वहां पत्थर भी गुनगुनाते हैं...
यकीन न आए तो रॉयल मार्केट से ताजमहल की ओर जाते हुए थोड़ा वक़्त ताजुल मसाजिद के पत्थरों के साथ गुजार लें। वे खूब बोलते हैं, बस उनसे दोस्ती भर गांठ लें। आठ-दस साल पहले ताजुल मसाजिद के भीतर बायीं ओर फैले मैदान में हम दोस्तों की गपबाजी में शरीक हुए ये पत्थर सन् 1868 में सीहोर, रायसेन, विदिशा और मंदसौर के अलग-अलग हिस्से से आए थे। भोपाल की बेगम सुल्तान शाहजहां का ख्वाब पूरा करने।
दुनिया की सबसे बड़ी मसजिद तामीर करने का ख्वाब पूरा करने। 1901 तक आते-आते पैसे की तंगी के कारण ताजुल मसाजिद का निर्माण रुक गया, लेकिन तब तक यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मसजिद का दर्जा पा चुकी थी। संगमरमर से बनी अपनी तीन गुंबदों के साथ मुस्कुराते हुए आने वालों का इस्तकबाल करने वाली ताजुल के उत्तरी भाग में जनाना इबादतगाह है। यह बात बीती सदी की शुरुआत में तामीर की गई अन्य मसजिदों से ताजुल को अलग रंग देती है।
ताजुल मसजिद के भीतर वक्त गुजार रहे कुछ पत्थरों के यार ढाई सीढ़ी की मसजिद में भी हैं, जो गांधी मेडिकल कॉलेज के कैंपस का हिस्सा हो गई है। दिलचस्प है कि ढाई सीढ़ी की मसजिद एशिया की सबसे छोटी मसजिदों में शुमार की जाती है, पर है ताजुल की बड़ी बहन। ढाई सीढ़ी की मसजिद को भोपाल की सबसे पुरानी यानी सबसे उम्रदराज मसजिद होने का रुतबा भी हासिल है। हालांकि ताजुल और ढाई सीढ़ी में कभी बड़प्पन-छुटपन जैसी बात नहीं रही। दोनों ही बहनों ने अपने अतीत से खुद कुछ यूं जोड़ रखा है कि ताजुल से मिलो और ढाई सीढ़ी के पास न जाओ तो ताजुल को खराब लगता है और ढाई सीढ़ी से ताजुल की बात न करो तो वह बुरा मान जाती हैं।
अब ताजुल कुछ उदास भी रहती है। हर साल लगने वाले तीन दिनी इज्तिमा के दौरान यहां रौनक हुआ करती थी, लेकिन जगह की तंगी को देखते हुए इज्तिमा ने गाजीपुरा की ओर रुख कर लिया है। इसी बीच रहमान चचा, जो दायीं ओर तालाब के किनारे चाय की गुमठी लगाते थे, न जाने कहां चले गए? बस बचे हैं तो वे पत्थर जिन्होंने बोलना कुछ कम कर दिया है-सुनने वाले जो नहीं रहे।
[सचिन श्रीवास्तव पत्रकार तथा ब्लागर हैं और संस्कृति, शहर और आम लोगों के बारे में अपने खास अंदाज में लिखते हैं।]