा रहा है।
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पाटीदार आंदोलन की धार हो चुकी है कुंद
अगस्त 2015 से पहले हार्दिक पटेल का देश की राजनीति में कोई वजूद नहीं था। लेकिन, पाटीदार आरक्षण की मांग को लेकर उन्होंने जो आंदोलन खड़ा किया, उसने गुजरात के ही नहीं, देश के बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों को चौंका दिया। उस आंदोलन के समय हार्दिक की लोकप्रियता चरम पर थी, लेकिन उनके चुनाव लड़ने की उम्र नहीं हुई थी। ना ही वो ये मानने के लिए तैयार थे कि उनकी मुहिम का कोई राजनीतिक मकसद है। लेकिन, महज दो साल के भीतर ही उनके राजनीतिक मकसद से पर्दा उठना शुरू हो चुका था। पाटीदार आंदोलन के उनके बेहद करीबियों ने ही आंदोलन के फंड की हेरफेर के आरोप लगाने शुरू कर दिए थे।
2017 में विधानसभा चुनाव आते-आते उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा जगजाहिर हो गई। खबरें यहां तक उड़ीं कि पाटीदार आंदोलन में अहमदाबाद की रैली में जो उन्होंने 5 लाख से ज्यादा की भीड़ जुटाई थी, उसके पीछे विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया का भी रोल था, जो मोदी से अपनी सियासी हिसाब चुकता करना चाहते थे। इसलिए, हार्दिक विधानसभा चुनावों को उतना प्रभावित नहीं कर पाए, जितना आंदोलन की शुरुआत के दौरान उनसे लोगों ने उम्मीद लगा रखी थी। धीरे-धीरे अपने समर्थकों पर उनकी पकड़ और ढीली पड़ने लगी। हार्दिक के पाटीदार आरक्षण की मांग की बची-खुची धार नरेंद्र मोदी सरकार ने तब कुंद कर दी, जब उन्होंने आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था कर दी।
हार्दिक की राजनीति का प्रभाव
गुजरात विधानसभा की 52 सीटों पर पाटीदार मतदाताओं की संख्या 20% से ज्यादा है। 2012 के चुनाव में बीजेपी ने इनमें से 36 और कांग्रेस ने 14 सीटें जीती थीं। लेकिन, 2017 में बीजेपी की सीट घटकर 28 रह गई, जबकि, कांग्रेस 23 पर पहुंच गई। लेकिन, इसका एक विपरीत असर भी पड़ा। पाटीदार दबदबे से परेशान जातियां पाटीदारों के खिलाफ गोलबंद हो गईं, जिसके कारण पाटीदार विधायकों की संख्या 2012 के 47 से घटकर 2017 में 44 ही रह गई। यही नहीं, पाटीदारों के एक वर्ग की नाराजगी के बावजूद बीजेपी सत्ता में कायम रही, जबकि मोदी ने पाटीदार आंदोलन के बाद भी पाटीदार मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल को हटाकर एक गैर-पाटीदार विजय रुपाणी को मुख्यमंत्री बनाया था और उन्हीं के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव के मैदान में उतरी थी।
दरअसल, बुजुर्ग पाटीदार जो कि परंपरागत तौर पर कांग्रेस विरोधी रहे हैं, उन्हें भी हार्दिक की राजनीति शायद रास नहीं आती है। इसके पीछे 1985 का वह कांग्रेसी फॉर्मूला है, (क्षत्रिय,हरिजन,आदिवासी-मुस्लिम या KHAM) जिसने 2017 से पहले तक आमतौर पर पाटीदारों को कांग्रेस से दूर ही रखा था। सूरत और मेहसाणा जैसे पाटीदार प्रभाव वाले क्षेत्र में बीजेपी की जीत से साफ नजर आता है कि पाटीदारों के हर वर्ग में हार्दिक की पैठ अभी भी नहीं है। पाटीदार आंदोलन समर्थित कई उम्मीदवारों का उनके गढ़ में हार जाना भी यही संकेत देता है।
गुजराती अस्मिता का सवाल
यह भी सच है कि पाटीदारों के लिए राष्ट्र और राज्य की अस्मिता हमेशा ही अहम रहा है। आमतौर पर यह समाज समृद्ध, शक्तिशाली और घोर राष्ट्रवादी है। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस का मुस्लिमों के पक्ष में झुकाव ही पाटीदारों को कांग्रेस से दूर रखता था। इस लिहाज से पाटीदारों को राजनीतिक रूप से बीजेपी ज्यादा सूट करती है। सबसे बड़ी बात कि 18 साल में नरेंद्र मोदी का जो राजनीतिक वजूद बना है, वह राज्य के लोगों के लिए जात-पात से ऊपर गुजराती अस्मिता से जुड़ चुका है। वे राष्ट्रवादी तो हैं ही, पटेलों के सभी बड़े नेताओं से उनके बहुत ही अच्चे ताल्लुकात हैं। सरदार पटेल की सबसे बड़ी प्रतिमा बनाकर नरेंद्र मोदी ने जो मैसेज देने की कोशिश की है, वह भी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा है। जबकि, वो सरदार पटेल के लिए कांग्रेस नेतृत्व की उपेक्षा को उजागर करने में भी कहीं न कहीं सफल रहे हैं। खास बात ये है कि यह चुनाव देश का प्रधानमंत्री चुनने जा रहा है और हार्दिक पटेल उसके दावेदार नहीं हैं। लिहाजा अगर पाटीदारों को हार्दिक या नरेंद्र मोदी में से एक को चुनना होगा, तो उनके पास विकल्प सीमित होगा।
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