भारत-नेपाल संबंधों के लिए केपी ओली का कार्यकाल बुरे सपने की तरह क्यों है?
नई दिल्ली-नेपाल में रविवार को अचानक बदले घटनाक्रम पर अगर नेपाली जनता के बाद दुनिया के किसी भी देश की नजर सबसे ज्यादा है तो वह भारत और चीन की है। भारत फिलहाल इसके आंकलन में लगा हुआ है और वह देखना चाहता है कि हिमालय पर बसे इस देश की सियासत आगे किस करवट बैठती है, जो कि पिछले कुछ समय में चीन (China) की गोद में बैठी हुई दिखी है। अगर भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों (Indo-Nepal bilateral relations) की बात करें तो पिछले करीब एक साल में यह जितने कड़वे रहे हैं वैसा इतिहास में कभी भी महसूस नहीं किया गया। जबकि, भारत के साथ संबंधों में तल्खी लाना कभी भी नेपाल (Nepal) के हित में नहीं है और यह बात नेपाल के बड़े इलाके में वहां की जनता की भावनाओं से भी समझी जा सकती है। भारत के लिए पिछला एक साल इसलिए खासकर बेहद बुरे सपने की तरह बीता है कि इसने कभी भी नेपाल को सिर्फ एक पड़ोसी माना ही नहीं, उसे तो भारत ने हमेशा अपने परिवार का हिस्सा माना है। लेकिन, आज की हकीकत ये है कि दोनों देशों के मौजूदा संबंध पहले जैसे नहीं हैं। हालांकि, बीते महीनों में इसे ठीक करने की कोशिश भी शुरू हुई है। आइए समझते हैं कि पिछले करीब साल भर में ऐसा क्या हुआ है, जो दोस्ती में दरार दिखाई देने लगी है।
पिछले एक साल में बिगड़ गए थे हालात
दरअसल, भारत और नेपाल के संबंधों (Indo-Nepal relations)में तनाव की शुरुआत पिछले साल नक्शा विवाद (map controversy) से हुई थी। अपनी ही सत्ताधारी पार्टी के दूसरे नेताओं से चुनौती झेल रहे नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली (KP Sharma Oli) ने भारत के बार-बार समझाने के बावजूद नेपाली संविधान में संशोधन करके भारतीय हिस्से को नेपाली क्षेत्र में दिखा दिया था। दरअसल, राष्ट्रवाद की हवा बनाकर ओली जिस तरह से वहां की सत्ता पर काबिज हुए थे, उनके इस फैसले का विरोध करने की हिम्मत नेपाल की विपक्षी पार्टियों की भी नहीं थी। उसपर से यह ऐसा दौर था, जब केपी ओली को शी जिनपिंग (Xi Jinping) का पूरा आशीर्वाद प्राप्त था। नेपाल के तराई इलाके से भारत के साथ प्राचीन और ऐतिहासिक संबंधों की दुहाई देती आवाजें उठने की जानकारी भी आई, लेकिन केपी ओली सरकार ने उसे अनसुना कर दिया।
ओली सरकार ने शुरू किया नक्शा विवाद
दोनों देशों के संबंधों में तब से कड़वाहट महसूस की जाने लगी, जब जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir) से आर्टिकल-370 (Article-370)के खात्मे के बाद और लद्दाख (Ladakh) और जम्मू-कश्मीर के दो संघ शासित प्रदेशों का शक्ल अख्तियार करने के बाद भारत ने अपना नया राजनीतिक नक्शा जारी किया। इस नक्शे में लिपुलेख दर्रे के पास स्थित कालापानी (Kalapani) इलाके को भारतीय इलाके में दिखाया गया, जैसा कि हमेशा से था। लेकिन, क्योंकि भारत ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो अलग संघ शासित प्रदेश दिखाने के लिए नया नक्शा जारी किया था, नेपाल ने इसपर आधिकारिक रूप से विरोध दर्ज कराया और कहना शुरू कर दिया कि यह एक विवादित क्षेत्र है और भारत को इसपर दावे का कोई अधिकार नहीं है।
धारचुला-लिपुलेख रोड के उद्घाटन के बाद विवाद बढ़ा
शुरू में नेपाल की प्रतिक्रिया को भारत ने वहां की आंतरिक राजनीति का हिस्सा समझकर ज्यादा तबज्जो नहीं दिया। फिर 8 मई, 20120 की तारीख आई, जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कैलाश-मानसरोवर यात्रा (Kailash Mansarovar Yatra) के मकसद से तैयार की गई धारचुला-लिपुलेख रोड (Dharchula-Lipulekh Road) का उद्घाटन किया। यह वही समय था, जब चीन लद्दाख में घुसपैठ में लगा हुआ था। 15 मई, 2020 को सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे ने कहा भी था कि, 'ऐसा मानने की वजह है कि उन्होंने (नेपाल ने) किसी और के कारण यह समस्या उठाई है और इसकी बहुत ही ज्यादा संभावना है।' करीब एक महीने बाद 12 जून को बिहार के सीतामढ़ी जिले में भारत-नेपाल सीमा पर झड़प हुई,जिसमें नेपाली सिक्योरिटी फोर्स की ओर से हुई फायरिंग में एक भारतीय नागरिक की मौत हो गई।
ओली ने तो अयोध्या के अस्तित्व को भी चैलेंज कर दिया
उस समय केपी शर्मा ओली (KP Sharma Oli)तो जैसे ठान चुके थे कि उनकी अगुवाई वाली वामपंथी सरकार के रहते वह भारत के साथ सदियों की दोस्ती का बंटाधार करके रहेंगे। 18 जून को नेपाली संसद और वहां की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने उस संविधान संशोधन बिल पर मुहर लगा दी, जिसमें कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा (भारतीय क्षेत्रों) (Kalapani, Lipulekh,Limpiyadhura) को नेपाली इलाका बताया गया था। भारत ने कहा कि नेपाल का यह कदम 'सीमा से जुड़े मुद्दों को आपसी बातचीत के जरिए सुलझाने की हमारी आपसी सहमति का उल्लंघन है।' ओली यहीं नहीं रुके। उन्होंने त्रेता युग और भगवान राम के अस्तित्व को भी नए सिरे से गढ़ना शुरू कर दिया। उन्होंने अयोध्या को नकार दिया और कहा कि भगवान राम का जन्म तो नेपाल में हुआ था। लेकिन, शायद चीन की शह पर उलटी गंगा बहाने का इस दौर का उनका यह आखिरी प्रयास था। क्योंकि, अगर नेपाल की राजनीति में इस घटना के बाद के कालखंड को देखें तो अब चीन ने ओली की सत्ता से अपना मुंह धीरे-धीरे फेरना शुरू कर दिया था और उनकी जगह सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के किसी और वामपंथी नेता को बिठाने का तिकड़म रचना शुरू कर दिया था।
ओली ने फिर से संबंध सुधारने की कोशिश शुरू किए हैं
ओली ने अपने शासन काल में भारत के साथ जो संबंध बिगाड़ लिए, उसकी तपिश उन्हें कुछ महीनों में ही अपने देश में भी महसूस होनी शुरू हो गई थी। नक्शा विवाद के बाद उन्होंने 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया। दो दिन बाद ही दोनों देशों के बीच आर्थिक और विकास से जुड़े मुद्दे पर वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए चर्चा हुई। लेकिन, ये सब फिर से रिश्ते पटरी पर लौटने के संकेतों की शुरुआत थी। 21 अक्टूबर को रॉ (RAW) प्रमुख सामंत गोयल एक दिवसीय काठमांडू दौर पर पहुंचे और वहां के पीएम ओली और पूर्व पीएम प्रचंड से मुलाकात की। लेकिन, दोनों देशों की कूटनीति में पहली गर्माहट महसूस हुई 4 नवंबर को जब जनरल नरवणे नेपाल पहुंचे और पीएम ओली से मुलाकात की। दोनों देशों की सेनाओं के बीच नजदीकी तालमेल पर मुहर लगी। उसी महीने 26 नवंबर को विदेश सचिव हर्ष वर्धन श्रृंगला भी काठमांडू पहुंचे। इस महीने की 10 तारीख को बीजेपी के विदेश प्रकोष्ठ के प्रमुख विजय चौथाईवाले (Vijay Chauthaiwale) भी नेपाल पहुंचे और नेपाल की सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच संबंधों को फिर से सुधारने का प्रयास शुरू किया।
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