Bihar assembly elections: पासवान-मांझी की लड़ाई में दलित वोट कहीं ले न उड़ें चंद्रशेखर रावण
बिहार में दलित वोट पर अधिपत्य के लिए रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी में ठनी हुई है। राजद के श्याम रजक भी इस होड़ में शामिल हैं। लेकिन इन तीनों की लड़ाई में कहीं ऐसा न हो कि ये देखते रह जाएं और दलित वोट ले उड़े चंद्रशेखर रावण। बिहार की 243 सीटों में से अनुसूचित जाति (एससी) के 38 और अनुसूचित जन जाति (एसटी) के लिए दो सीटें रिजर्व हैं। इन 40 में से जो सबसे अधिक सीटों पर कब्जा जमाएगा सत्ता की बागडोर उसके हाथ में होगी। भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद रावण 'आजाद समाज पार्टी’ बना कर बिहार के चुनाव में इंट्री मार चुके हैं। सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर चुके चंद्रशेखर फिलहाल बिहार में चुनावी समां बांध रहे हैं। बुधवार को जब वे सीवान पहुंचे तो उनके समर्थकों का ऐसा रेला उमड़ा कि सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ गयीं। कोरोना गाइडलाइंस के मुताबिक इस तरह धक्कमधक्के वाली भीड़ नहीं जुटनी चाहिए थी लेकिन रावण के समर्थकों ने किसी की परवाह नहीं की। इसके पहले वे पूर्वी चम्पारण के मधुबन में चुनावी सभा कर चुके हैं। रावण समर्थकों के जोश को देख कर कहा जा रहा है कि बिहार की राजनीति में कोई नया गुल खिल सकता है।
क्या मांझी-पासवान के झगड़े से रावण को फायदा?
चंद्रशेखर रावण अभी 34 साल के हैं। वे युवा दलित नेता के रूप में तेजी से उभरे हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा अध्यक्ष मायावती को गंभीर चुनौती पेश की है। बिहार उनकी राजनीति की पहली प्रयोगशाला बनने वाला है। सीवान में रावण ने कहा कि नीतीश कुमार ने दलित की हत्या पर एक आश्रित को सरकारी नौकरी देने की जो घोषणा की है, दरअसल वह झांसा है। केन्द्र सरकार जिस तरह से निजीकरण को बढ़ावा दे रही है उससे तो कोई सरकारी नौकरी ही नहीं बचेगी। नीतीश कुमार तो अनुबंध पर नौकरी देने वाले नेता हैं। वे पहले उन दलित परिवारों को नौकरी दें जिनके परिजन बीते वर्षों में मारे गये हैं। चंद्रेशेखर रावण कांशीराम के दर्शन से प्रभावित हैं। कांशी राम कहते थे कि भाजपा, कांग्रेस या किसी अन्य दल के दलित नेता सिर्फ अपने दल की राजनीति करते हैं। वे अपने दल के अगड़े या पिछड़े वर्ग के अध्यक्ष के इशारे पर काम करते हैं। वे दलित वर्ग के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हो सकते। इसके लिए इस समुदाय की अपनी एक अलग पार्टी होनी चाहिए जो सिर्फ दलितों की बात करे। कांशी राम के इसी तर्क के आधार पर चंद्रशेखर ने मायावती का विरोध किया है। रावण का आरोप है मायावती ने कांशी राम के राजनीति दर्शन से समझौता कर लिया है। इसी तरह रावण ने बिहार के स्थापित दलित नेताओं को खारिज कर अपने चुनावी अभियान का आगाज किया है। सीवान में उन्होंने कहा कि नीतीश सरकार हर मुद्दे पर फेल है। हमारी सरकार बनी तो दलितों पर अत्याचार नामुमकिन हो जाएगा। हम उसका जवाब देंगे। हमारी सरकार में कोई मुस्लिम समाज का शोषण भी नहीं कर सकेगा।
रिजर्व सीटों पर जिसने मारी बाजी उसको मिली सत्ता
बिहार में दलित वोटर जिस दल की तरफ झुके होते हैं उसे ही सत्ता मिलती रही है। लालू यादव के उदाहरण से समझा जा सकता है कि कैसे दलित वोट किसी दल के लिए अहमियत रखते हैं। राजद के गठन के बाद लालू यादव ने पहला विधानसभा चुनाव सन 2000 में लड़ा था। उस समय बिहार झारखंड एक था और सीटों की कुल संख्या 324 थी। इस चुनाव में सबसे अधिक राजद को 25 सुरक्षित सीटों पर जीत मिली थी और उसकी सत्ता बरकरार रही थी। 2005 के आते-आते लालू यादव का दलित समुदाय में जनाधार घटने लगा। फरवरी 2005 के चुनाव में राजद के केवल 12 दलित उम्मीदावर जीते। तब तक इस वर्ग में नीतीश का प्रभाव बढ़ने लगा था। इस चुनाव में जदयू के 9, भाजपा के छह और लोजपा के चार दलित उम्मीदवार जीते। त्रिशंकु विधानसभा होने के कारण किसी की सरकार नहीं बना। अक्टूबर 2005 के चुनाव में सबसे अधिक जदयू के 15 एससी उम्मीदवार जीते। इसके बाद इस वर्ग की 12 सीटें भाजपा के हिस्से में आयीं। लालू यादव को केवल 7 सीटें मिलीं। नीतीश और भाजपा की सरकार बनी और राजद को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। 2010 के विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों ने नीतीश और भाजपा के पक्ष में एकतरफा मतदान किया। इस चुनाव में जदयू ने 20 और भाजपा के 19 सुरक्षित सीटों पर कब्जा जमाया। एक सीट राजद को मिली। इस तरह लालू यादव का जैसै-जैसे दलित वर्ग में जनाधार घटने लगा वैसे-वैसे वे सत्ता से दूर होते चले गये। 2015 में लालू की स्थिति तब बदली जब नीतीश साथ आये। 2015 में राजद को 14 तो जदयू को 11 सुरक्षित सीटों पर विजय मिली थी जिससे महागठबंधन की सरकार बन सकी।
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2020 में दलित वोटर किस तरफ?
2020 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दलित वोट को साधने के लिए घनघोर दंगल शुरू है। एक साल पहले हुए अगर लोकसभा चुनावों की बात करें लोकसभा की सभी सुरक्षित सीटें एनडीए के खाते में आयीं थीं। लोजपा के छह में से तीन सांसद सुरक्षित सीटों से जीते हैं। लेकिन विधानसभा चुनाव के पहले हालात एकदम से बदल गये हैं। नीतीश, मांझी और पासवान की लड़ाई में एनडीए समर्थक दलित वोटर असमंजस में हैं। इस लड़ाई से नाखुश दलित समुदाय ने अगर किसी नये विकल्प पर गौर करना शुरू किया तो चंद्रशेखर रावण की निकल पड़ेगी। रावण अब दलित के साथ मुस्लिम समुदाय को भी लुभा रहे हैं। अगर उनका यह प्रयोग थोड़ा भी सफल होता है तो एनडीए को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। अगर 2015 को अपवाद मानें तो राजद से एससी वोटर रूठे ही नजर आ रहे हैं। अब श्याम रजक की जिम्मेवारी है कि वे राजद की पारी कैसे संभालते हैं।