अटल बिहारी वाजपेयी की 5 चुनिंदा कविताएं
नई दिल्ली: भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं हमेशा ही एक संदेश देती हैं। कभी उदासी, कभी व्यंग्य, कभी क्रोध के भाव समेटे कविताएं उनके चाहने वालों के बीच उनको अलग श्रेणी में स्थापित करती हैं। उनकी कुछ कविताएं तो लगभग सभी की जुबान पर हैं। अटल बिहारी ने अपने संघर्षों को कविताओं के माध्यम से बखूबी उतारा। ये उनकी 5 सर्वश्रेष्ठ कविताएं कही जा सकती हैं जिन्होंने खूब प्रसिद्धियां बटोरीं।
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1. बेनकाब चेहरे हैं... दाग बड़े गहरे हैं...
पहली अनुभूति:
गीत
नहीं
गाता
हूं
बेनकाब
चेहरे
हैं,
दाग
बड़े
गहरे
हैं
टूटता
तिलिस्म
आज
सच
से
भय
खाता
हूं
गीत
नहीं
गाता
हूं
लगी
कुछ
ऐसी
नजर
बिखरा
शीशे
सा
शहर
अपनों
के
मेले
में
मीत
नहीं
पाता
हूं,
गीत
नहीं
गाता
हूं
दूसरी अनुभूति:
गीत
नया
गाता
हूं
टूटे
हुए
तारों
से
फूटे
बासंती
स्वर
पत्थर
की
छाती
मे
उग
आया
नव
अंकुर
झरे
सब
पीले
पात
कोयल
की
कुहुक
रात
प्राची
में
अरुणिमा
की
रेख
देख
पाता
हूं,
गीत
नया
गाता
हूं
टूटे
हुए
सपनों
की
कौन
सुने
सिसकी
अन्तर
की
चीर
व्यथा
पलकों
पर
ठिठकी
हार
नहीं
मानूंगा
रार
नहीं
ठानूंगा।
2. दूध में दरार पड़ गई..
खून
क्यों
सफेद
हो
गया?
भेद
में
अभेद
हो
गया,
बंट
गए
शहीद,
गीत
कट
गए,
कलेजे
में
दरार
पड़
गई
दूध
में
दरार
पड़
गई।
खेतों
में
बारूदी
गंध
टूट
गए
नानक
के
छंद
सतलुज
सहम
उठी,
व्यथित
सी
बितस्ता
है
बसंत
में
बहार
झड़
गई
दूध
में
दरार
पड़
गई।
अपनी
ही
छाया
से
बैर
गले
लगने
लगे
हैं
अब
गैर
खुदकुशी
का
है
रास्ता,
तुम्हें
है
वतन
का
वास्ता
बात
बनाएं
बिगड़
गई
दूध
में
दरार
पड़
गई।
3. एक बरस बीत गया....
झुलसाता
जेठ
मास
शरद
चांदनी
उदास
सिसकी
भरते
सावन
का
अंतर्घट
बीत
गया
एक
बरस
बीत
गया
सीकचों
में
सिमटा
जग
कितु
विकल
प्राण
विहग
धरती
से
अंबर
तक
गूंज
मुक्ति
गीत
गया
एक
बरस
बीत
गया
पथ
निहारते
नयन
गिनते
दिन
पल
छिन
लौट
कभी
आएगा
मन
का
जो
मीत
गया
एक
बरस
बीत
गया
4. क्या खोया क्या पाया जग में....
क्या
खोया
क्या
पाया
जग
में
मिलते
और
बिछड़ते
मग
में
मुझे
किसी
से
नहीं
शिकायत
यद्यपि
छला
गया
पग-पग
में
एक
दृष्टि
बीती
पर
डालें,
यादों
की
पोटली
टटोलें
पृथ्वी
लाखों
वर्ष
पुरानी
जीवन
एक
अनंत
कहानी
पर
तन
की
अपनी
सीमाएं
यद्यपि
सौ
शरणों
की
वाणी
इतना
काफी
है
अंतिम
दस्तक
पर,
खुद
दरवाजा
खोलें।
जन्म
मरण
अविरत
फेरा
जीवन
बंजारों
का
डेरा
आज
यहां
कल
कहां
कूच
है
कौन
जानता
किधर
सवेरा
अंधियारा
आकाश
असीमित,
प्राणों
के
पंखों
को
तौलें।
अपने
ही
मन
से
कुछ
बोलें।
5. मैंने जन्म नहीं मांगा था..
मैंने
जन्म
नहीं
मांगा
था
किंतु
मरण
की
मांग
करुंगा
जाने
कितनी
बार
जिया
हूं,
जाने
कितनी
बार
मरा
हूं।
जन्म
मरण
के
फेरे
से
मैं
इतना
पहले
नहीं
डरा
हूं।
अंतहीन
अंधियार
ज्योति
की
कब
तक
और
तलाश
करूंगा
मैंने
जन्म
नहीं
मांगा
था,
किंतु
मरण
की
मांग
करुंगा
बचपन,
यौवन
और
बुढ़ापा
कुछ
दशकों
में
खत्म
कहानी
फिर-फिर
जीना,
फिर-फिर
मरना।
पूर्व
जन्म
के
पूर्व
बसी
दुनिया
का
द्वारचार
करूंगा
मैंने
जन्म
नहीं
मांगा
था
किंतु
मरण
की
मांग
करूंगा।
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