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युधिष्ठिर का तप परखने के लिए धर्मराज को बनना पड़ा श्वान

By पं. गजेंद्र शर्मा
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नई दिल्ली। एक कहावत है मरने के बाद ही स्वर्ग नसीब होता है यानि यदि आप स्वर्ग पाना चाहते हैं, तो आपको यह शरीर, यह धरती छोड़नी ही पड़ती है। स्वर्ग और नर्क की भारतीय प्राक्कल्पना को स्वीकार करने वाला वर्ग यह मानता है कि मरता सिर्फ शरीर है। मरने के बाद शरीर से आत्मा निकल जाती है और अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नर्क में स्थान पाती है।

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लेकिन महाभारत काल की बात करें तो एक जिक्र ऐसा भी आता है, जो स्वर्ग में किसी व्यक्ति के जीवित और सशरीर पहुंचने की अद्भुत कथा बताता है। यह व्यक्ति थे सबसे बड़े पांडव, धर्मराज युधिष्ठिर, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे बिना मृत्यु के स्वर्ग पहुंचे थे।

आइए, आज इन्हीं की कथा सुनते हैं...

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था

यह उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। पांडव राज सुख भोग चुके थे और अब अलग-अलग कारणों से उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो रहा था। ऐसे समय में अर्जुन ने महर्षि वेदव्यास से अपने मन की बात कहते हुए मोक्ष प्राप्ति का उपाय पूछा। ऋषि ने उनके मन की स्थिति समझते हुए राज्यभार किसी समर्थ को सौंपकर अंतिम यात्रा पर जाने का मार्ग बताया। अर्जुन ने सारी बात युधिष्ठिर को बताई और अंततः सभी भाई और द्रौपदी अंतिम यात्रा पर जाने के लिए तैयार हो गए। ऋषि वेदव्यास की आज्ञा के अनुसार युधिष्ठिर ने अपने सबसे योग्य पुत्र परीक्षित को राजकार्य सौंप दिया और पांचों भाई और द्रौपदी हिमालय के आरोहण के लिए चल पड़े। इस यात्रा के प्रारंभ से एक श्वान भी उनके साथ चल पड़ा और पूरी यात्रा में साथ ही बना रहा।

पांडवों, द्रौपदी और उस श्वान ने

पांडवों, द्रौपदी और उस श्वान ने

ऋषि वेदव्यास के निर्देशानुसार सभी पांडवों, द्रौपदी और उस श्वान ने हिमालय की चोटी की तरफ प्रस्थान किया। इस यात्रा में अपने-अपने कर्मों के अनुसार फल पाते हुए सबसे पहले द्रौपदी, फिर सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम क्रमशः हिमालय की चढ़ाई से गिरते हुए शरीर के बंधन से मुक्त होते गए। सबसे अंत तक युधिष्ठिर और वह श्वान बचे रहे। कहा जाता है कि इस यात्रा में युधिष्ठिर की केवल एक अंगुली गली क्योंकि उन्होंने जीवन में केवल एक बार अश्वत्थामा की मृत्यु का झूठा समाचार अपने गुरु द्रोणाचार्य को दिया था।

युधिष्ठिर और श्वान

युधिष्ठिर और श्वान

इस तरह युधिष्ठिर और श्वान दोनों साथ में हिमालय की चोटी पर जा पहुंचे। इसके बाद युधिष्ठिर की असली परीक्षा शुरू हुई। कहा जाता है कि इन दोनों के हिमालय पर पहुंचने पर इंद्र अपना रथ लेकर आए और युधिष्ठिर को अपने साथ स्वर्ग चलने को कहा। युधिष्ठिर ने उनसे प्रार्थना की कि श्वान ने भी हिमालय की चोटी पर पहुंचने का दुष्कर कार्य किया है अतः सबसे पहले श्वान को रथ पर बैठाया जाए।

अचानक ही इंद्र मुस्कुराने लगे

अचानक ही इंद्र मुस्कुराने लगे

इंद्र ने उनकी बात नहीं मानी तो युधिष्ठिर ने भी स्वर्ग जाने से मना कर दिया। जब काफी मनाने पर भी युधिष्ठिर श्वान को छोड़कर स्वर्ग जाने को तैयार नहीं हुए तो अचानक ही इंद्र मुस्कुराने लगे। यह देख युधिष्ठिर ने हैरान होकर श्वान की ओर देखा तो वहां धर्मराज को खड़ा पाया। धर्मराज ने युधिष्ठिर के सत्य को परखने के लिए श्वान का वेष धरा था। इसके बाद धर्मराज और युधिष्ठिर दोनों रथ पर सवार होकर स्वर्ग पहुंचे।

भव्य महाकाव्य का सुखद अंत

भव्य महाकाव्य का सुखद अंत

महाभारत के समापन में यह भी बताया गया है कि स्वर्ग में पांडव, कौरव, कर्ण और द्रौपदी एक बार फिर साथ एकत्र हुए, लेकिन इस बार ये सभी सांसारिक बुराइयों से परे थे। इसके बाद ये सभी मिल-जुलकर स्वर्ग में वास करने लगे। इस तरह इस भव्य महाकाव्य का सुखद अंत हुआ।

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English summary
In the Hindu epic Mahabharata, Yudhishthira was the eldest son of King Pandu and Queen Kunti and the king of Indraprastha and later of Hastinapura (Kuru).At the end of the epic, he ascended to heaven.
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