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सआदत हसन मंटोः जिसने कहा मेरे अफ़साने नहीं, ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है

किस्सा मंटो की कहानी 'ठंडा गोश्त' का, जिसे अश्लील बता कर मुकदमा चलाया गया और मंटो को तीन महीने क़ैद की सज़ा सुनाई गई. मंटो की 119वीं जयंती पर विशेष लेख.

By BBC News हिन्दी
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सआदत हसन मंटो
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सआदत हसन मंटो

उर्दू की बहुत-सी किताबें ऐसी हैं जिन पर विभिन्न आरोपों में मुक़दमे चले. वो किताबें ज़ब्त हुई और कुछ लेखकों को क़ैद या जुर्माना भरने जैसी मुश्किलें भी झेलनी पड़ी.

इन किताबों में, डिप्टी नज़ीर अहमद की 'उम्महात-उल-उम्मा', मुंशी प्रेमचंद की 'सोज़-ए-वतन' और प्रगतिशील कथा लेखकों का संग्रह 'अंगारे' सबसे ऊपर है.

लेकिन सआदत हसन मंटो इन सभी लेखकों से भी आगे निकल गए.

पाकिस्तान के गठन से पहले, मंटो के तीन कहानियों, 'काली सलवार', 'धुंआ' और 'बू' पर अश्लीलता के आरोप में मुक़दमे चले. इन मुक़दमों में सज़ाएं भी हुई. लेकिन हर बार अपील करने पर अदालत ने मंटो और उनकी कहानियों को अश्लीलता के आरोप से बरी कर दिया.

पाकिस्तान के बनने के बाद सआदत हसन मंटो ने जो पहली कहानी लिखी उसका नाम 'ठंडा गोश्त' था. यह न सिर्फ पाकिस्तान की स्थापना के बाद लिखी गई उनकी पहली कहानी थी, बल्कि अपनी विशेष प्रकृति के संदर्भ में भी इसका बहुत महत्व है.

मंटो की यह मशहूर कहानी लाहौर के अदबी महानामा (साहित्यिक मासिक) 'जावेद' में मार्च 1949 के संस्करण में प्रकाशित हुई थी.

दैनिक 'इंकलाब' में प्रकाशित होने वाली एक ख़बर के अनुसार, 30 मार्च को पत्रिका के कार्यालय पर छापा मारा गया और पत्रिका की सभी प्रतियों को ज़ब्त कर लिया गया.

ख़बर में बताया गया है कि छापा मारने का कारण 'ठंडा गोश्त' का प्रकाशन था. इस खबर में इस बात पर भी आश्चर्य व्यक्त किया गया था कि यह पत्रिका एक दिन पहले ही मार्केट में आई थी.

7 मई, 1949 को, पंजाब सरकार की प्रेस ब्रांच ने सआदत हसन मंटो के अलावा 'जावेद' के संपादक आरिफ अब्दुल मतीन, और प्रकाशक, नसीर अनवर के ख़िलाफ़ ठंडा गोश्त प्रकाशित करने के कारण मुक़दमा दर्ज करा दिया.

मंटो ने ठंडा गोश्त पर चलने वाले मुक़दमे का पूरा विवरण इसी नाम (ठंडा गोश्त के नाम) से छपने वाले कहानी संग्रह की प्रस्तावना में 'ज़हमत मेहर दरख़्शां' के नाम से लिखा है.

मंटो लिखते हैं कि "जब मैं भारत की नागरिकता छोड़कर जनवरी 1948 में लाहौर आया, तो मेरी मानसिक स्थिति तीन महीने तक अजीब रही. मुझे समझ में नहीं आता था कि मैं कहाँ हूँ? भारत में हो या पाकिस्तान में. बार-बार दिमाग में उलझन पैदा करने वाला सवाल गूंजता, क्या पाकिस्तान का साहित्य अलग होगा? यदि होगा, तो कैसे होगा?"

वह लिखते हैं, कि "वह सब कुछ जो अविभाजित भारत में लिखा गया है, उसका मालिक कौन है? क्या इसका भी बंटवारा किया जाएगा? क्या भारतीयों और पाकिस्तानियों की बुनियादी समस्याएं एक जैसी नहीं हैं? क्या हमारा देश धार्मिक देश है? देश के तो हम हर हाल में वफादार रहेंगे, लेकिन क्या हमें सरकार की आलोचना करने की इजाज़त होगी? क्या आज़ादी के बाद, यहां के हालात गोरों की सरकार के हालात से अलग होंगे?"

रोज़नामा इंकलाब में प्रकाशित कहानी
Rozmana Inquilaab
रोज़नामा इंकलाब में प्रकाशित कहानी

भारत विभाजन के बाद मन में उठे सवाल

उसके बाद मंटो, फैज़, चिराग़ हसन हसरत, अहमद नदीम क़ासमी और साहिर लुधियानवी से मिले लेकिन कोई भी उनके सवालों का जवाब नहीं दे सका.

उन्होंने हल्के-फुल्के लेख लिखने शुरू किए जो 'इमरोज़' में प्रकाशित हुए थे. लेखों का यह संग्रह बाद में 'तल्ख़, तरुश और शीरीं' शीर्षक से प्रकाशित हुआ.

उसी समय में अहमद नदीम कासमी ने लाहौर से 'नुक़ूश' का प्रकाशन शुरू किया. कासमी जी के कहने पर मंटो ने पाकिस्तान में अपनी पहली कहानी 'ठंडा गोश्त' लिखी.

मंटो लिखते हैं कि क़ासमी साहब ने यह कहानी मेरे सामने पढ़ी. कहानी खत्म करने के बाद, उन्होंने मुझसे माफ़ी भरे लहजे में कहा, "मंटो साहब, माफ़ कीजिए कहानी बहुत अच्छी है, लेकिन नुक़ूश के लिए बहुत गरम है."

कुछ दिनों के बाद कासमी के कहने पर मंटो ने एक और कहानी लिखी, जिसका शीर्षक था 'खोल दो'.

यह कहानी नुक़ूश में प्रकाशित हुई थी, लेकिन सरकार ने छह महीने के लिए नुक़ूश का प्रकाशन बंद कर दिया. समाचार पत्रों में सरकार के इस कदम का विरोध हुआ, लेकिन सरकारी आदेश नहीं बदला गया.

जगदीश चंद्र वाधवन ने अपनी पुस्तक 'मंटो नामा' में लिखा है कि अहमद नदीम कासमी के मना करने के बाद, मंटो ने 'ठंडा गोश्त' 'अदब लतीफ़' के संपादक चौधरी बरकत अली को दे दी, लेकिन प्रेस के मना करने के कारण यह कहानी उस पत्रिका में प्रकाशित नहीं हो सकी.

इसके बाद मंटो ने यह कहानी मुमताज शीरीं को भेजा, लेकिन उन्होंने भी इसे पसंद करने के बावजूद प्रकाशित करने से मना कर दिया.

मुमताज शीरीं के बाद, आरिफ़ अब्दुल मतीन ने मंटो से ज़िद करके 'ठंडा गोश्त' को अपनी पत्रिका जावेद के लिए मांगा. उस समय, यह कहानी 'सवेरा' के मालिक चौधरी नज़ीर अहमद के पास थी, इसलिए मंटो ने उनके नाम एक रुक्का (पत्र) लिख दिया, "ये 'जावेद' वाले अपनी पत्रिका जब्त कराना चाहते हैं, कृपया उन्हें 'ठंडा गोश्त' का मसौदा दे दीजिये."

आरिफ़ अब्दुल मतीन ने यह कहानी ले ली और इसे अपनी साहित्यिक पत्रिका जावेद के मार्च 1949 के संस्करण में प्रकाशित कर दिया.

मंटो ने लिखा है कि एक महीने बाद जावेद के यहां छापा पड़ा, जबकि इंक़लाब में छपी ख़बर के मुताबिक, यह छापा जावेद के प्रकाशन के अगले ही दिन पड़ गया.

मंटो का बयान ज़्यादा सही लगता है, क्योंकि उस समय तक जावेद का अंक लाहौर और लाहौर के बाहर वितरित हो चुका था. जावेद के कार्यालय पर प्रेस ब्रांच के इंचार्ज चौधरी मोहम्मद हुसैन के इशारे पर यह छापा मारा गया था.

मंटो लिखते हैं कि "हालांकि बुढ़ापे के कारण चौधरी मोहम्मद हुसैन के हाथ कमज़ोर हो चुके थे, लेकिन उन्होंने एक ज़ोर का झटका दिया और पुलिस की मशीनरी हरकत में आ गई."

'ठंडा गोश्त' मंटो के लिए बहुत गरम कहानी साबित हुआ. इसने मंटो जैसे सख़्त इंसान के भी सारे ज़ोर निकाल कर रख दिए.

मामला प्रेस एडवाइज़री बोर्ड के सामने पेश हुआ, जिसके कनवीनर पाकिस्तान टाइम्स के संपादक फैज़ अहमद फैज़ थे और बोर्ड में सिविल एंड मिलिटरी गजट के एफ़डब्ल्यू बोस्टन, ज़मींदार के मौलाना अख्तर अली, नवा-ए-वक़्त के हमीद निज़ामी, सफीना के वकार अंबालवी और जदीद निज़ाम के अमीनुद्दीन सहराई शामिल थे.

चौधरी मोहम्मद हुसैन ने बोर्ड के समक्ष पत्रिका के अन्य विद्रोही और भड़काऊ लेख प्रस्तुत किए, मगर बोर्ड ने इन आरोपों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. लेकिन 'ठंडा गोश्त' पर आकर बात अटक गई.

फ़ैज़ साहब ने इसे गैर-अश्लील कहा लेकिन मौलाना अख्तर अली, वकार अंबालवी और हमीद निज़ामी ने इसे 'अभिशप्त' कहा.

निर्णय यह हुआ कि मामले को अदालत पर छोड़ दिया जाये.

आरिफ़ अब्दुल मतीन
Arif Abdul Mateen
आरिफ़ अब्दुल मतीन

14 लोगों की हुई गवाही

कुछ दिनों बाद, मंटो और जावेद के प्रकाशक नसीर अनवर और संपादक, आरिफ़ अब्दुल मतीन को गिरफ्तार कर लिया गया. मंटो की ज़मानत उनके दोस्त शेख़ सलीम ने दी थी.

मशहूर शायर और क़ानून के माहिर मियां तसद्दुक हुसैन खालिद ने ख़ुद भी इस मुक़दमे की पैरवी करने की पेशकश की, जिसे मंटो ने शुक्रिया के साथ स्वीकार कर ली थी.

मुक़दमा मजिस्ट्रेट एएम सईद की अदालत में पेश हुआ. अभियोजन पक्ष की तरफ से श्री मोहम्मद याकूब, मोहम्मद तुफैल हलीम, जिया-उद-दीन अहमद और कुछ अन्य लोग पेश किये गए.

इस मामले के पक्ष में सफाई देने के लिए 30 गवाहों की सूची पेश की गई, तो मजिस्ट्रेट ने कहा, "मैं इतनी बड़ी भीड़ को नहीं बुला सकता."

बहुत विचार-विमर्श के बाद, वह 14 गवाहों को बुलाने के लिए सहमत हुए, जिनमें से कुल सात गवाह अदालत के सामने पेश हुए.

इन गवाहों में सैयद आबिद अली आबिद, अहमद सईद, डॉक्टर खलीफा अब्दुल हकीम, डॉक्टर सईदुल्लाह, फैज़ अहमद फैज़, सूफी गुलाम मुस्तफा तबस्सुम और डॉक्टर आई लतीफ ने मंटो के पक्ष में बयान दर्ज कराए.

अदालत की तरफ से चार गवाह, ताजवर नजीबाबादी, आगा शोरिश कश्मीरी, अबू सईद बज्मी और मोहम्मद दीन तासीर पेश हुए.

पहले तीन गवाहों ने कहानी को "अपमानजनक, गंदा और आपत्तिजनक" बताया, जबकि डॉक्टर तासीर का यह कहना था कि यह कहानी साहित्यिक तौर पर ख़राब है, लेकिन साहित्यिक है.

उनका कहना था कि कुछ ऐसे शब्द हैं जिन्हें अश्लील कहा जा सकता है लेकिन मैं अश्लील इसलिए नहीं कहता क्योंकि अश्लील शब्द की परिभाषा के बारे में, मैं ख़ुद स्पष्ट नहीं हूं. इन गवाहों के बयान के बाद मंटो ने अपना लिखित बयान दर्ज कराया.

चौधरी मोहम्मद हुसैन
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चौधरी मोहम्मद हुसैन

जगदीश चंद्र वाधवन लिखते हैं कि आख़िरकार 16 जनवरी 1950 की तारीख आ गई. अदालत ने आरोपियों को अश्लील कहानी लिखने और प्रकाशित करने के आरोप में प्रत्येक पर तीन सौ रुपये का जुर्माना लगाया और मंटो को तीन महीने क़ैद की सज़ा सुनाई. जबकि नसीर अनवर और आरिफ़ अब्दुल मतीन को 21-21 दिनों के कठोर श्रम की सज़ा सुनाई गई.

आरोपियों ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सत्र न्यायालय में अपील की जहां मजिस्ट्रेट इनायतुल्ला खान ने आरोपियों की अपील को स्वीकार करते हुए, निचली अदालत के फ़ैसले को खारिज कर दिया और तीनों आरोपियों को बाइज़्ज़त बरी करते हुए, उनके द्वारा अदा किया गया जुर्माना वापस करने का आदेश दिया.

लेकिन सरकार ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय में अपील दायर कर दी. लाहौर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद मुनीर और न्यायमूर्ति मोहम्मद जान ने अपील पर सुनवाई की.

उन्होंने 8 अप्रैल, 1952 को अपना फैसला सुनाया.

यह फ़ैसला बहुत ही उचित और वजनदार था और अश्लीलता पर दिए गए फैसलों में एक मील के पत्थर की हैसियत रखता है.

न्यायमूर्ति मोहम्मद मुनीर ने अश्लीलता के बारे में पेश की जाने वाली हर दलील का बहुत स्पष्ट जवाब दिया और फ़ैसले में लिखा कि ठंडे गोश्त की रूपरेखा हानिकारक नहीं है, लेकिन विवरण और विरोधाभासी कथन अश्लील हैं. इसलिए सआदत हसन मंटो और उनके साथियों को तीन सौ रूपये प्रति व्यक्ति जुर्माना या जुर्माना अदा न करने की सूरत में एक महीने की सख्त सज़ा का हुक्म सुनाया जाता है.

इस प्रकार, पाकिस्तान के साहित्यिक और न्यायिक इतिहास का यह अनूठा मुक़दमा ख़त्म हुआ.

https://www.youtube.com/watch?v=YcuFD7U85YI

मौत के बाद ख़त्म हुआ एक मुक़दमा

'ठंडा गोश्त' का मामला समाप्त हुआ तो, कुछ साल बाद, मंटो एक और कहानी 'ऊपर नीचे और दरमियान' पर चलाये जाने वाले अश्लीलता के एक और मुक़दमे में फंस गए. यह कहानी सबसे पहले लाहौर के अख़बार 'एहसान' में प्रकाशित हुई थी. उस समय तक, चौधरी मोहम्मद हुसैन की मृत्यु हो गई थी, इसलिए लाहौर में शांति थी.

लेकिन बाद में जब यह कहानी कराची की एक पत्रिका, 'पयाम-ए-मशरिक़' में प्रकाशित हुई, तो वहां की सरकार हरकत में आई और मंटो को अदालत में बुला लिया गया.

यह मामला मजिस्ट्रेट मेहंदी अली सिद्दीकी की अदालत में पेश हुआ. जिन्होंने सिर्फ कुछ तारीखों की सुनवाई के बाद मंटो पर 25 रुपये का जुर्माना लगाया.

जुर्माना तुरंत अदा कर दिया गया और इस तरह इस अंतिम मुक़दमे से भी मंटो को बरी कर दिया गया.

ठंडा गोश्त
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ठंडा गोश्त

'फैन हैं तो जुर्माना क्यों लगाया?'

बलराज मेनरा ने अपनी क़िताब दस्तावेज़ में लिखा है कि "मेहदी अली सिद्दीकी मंटो के प्रशंसक थे. उन्होंने अगले दिन मंटो को कॉफी पीने के लिए आमंत्रित किया.

उन्होंने कॉफ़ी पीने के दौरान मंटो से कहा "मैं आपको इस दौर का बहुत बड़ा कहानीकार मानता हूं, आपसे मिलने का मकसद सिर्फ यह था कि आप यह ख्याल दिल में लेकर न जाएं कि मैं आपका प्रशंसक नहीं हूं.''

मंटो लिखते हैं, "मैं बहुत हैरान हुआ, आप मेरे फैन हैं, तो जनाब आपने मेरे ऊपर जुर्माना क्यों लगाया?"

उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "इसका जवाब मैं आपको एक साल के बाद दूंगा."

एक साल बाद, मेहंदी अली सिद्दीकी ने इस मुक़दमे का विवरण 'पांचवा मुक़दमा' के शीर्षक से एक साहित्यिक पत्रिका, 'अफ़कार' में प्रकाशित कराया. लेकिन उस समय तक मंटो की मृत्यु हो चुकी थी.

मेहंदी अली सिद्दीकी ने मुक़दमे का यह पूरा विवरण अपनी आत्मकथा 'बिला कमो कास्त' में भी लिखा है.

मेहंदी अली सिद्दीकी ने इस लेख में लिखा था, कि "1954 के अंत में, मुझे पता चला कि मंटो ने लेखों का एक नया संग्रह प्रकाशित किया है जिसका नाम 'ऊपर, नीचे और दरमियान' है."

"मुझे आश्चर्य भी हुआ और ख़ुशी भी जब लोगों ने मुझे बताया कि मंटो ने इस संग्रह को मेरा नाम दिया है. उनकी दिली मोहब्बत और विश्वास का इससे बेहतर प्रमाण मिलना मुश्किल है."

"मैं एक अज्ञात-सा व्यक्ति खुश हूँ कि शायद ऐसे ही मेरा नाम 'दुर्लभ साहित्य' के रूप में कुछ दिनों के लिए साहित्य जगत में रह जायेगा."

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English summary
great writer saadat hasan manto birth anniversary interesting facts
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