सहनशीलता में है अपमान का तोड़, जनिए कैसे?
नई दिल्ली। अपमान वह भाव है, जो हर व्यक्ति को दुखी करता है। अपमान होने पर हर आयु का व्यक्ति समान रूप से दग्ध होता है। वास्तव में अपमान एक आग की तरह है, जो दिल को सुलगाता रहता है। अपमान की दाह में तपता हुआ मनुष्य कभी चैन से नहीं बैठ पाता। वह दिन- रात यही सोचता रहता है कि कब और कैसे अपने अपमान का बदला लूं। लेकिन क्या बदला लेने से दिल की आग ठंडी पड़ जाती है?
कितनी ही कहानियां सुनने को मिलती हैं, जब बदले की भावना में जलकर कई वंश नष्ट हो गए। बदला पूरा होने के बाद भी उन्हें वो चैन, वो सुकून नहीं मिला, जिसकी उन्हें उम्मीद थी। इसका कारण यह है कि बदले की भावना वास्तव में नकारात्मकता पर आधारित होती है। जो स्वयम नकारात्मक है, वह सकारात्मक परिणाम नहीं दे सकता। तो फिर अपमान की काट क्या है? अपमान करने वाले को सटीक जवाब किस तरह दिया जा सकता है? इसका एकमात्र उत्तर है- सहनशीलता।
सहनशीलता ही वो एकमात्र अस्त्र है, जो अपमान को काट सकता है। कैसे? संत एकनाथ के जीवन प्रसंग से जानते हैं-
संत एकनाथ का जीवन नियम था कि वे प्रतिदिन भोर की बेला में गोदावरी नदी में स्नान करने जाया करते थे। एक बार वे नदी में स्नान करके अपने घर की तरफ जा रहे थे, तभी अचानक एक व्यक्ति उनके मार्ग में आया और उन पर थूक कर भाग गया। संत एकनाथ ने सोचा कि अब तो अपवित्र हो गया हूं, तो वापस स्नान कर लेता हूं। संत वापस स्नान करके चले, पर राह में उसी स्थान पर वापस वही व्यक्ति मिला। वह मज़ाक उड़ाते हुए संत के पास आया और वापस उन पर थूक कर चला गया। यही क्रम बार- बार होता रहा। कुल मिलाकर 21 बार उस व्यक्ति ने संत पर थूका और वे हर बार नदी में जाकर नहाकर आते रहे। आखिरकार वह व्यक्ति लज्जित हो गया और संत से क्षमा मांगते हुए बोला- प्रभु! मैंने आपका इतना अपमान किया, फिर भी आपने क्रोध न किया।
किन्तु आपने मुझे रोका क्यों नहीं
यह आप कैसे कर सके? मैं क्यों ऐसा बर्ताव कर रहा था, मुझे ज्ञात नहीं। किन्तु आपने मुझे रोका क्यों नहीं? क्यों मेरा इतना अत्याचार बर्दाश्त किया? संत ने कहा- पुत्र! यदि मैंने तुम्हें रोक दिया होता, तो तुम्हारे अंदर भरा यह क्रोध नहीं निकल पाता और अंततः तुम्हारे लिए ही हानिकारक साबित होता। तुम मेरे बच्चे हो, मैं तुम्हारा अहित होते कैसे देख सकता था। रही बात मेरे स्नान की, तो इसमें मेरा ही भला हो रहा था। मैं रोज़ गोदावरी मैया की गोद का आनंद केवल एक बार लेता था। आज तुम्हारे कारण मैंने पूरे 21 बार पुण्य प्राप्त किया। सारी बात सुनकर वह व्यक्ति संत के चरणों में गिर पड़ा।
शिक्षा
दोस्तों, आपने यह बात सुनी होगी कि कीचड़ में कभी पत्थर नहीं मारना चाहिए, अन्यथा कुछ छींटे स्वयम पर भी अवश्य पड़ते हैं। अपमान को तोड़ने का यही एक तरीका है, उसे स्वीकार ही न करें, स्वयम को उससे निस्पृह रखें। तो आप भी इस भाव को अपनाकर देखें। हो सकता है कि इससे जीवन जीना आसान हो जाए।
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