ईश्वर हर पल रखते हैं अपने भक्त के सुख-दुख का ध्यान
नई दिल्ली। मनुष्य का जीवन मुख्य रूप से दो मनोभावों पर आधारित होता है- दुख और सुख। शेष सभी मनोभाव इन्हीं दोनों मूल भावों के अंतर्गत समाहित होते हैं या कहा जा सकता है कि इन्हीं के विविध रूप होते हैं। मनुष्य के जीवन का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि जब जीवन में सुख आता है, तब वह उसे अपने अच्छे कर्मों का फल मानता है। इसके ठीक विपरीत जब जीवन में दुख, कष्ट, रोग, शोक का आगमन होता है, तब बड़ी सहजता से वह बोल देता है कि भगवान ना जाने क्यों अप्रसन्न हैं, जाने किस बात का दंड दे रहे हैं।
दुख ईश्वर का प्रकोप क्यों?
अब यहां ध्यान देने की बात यह है कि यदि सुख आपके कर्मों का फल है, तो दुख ईश्वर का प्रकोप क्यों? वास्तव में ईश्वर तो कभी अपने भक्त पर कुपित होते ही नहीं हैं। वे तो अपने भक्त को संतान तुल्य मानते हैं। जिस तरह मनुष्य अपनी संतान की रक्षा हर कष्ट से करता है, उसी तरह ईश्वर भी अपने भक्त को दुखों से बचाने के लिए सक्रिय हो जाते हैं। मुख्य बात यह है कि आपके मन में संदेह नहीं आना चाहिए। आपके अंतर्मन में पूरा विश्वास होना चाहिए कि वो हमारे पिता हैं और हमारी भलाई के लिए संलग्न हैं। वो हर कष्ट से हमें बचा लेंगे। इसी परिप्रेक्ष्य में आज एक कथा सुनते हैं।
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कथा
बहुत पुरानी बात है। किसी नगर में एक व्यक्ति रहता था। वह ईश्वर का अनन्य भक्त था। ईश्वर की कृपा उस पर चहुंओर से बरसती थी। सब तरह से उसका जीवन सुख से परिपूर्ण था, लेकिन समय का पहिया सदा एक समान नहीं चलता। उस भक्त के जीवन में भी दुख, कष्ट का आगमन हुआ। कष्टों में डूबते उतराते उसके मन में ईश्वर के लिए अविश्वास आ गया और वह ईश्वर के प्रति अनर्गल प्रलाप करने लगा।कई दिनों तक लगातार यही क्रम चलता रहा। अंततः एक दिन ईश्वर उसके सपने में आए और बोले कि हे वत्स, तुम दुखी क्यों हो? जीवन में सभी को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। जब सुख का समय आनंद से व्यतीत किया है, तो दुख का पालन भी धैर्य के साथ करो।
प्रभु की आराधना में पूरा जीवन लगा दिया
उस व्यक्ति ने कहा कि हे प्रभु, यदि आप मेरे साथ होते तो मुझ पर कष्ट आते ही नहीं। मैंने आपकी आराधना में पूरा जीवन लगा दिया और आज जब मुझ पर कष्टों का पहाड़ टूट पड़ा है, तो आपने मेरा साथ ना दिया। ईश्वर ने कहा कि आओ वत्स, मैं तुम्हारी भक्ति के प्रथम दिन से तुम्हारी यात्रा दिखाता हूं। इसके साथ ही भक्त ने देखा कि उसके सुखी जीवन का अध्याय खुल गया है और वह ईश्वर का हाथ पकड़ कर आराम से समुद्र के किनारे टहल रहा है। दोनों के पैरों के निशान रेत पर साथ साथ बनते जा रहे हैं। इसके बाद जीवन के दुखमय अध्याय का आरंभ हुआ और भक्त हैरान रह गया क्योंकि अब रेत पर केवल दो पदचिन्ह ही बन रहे थे।
देखा प्रभु, आपने मेरा साथ छोड़ दिया...
इतना देखते ही भक्त आवेश में चिल्ला पड़ा कि देखा प्रभु, आपने मेरा साथ छोड़ दिया। उसकी बात पर हंसते हुए ईश्वर बोले कि हे वत्स, ध्यानपूर्वक पदचिन्हों को देखो। वास्तव में तुम जिन्हें अपने पदचिन्ह समझ रहे हो, वे तो मेरे हैं। जिस दिन से तुम पर कष्ट आया है, उस दिन से मैं तुम्हें अपनी गोद में उठा कर चल रहा हूं। जीवन में आने वाले कष्ट मनुष्य के अपने कर्मों का ही फल होते हैं और हर एक को अपना कर्मफल स्वयं भुगतना पड़ता है। मैं तुम्हारे कर्मफल को बांट नहीं सकता, फिर भी तुम्हारे कष्टों को यथासंभव कम करने के लिए मैं अपनी तरफ से संपूर्ण प्रयास कर रहा हूं।
हर कष्ट दूर करता है
ईश्वर की बात सुन और समझ कर उस व्यक्ति को अपनी भूल का भान हो गया और उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वह समझ गया कि ईश्वर के लिए अपने भक्त को कष्ट में देखना उतना ही पीड़ादायक है, जिस तरह हम मनुष्य अपनी संतान को कष्ट में देखकर दुखी होते हैं। हम चाह कर भी अपनी संतान की पीड़ा अपने ऊपर नहीं ले पाते, तो हम उसके कष्ट बांटने की भरपूर कोशिश करते हैं। ठीक इसी तरह ईश्वर भी हमारे कष्टों को कम करने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं।
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