Motivational Story: 'सच्ची खुशी' और 'आनंद में रहने' का सही मतलब क्या है?
नई दिल्ली। दैनिक जीवन में एक सवाल से हम सबका सामना अक्सर होता है- आप कैसे हैं? लगभग हर भद्र व्यक्ति अपने परिचित से मिलने पर यह सवाल करता ही है और इसके जवाब भी लगभग एक से ही मिलते हैं- मज़े में हैं, आनन्द में हैं, ठीक हैं, सब बढ़िया वगैरह वगैरह। क्या इन सभी जवाबों का मतलब एक समान ही होता है? शब्द- शब्द का भेद है और हर एक शब्द मायने रखता है, अर्थ को बदलने, अपने प्रयोग से एक ही वाक्य के कई अर्थ प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है।
तो आज देखते हैं कि मज़ा और आनंद कैसे अपने अर्थ को अलग और रोचक बनाते हैं-
एक संत थे। उनके अनेक भक्त थे। जब भी कोई उनसे हाल- चाल पूछता, वे तुरंत कहते- आनंद में हूं। यदि कोई कहता कि आप मज़े में हैं, तो वे पलटकर कहते- हां, आनंद में हूं। लोग उनकी बात सुनकर हैरान रह जाते। एक दिन एक भक्त ने उन्हें टोक दिया। उसने कहा- महाराज! आप हमेशा कहते हैं कि मैं आनंद में हूं। कोई पूछता है कि आप मज़े में हैं, तब भी आप पलटकर कहते हैं कि मैं आनंद में हूं। मज़ा और आनंद तो पर्यायवाची शब्द ही हैं, फिर आप इनका अलग प्रयोग क्यों करते हैं। संत ने मुस्कुराते हुए कहा- देखो बेटा! हम समझने के लिए शब्दों को एक अर्थ में प्रयोग अवश्य करते हैं, पर वास्तव में हर शब्द अपना एक विशिष्ट अर्थ रखता है। आनन्द और मज़ा, ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, लेकिन जब हम इनके विशिष्ट अर्थ को देखें, तो बहुत ही सूक्ष्म अंतर स्पष्ट होता है।
लोगों को अलग-अलग चीजों में मजा आता है
जब हम मज़े की बात करते हैं, तो हमारे सामने कुछ दृश्य आते हैं। किसी को शॉपिंग करके बहुत मज़ा आता है, तो किसी को होटल में खाना खाकर। कोई सैर-सपाटे में मज़ा पाता है, तो कोई सिनेमा देखकर। इन समस्त कार्यों में पैसा खर्च करना पड़ता है अर्थात ये सब भौतिक सुख के कारक होते हैं और इनसे मिलने वाला सुख थोड़े समय के लिए होता है। कुछ समय बाद इन्हें वापस पाने की इच्छा होने लगती है।
आनंद की बात करते हैं तो स्वरूप बदल जाता है
जब हम बात आनंद की करते हैं तो स्वरूप बदल जाता है। आनन्द आत्मिक प्रसन्नता से जुड़ा है। जब कोई व्यक्ति अपने परिवारजनों, अपने आत्मीयों, अपने प्रियजनों के साथ सुंदर समय बीताता है, तब उसे आनन्द प्राप्त होता है। जब कोई व्यक्ति अपने मित्रों के साथ दिल खोलकर बात करता है और संतुष्टि पाता है, तब उसे परम आनन्द मिलता है। जब धार्मिक स्वभाव का कोई व्यक्ति अपने ईष्ट की आराधना, उनके ध्यान में डूबता है, तब उसे परमानंद की प्राप्ति होती है। जब कोई प्रेमी युगल साथ में समय बिताता है, तो वह आनंद में डूब जाता है। जब एक दंपति अपने बच्चों को खिलखिलाते, खेलते देखता है, तब उसे परम आनन्द प्राप्त होता है। आनन्द में पैसे की कोई भूमिका नहीं होती। इस तरह आनन्द मन के सुख से जुड़ा है और मज़ा तन के सुख से। सुख दोनों ही स्थितियों में है, पर मज़ा देने वाला सुख क्षणिक है और आंनद देने वाला सुख अनंत है। यही कारण है कि मैं सदा आनन्द की ही बात करता हूं। संत महाराज की व्याख्या इतनी स्पष्ट, इतनी सारगर्भित थी कि हर कोई उनकी वाणी, उनके भाव, उनके ज्ञान के आगे नतमस्तक हो गया।
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