Sharad Purnima 2020: जानिए शरद पूर्णिमा की पूजा विधि, मुहूर्त और व्रत कथा
नई दिल्ली। आश्विन माह की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा या कोजागरी पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। यह पूर्णिमा 31 अक्टूबर 2020 शनिवार को आ रही है। इस दिन से शरद ऋतु प्रारंभ होती है इसलिए इसे शरद पूर्णिमा कहा जाता है। ज्योतिष की मान्यता है किसंपूर्ण वर्ष में आश्विन मास की पूर्णिमा का चंद्रमा षोडश कलाओं से युक्त होता है। इस दिन का महत्व भगवान श्रीकृष्ण से भी जुड़ा हुआ है।
शरद पूर्णिमा की रात्रि में भगवान श्रीकृष्ण ने वृंदावन में राधा और गोपियों के साथ महारास रचाया था। इसलिए इसे रास पूर्णिमा कहा जाता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन मां लक्ष्मी बैकुंठधाम से पृथ्वी पर आती हैं। इसलिए सुख, सौभाग्य, आयु, आरोग्य और धन-संपदा की प्राप्ति के लिए इस पूर्णिमा पर मां लक्ष्मी की विशेष पूजा की जाती है।
कैसे करें पूर्णिमा व्रत
शरद पूर्णिमा के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर अपने घर के पूजा स्थान को शुद्ध-स्वच्छ करके सफेद आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठ जाएं। चारों ओर गंगाजल की बूंदें छिड़कें। सामने एक चौकी पर चावल की ढेरी लगाकर उस पर तांबे या मिट्टी के कलश में शकर या चावल भरकर स्थापना कर उसे सफेद वस्त्र से ढंक दें। इसके बाद उसी चौकी पर मां लक्ष्मी की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करके उनकी पूजा करें। लक्ष्मी मां को सुंदर वस्त्राभूषण से सुशोभित करें। गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से पूजा करें। शरद पूर्णिमा व्रत की कथा सुनें।सायंकाल में चंद्रोदय के समय घी के 11 दीपक लगाएं। प्रसाद के लिए मेवे डालकर खीर बनाएं। इसे ऐसी जगह रखें जहां इस पर चंद्रमा की चांदनी आती हो। तीन घंटे बाद मां लक्ष्मी को इस खीर का नैवेद्य लगाए। घर के बुजुर्ग या बच्चों को सबसे पहले इस खीर का प्रसाद दें फिर स्वयं ग्रहण करें। सामर्थ्य के अनुसार रात्रि जागरण करें और दूसरे दिन प्रात: स्नानादि के बाद कलश किसी ब्राह्मण को दक्षिणा सहित दान दें।
शरद पूर्णिमा व्रत की कथा
पौराणिक मान्यता के अनुसार किसी समय एक नगर में एक साहुकार रहता था। उसकी दो पुत्रियां थी। वे दोनों पूर्णिमा का उपवास रखती थी, लेकिन छोटी पुत्री हमेशा उस उपवास को अधूरा रखती और दूसरी पूरी श्रद्धा के साथ व्रत का पालन करती। कुछ समय बाद दोनों का विवाह हुआ। विवाह के बाद बड़ी पुत्री ने अत्यंत सुंदर, स्वस्थ संतान को जन्म दिया जबकिछोटी पुत्री की कोई नहीं हो रही थी। वह काफी परेशान रहने लगी। उसके साथ-साथ उसके पति और परिजन भी परेशान रहते। उसी दौरान नगर में एक विद्वान ज्योतिषी आए। पति-पत्नी ने सोचा किएक बार ज्योतिषी महाराज को कुंडली दिखाई जाए। यह विचार कर वे ज्योतिषी के पास पहुंचे। उन्होंने स्त्री की कुंडली देखकर बताया किइसने पूर्णिमा के अधूरे व्रत किए हैं इसलिए इसको पूर्ण संतान सुख नहीं मिल पा रहा है। तब ब्राह्मणों ने उसे पूर्णिमा व्रत की विधि बताई व उपवास रखने का सुझाव दिया। इस बार स्त्री ने विधिपूर्वक व्रत रखा। इस बार संतान जन्म के बाद कुछ दिनों तक ही जीवित रही। उसने मृत शिशु को पीठे पर लिटाकर उस पर कपड़ा रख दिया और अपनी बहन को बुला लाई बैठने के लिए। उसने वही पीठा उसे बैठने के लिए दे दिया। बड़ी बहन पीठे पर बैठने ही वाली थी किउसके कपड़े के छूते ही बच्चे के रोने की आवाज आने लगी। उसकी बड़ी बहन को बहुत आश्चर्य हुआ और कहा कितू अपनी ही संतान को मारने का दोष मुझ पर लगाना चाहती थी। अगर इसे कुछ हो जाता तो। तब छोटी ने कहा कियह तो पहले से मरा हुआ था। आपके प्रताप से ही यह जीवित हुआ है। बस फिर क्या था। पूर्णिमा व्रत की शक्ति का महत्व पूरे नगर में फैल गया और नगर में विधि विधान से हर कोई यह उपवास रखे इसकी राजकीय घोषणा करवाई गई। वह स्त्री भी अब पूर्ण श्रद्धा से यह व्रत रखने लगी और उसे बाद में अनेक स्वस्थ और सुंदर संतानों की प्राप्ति हुई।
पूर्णिमा तिथि कब से कब तक
- पूर्णिमा तिथि प्रारंभ 30 अक्टूबर को सायं 5.44 बजे से
- पूर्णिमा तिथि समाप्त 31 अक्टूबर को रात्रि 8.18 बजे तक
शरद पूर्णिमा 30 या 31 को
शरद पूर्णिमा की तिथि को लेकर पंचांगों में मतभेद चल रहे हैं। यह मतभेद इसलिए है क्योंकिपूर्णिमा तिथि 30 अक्टूबर को सायं 5.44 बजे से प्रारंभ हो जाएगी और 31 अक्टूबर को रात्रि 8.18 बजे समाप्त हो जाएगी। चूंकिउदय कालीन तिथि को मान्यता दी जाती है इसलिए शरद पूर्णिमा का व्रत 31 अक्टूबर को करना शास्त्र सम्मत है। 31 अक्टूबर को उदय तिथि भी है और रात्रि में चंद्रोदय के समय भी पूर्णिमा तिथि रहेगी। इसलिए 31 को ही किया जाना चाहिए। मतभेद के कारण कई लोग 30 अक्टूबर को भी यह शरद पूर्णिमा व्रत करेंगे।
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