Lohri 2018: हैप्पी 'लोहड़ी'... जानिए इस पर्व का महत्व और खास बातें
नई दिल्ली। लोहड़ी पौष के अंतिम दिन यानि माघ संक्रांति से पहली रात को मनाई जाती है। मकर संक्रांति की पूर्वसंध्या पर इस त्योहार का विशेष उल्लास उत्तर भारत के राज्यों में देखने को मिलता है। 'लोहड़ी' का अर्थ ल (लकड़ी) +ओह (गोहा = सूखे उपले) +ड़ी (रेवड़ी) = 'लोहड़ी' .. ये होता है। ये फसलों का त्योहार कहा जाता है क्योंकि इस दिन पहली फसल कटकर तैयार होती है।
अग्निदेव से प्रार्थना
रात्रि में खुले स्थान में परिवार और आस-पड़ोस के लोग मिलकर आग जलाते हैं और अग्निदेव से अपने परिवार की सुख-शांति की दुआएं मांगते हैं।
रेवड़ी, मूंगफली, लावा
- उसके बाद लोग रेवड़ी, मूंगफली, लावा खाते हैं और नाचते-गाते हैं।
- लोग इस दौरान दुल्ला भट्टी की कहानी सुनते और सुनाते हैं और गीतों में भी उन्हें याद करते हैं।
पौराणिक कथाएं..
कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के योगाग्नि-दहन की याद में ही इस पर्व पर अग्नि जलाई जाती है। इस अवसर पर विवाहिता पुत्रियों को मां के घर से 'त्यौहार' (वस्त्र, मिठाई, रेवड़ी, फलादि) भेजा जाता है। यज्ञ के समय अपने जामाता शिव का भाग न निकालने का दक्ष प्रजापति का प्रायश्चित्त ही इसमें दिखाई पड़ता है।
दुल्ला भट्टी की कहानी
लोहड़ी को दुल्ला भट्टी की कहानी से भी जोड़ा जाता हैं। कहते हैं दुल्ला भट्टी नामक एक व्यक्ति मुग़ल शासक अकबर के समय में पंजाब में रहता था। उसे पंजाब के नायक की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उस समय संदल बार के जगह पर लड़कियों को गुलामी के लिए बल पूर्वक अमीर लोगों को बेच जाता था जिसे दुल्ला भट्टी ने एक योजना के तहत लड़कियों को न केवल मुक्त करवाया बल्कि उनकी शादी भी हिन्दू लड़कों से करवाई इसलिए लोहड़ी का हर गीत उसे समर्पित होता है।
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