हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है हनुमान जी का बड़ा मंगल
मान्यता
है
कि
इस
परम्परा
की
शुरुआत
लगभग
400
वर्ष
पूर्व
मुगलशासक
ने
की
थी।
नवाब
मोहमद
अली
शाह
का
बेटा
एक
बार
गंभीर
रूप
से
बीमार
हुआ।
उनकी
बेगम
रूबिया
ने
उसका
कई
जगह
इलाज
कराया
लेकिन
वह
ठीक
नहीं
हुआ।
बेटे
की
सलामती
की
मन्नत
मांगने
वह
अलीगंज
के
पुराने
हनुमान
मंदिर
आयी।
पुजारी
ने
बेटे
को
मंदिर
में
ही
छोड़
देने
कहा
बेगमरूबिया
रात
में
बेटे
को
मंदिर
में
ही
छोड़
गयीं।
दूसरे
दिन
रूबिया
को
बेटा
पूरी
तरह
स्वस्थ
मिला।
तबरूबियाने
इस
पुराने
हनुमान
मंदिर
का
जीर्णोद्धार
करवाया।
जीर्णोद्धार के समय लगाया गया प्रतीक चांदतारा का चिन्ह आज भी मंदिर के गुंबद पर चमक रहा है। मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ ही मुगल शासक ने उस समय ज्येष्ठ माह में पडऩे वाले मंगल को पूरे नगर में गुडधनिया (भुने हुए गेहूं में गुड मिलाकर बनाया जाने वाला प्रसाद) बंटवाया और प्याऊ लगवाये थे। तभी से इस बडे मंगल की पर परा की नींव पडी।
बडा मंगल मनाने के पीछे एक और कहानी है। नवाब सुजा-उद-दौला की दूसरी पत्नी जनाब-ए-आलिया को स्वप्न आया कि उसे हनुमान मंदिर का निर्माण कराना है। सपने में मिले आदेश को पूरा करने के लिये आलिया ने हनुमान जी की मूर्ति मंगवाई। हनुमान जी की मूर्ति हाथी पर लाई जा रही थी। मूर्ति को लेकर आता हुआ हाथी अलीगंज के एक स्थान पर बैठ गया और फिर उस स्थान से नहीं उठा।
आलिया ने उसी स्थान पर मंदिर बनवाना शरू कर दिया जो आज नया हनुमान मंदिर कहा जाता है। मंदिर का निर्माण ज्येष्ठ महीने में पूरा हुआ। मंदिर बनने पर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करायी गयी और बड़ा भंडारा हुआ। तभी से जेठ महीने का हर मंगलवार बड़ा मंगल के रूप में मनाने की पर परा चल पड़ी। चार सौ साल पुरानी इस परंपरा ने इतना वृहद रूप ले लिया है कि अब पूरे लखनऊ के हर चौराहे व हर गली पर भंडारा चलता है।