Sawan Month 2020: जानिए 16 सोमवार के व्रत की महिमा
नई दिल्ली। पवित्र माह श्रावण में भगवान शिव की कृपा पाने के लिए सोलह सोमवार व्रत का विधान शास्त्रों में बताया गया है। इसे संकट सोमवार व्रत भी कहते हैं। यह व्रत लगातार 16 सोमवार के दिन किया जाता है और इसकी शुरुआत श्रावण माह के शुक्ल पक्ष में आने वाले पहले सोमवार से की जाती है। इस वर्ष श्रावण शुक्ल पक्ष का पहला सोमवार 27 जुलाई को आ रहा है। इस दिन से 16 सोमवार व्रत प्रारंभ करके लगातार 16 सोमवार को व्रत रखकर शिवजी-माता पार्वती की पूजा की जाती है। श्रावण के अलावा 16 सोमवार का व्रत चैत्र, बैशाख, कार्तिक और माघ महीने के शुक्ल पक्ष के पहले सोमवार से भी शुरू किया जा सकता है। शास्त्रों का कथन है कि इस व्रत को 16 सोमवार तक श्रद्धापूर्वक करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
क्यों किया जाता है 16 सोमवार व्रत
16 सोमवार व्रत को संकट सोमवार व्रत भी कहते हैं। इस व्रत को मुख्यत: किसी बड़े संकट से छुटकारे के लिए संकल्प लेकर किया जाता है। यदि आप आर्थिक रूप से बुरी तरह संकट में फंसे हुए हैं, घर-परिवार में कोई न कोई लगातार गंभीर रोगों से पीड़ित हो रहा है। परिवार पर एक के बाद एक लगातार संकट आते जा रहे हैं तो यह व्रत अवश्य करना चाहिए। इसके अलावा जिन युवतियों का विवाह नहीं हो पा रहा है, किसी न किसी कारण से विवाह तय नहीं हो पा रहा है तो उन्हें भी 16 सोमवार का व्रत करना चाहिए।
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सोलह सोमवार व्रत कथा
एक समय महादेवजी पार्वती के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में अमरावती नगरी में आए। वहां के राजा ने अत्यंत भव्य शिव मंदिर बनवाया था। भ्रमण करते समय शिव-पार्वती भी वहीं ठहर गए। पार्वतीजी ने कहा- हे नाथ! आओ, आज इसी स्थान पर चौसर-पांसे खेलें। खेल प्रारंभ हुआ। शिवजी कहने लगे- मैं जीतूंगा। इस प्रकार उनकी आपस में वार्तालाप होने लगी। उस समय पुजारीजी पूजा करने आए।
पार्वतीजी
ने
पूछा-
पुजारीजी,
बताइए
जीत
किसकी
होगी?
पुजारी
बोला-
इस
खेल
में
महादेवजी
के
समान
कोई
दूसरा
पारंगत
नहीं
हो
सकता
इसलिए
महादेवजी
ही
यह
बाजी
जीतेंगे।
परंतु
हुआ
उल्टा,
जीत
पार्वतीजी
की
हुई।
अत:
पार्वतीजी
ने
पुजारी
को
कोढ़ी
होने
का
श्राप
दे
दिया।
इसके
बाद
शिव-पार्वती
वहां
से
चले
गए।
कुछ
समय
पश्चात
मंदिर
में
अप्सराएं
पूजा
करने
आईं।
अप्सराओं
ने
पुजारी
से
उनके
कोढ़ी
होने
का
कारण
पूछा।
पुजारी
ने
सब
बातें
बता
दीं।
अप्सराओं
ने
पुजारी
को
16
सोमवार
का
व्रत
करने
की
बात
कही
और
पुजारी
को
व्रत
की
विधि
बताई।
पुजारी
ने
विधि
पूर्वक
श्रद्धाभाव
से
व्रत
प्रारंभ
किया
और
अंत
में
व्रत
का
उद्यापन
भी
किया।
व्रत
के
प्रभाव
से
पुजारीजी
रोगमुक्त
हो
गए।
कार्तिकेय ने पूछा- हे माता! क्या कारण है?
कार्तिकेय ने पूछा- हे माता! क्या कारण है कि मेरा मन सदा आपके चरणों में लगा रहता है। पार्वतीजी ने कार्तिकेय को 16 सोमवार व्रत का माहात्म्य तथा विधि बताई, तब कार्तिकेय ने भी इस व्रत को किया तो उनका बिछड़ा हुआ मित्र मिल गया। अब मित्र ने भी इस व्रत को अपने विवाह होने की इच्छा से किया। फलत: वह विदेश गया। वहां के राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा ने प्रण किया था कि हथिनी जिस व्यक्ति के गले में वरमाला डाल देगी, उसी के साथ राजकुमारी का विवाह करूंगा। यह ब्राह्मण मित्र भी स्वयंवर देखने की इच्छा से वहां एक ओर जाकर बैठ गया। हथिनी ने इसी ब्राह्मण मित्र को माला पहनाई तो राजा ने बड़ी धूमधाम से अपनी राजकुमारी का विवाह उसके साथ कर दिया। तत्पश्चात दोनों सुखपूर्वक रहने लगे।
राजकन्या ने पूछा ये सवाल
एक दिन राजकन्या ने पूछा- हे नाथ! आपने कौन-सा पुण्य किया जिससे हथिनी ने आपके गले में वरमाला पहनाई। ब्राह्मण पति ने कहा- मैंने कार्तिकेय द्वारा बताए अनुसार 16 सोमवार का व्रत पूर्ण विधि-विधान सहित श्रद्धा-भक्ति से किया जिसके फलस्वरूप मुझे तुम्हारे जैसी सौभाग्यशाली पत्नी मिली। अब तो राजकन्या ने भी सत्य-पुत्र प्राप्ति के लिए यह व्रत किया और सर्वगुण संपन्न् पुत्र प्राप्त किया। बड़े होकर पुत्र ने भी राज्य प्राप्ति की कामना से 16 सोमवार का व्रत किया। राजा की मृत्यु के पश्चात इसी ब्राह्मण कुमार को राजगद्दी मिली, फिर भी वह इस व्रत को करता रहा।
'यह उच्च घराने की अबला विपत्ति की मारी है'
एक दिन उसने अपनी पत्नी से पूजा सामग्री शिवालय ले चलने को कहा, परंतु उसने पूजा सामग्री अपनी दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया, तो आकाशवाणी हुई कि हे राजा, तुम इस पत्नी को त्याग दो नहीं तो राजपाट से हाथ धोना पड़ेगा। प्रभु की आज्ञा मानकर उसने अपनी पत्नी को महल से निकाल दिया। तब वह अपने भाग्य को कोसती हुई एक बुढ़िया के पास गई और अपना दुखड़ा सुनाया तथा बुढ़िया को बताया- मैं पूजन सामग्री राजा के कहे अनुसार शिवालय में नहीं ले गई और राजा ने मुझे निकाल दिया। बुढ़िया ने कहा- तुझे मेरा काम करना पड़ेगा। उसने स्वीकार कर लिया, तब बुढ़िया ने सूत की गठरी उसके सिर पर रखी और बाजार भेज दिया। रास्ते में आंधी आई तो सिर पर रखी गठरी उड़ गई। बुढ़िया ने डांटकर उसे भगा दिया। अब रानी बुढ़िया के यहां से चलते-चलते एक आश्रम में पहुंची। गुसाईजी उसे देखते ही समझ गए कि यह उच्च घराने की अबला विपत्ति की मारी है। वे उसे धैर्य बंधाते हुए बोले- बेटी, तू मेरे आश्रम में रह, किसी प्रकार की चिंता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी, परंतु जिस वस्तु को वह हाथ लगाती, वह वस्तु खराब हो जाती। यह देखकर गुसाईजी ने पूछा- बेटी, किस देव के अपराध से ऐसा होता है? रानी ने बताया कि मैंने अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन किया और शिवालय में पूजन के लिए नहीं गई, इससे मुझे घोर कष्ट उठाने पड़ रहे हैं।
बेटी, तुम 16 सोमवार का व्रत विधि के अनुसार करो
गुसाईजी ने शिवजी से प्रार्थना की और कहा- बेटी, तुम 16 सोमवार का व्रत विधि के अनुसार करो। तब रानी ने विधिपूर्वक व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और दूतों को उसकी खोज में भेजा। आश्रम में रानी को देख दूतों ने राजा को बताया। तब राजा ने वहां जाकर गुसाईजी से कहा- महाराज! यह मेरी पत्नी है। मैंने इसका परित्याग कर दिया था। कृपया इसे मेरे साथ जाने की आज्ञा दें। शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष 16 सोमवार का व्रत करते हुए वे आनंद से रहने लगे और अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए।
16 सोमवार व्रत की विधि
शास्त्रों में बताई विधि के अनुसार 16 सोमवार व्रत प्रारंभ करने के लिए श्रावण माह के शुक्ल पक्ष में आने वाले पहले सोमवार को चुना जाता है। इस दिन व्रती सूर्योदय पूर्व उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर शिवजी की पूजा करे और अपने संकट से मुक्ति के लिए भगवान शिवजी के सामने 16 सोमवार व्रत करने का संकल्प लें। इसके बाद दिन भर अन्न्, जल ग्रहण ना करें। शाम को आधा सेर गेहूं के आटे का चूरमा बनाएं, शिवजी की पूजा करें। पूजा में बेलपत्र, आंकड़े के फूल, धतूरे आदि अर्पित करें। चूरमा भगवान शिवजी को चढ़ाएं और फिर इस प्रसाद के तीन भाग करें। एक भाग प्रसाद के रूप में लोगों में बांटे, दूसरा गाय को खिलाएं और तीसरा हिस्सा स्वयं खाकर पानी पिएं। इस विधि से सोलह सोमवार करें और सत्रहवें सोमवार को पांच सेर गेहूं के आटे की बाटी का चूरमा बनाकर भोग लगाकर प्रसाद बांट दें। फिर परिवार के साथ प्रसाद ग्रहण करें। ऐसा करने से शिवजी सारे मनोरथ पूरे करते हैं। जिस संकट के समाधान का संकल्प लेकर व्रत किया जाता है वह अवश्य दूर होता है।
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