क्या चुनावों के बाद कोई शक्ल अख्तियार कर पाएगा तीसरा मोर्चा?
नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव के परिणामों और उसके बाद सरकार गठन को लेकर जोड़-घटाने के बीच समय-समय पर तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट भी सुनाई देती रहती है। इन चुनावों के करीब एक साल पहले भी कुछ सरगरमी दिखी थी, लेकिन वक्त के साथ एक तरह से नेपथ्य में चली गई थी। अब नए सिरे से उसे रूप प्रदान करने की प्रक्रिया शुरू की गई है। इसके साथ ही यह भी कहा-सुना जाने लगा है कि क्या यह कोई रंग-रूप अख्तियार कर सकता है। इसको लेकर भी लोगों की राय सामने आ रही है कि अगर ऐसा हो भी गया तो, क्या तीसरा मोर्चा इतना मजबूत हो सकता है कि उसके नेतृत्व में सरकार बन सके अथवा किसी अन्य गठबंधन की सरकार में मजबूत हैसियत हासिल कर सके। वैसे यह सब कुछ एक साल पहले भी मात्र संभावनाओं के आधार पर किया जा रहा था और अब चुनावों के करीब अंतिम कुछ चरणों के दौरान भी उम्मीदों के आधार पर ही किया जा रहा है। इसीलिए इसको लेकर कोई भी बहुत स्पष्ट नहीं हो पा रहा है क्योंकि यह सब कुछ चुनाव परिणामों के आधार पर ही आधारित होगा। अगर कोई भी गठबंधन सरकार बनाने के आंकड़े पहुंच गया, तब वैसे ही तीसरे मोर्चे की कोई अहमियत नहीं रह जाएगी। यदि यह भी मान लिया जाए कि किसी गठबंधन को बहुमत नहीं मिला और कोई तीसरा मोर्चा किसी भी अस्तित्व में आ भी गया, तो उसकी ताकत कितनी होगी और वह किसके साथ जाएगा यह भी अभी देखने की ही बात ज्यादा है।
पहले तीसरे मोर्चे की संभावनाओं पर और बाद में गठबंधनों की स्थिति पर विचार करने की जरूरत है। तीसरे मोर्चे के बारे में यह सर्वविदित है कि इसकी कमान तेलंगाना के मुख्यमंत्री और टीआरएस नेता चंद्रशेखर राव ने पहले भी संभाली थी और अभी भी संभाल रखी है। उनकी पहल में क्षेत्रीय दलों की एकजुटता पर जोर है। वह यह मानकर चल रहे हैं कि चुनावों के बाद क्षेत्रीय दल मजबूती के साथ उभरकर आएंगे। इसके साथ ही उनकी सोच में अभी तक भाजपा और कांग्रेस से इतर दलों की सरकार बनाना रहा है। वह इस सबके बीच देश के संघीय ढांचे को भी केंद्र में रखते हैं और मानते हैं कि राज्यों के साथ उपेक्षा का भाव रखा जाता रहा है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों को एक साथ आने और अपनी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह तभी संभव हो सकता है कि जब सरकार का नेतृत्व क्षेत्रीय दलों के पास हो। इसीलिए पहले भी उन्होंने क्षेत्रीय नेतृत्व के साथ मुलाकात और बात की थी और अभी भी वही कर रहे हैं। पिछली बार चूंकि चुनाव दूर थे, इसलिए किसी तरह की दूसरी राय सामने नहीं आ रही थी। लेकिन इस बार चुनाव चल रहे हैं और कुछ ही दिनों के बाद नई सरकार बनने वाली है, इसलिए चीजें दूसरी तरह से हो रही हैं।
अब जैसे चंद्रशेखर राव ने कुछ दिन पहले कम्युनिस्ट सरकार के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन से मुलाकात की थी। उसके बाद वह अभी डीएमके नेता स्टालिन से मिले। स्टालिन एम करुणानिधि के बेटे हैं जो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इन चुनावों में डीएमके कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन की घटक है। इसके अलावा स्टालिन पहले भी बहुत मजबूती के साथ कह चुके हैं कि अगली सरकार कांग्रेस के नेतृत्व में बनेगी और प्रधानमंत्री राहुल गांधी होंगे। राव के साथ मुलाकात को हालांकि स्टालिन ने शिष्टाचार मुलाकात बताया है। लेकिन राजनीतिक हलकों में यह आम बात है कि स्टालिन ने अपनी पुरानी राय को ही राव के समक्ष रखा है। बताया तो यह भी जा रहा है कि स्टालिन ने राव को भी यह सलाह दी है कि उन्हें भी कांग्रेस के साथ आ जाना चाहिए। राव के बारे में आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि वह एनडीए के ज्यादा करीब हैं। इसी आधार पर यह भी माना जाता है कि वह एनडीए के साथ जा भी सकते हैं। लेकिन हाल के दिनों में इस तरह के कयास भी लगाए जाने लगे थे कि वह यूपीए के साथ भी जा सकते हैं। लेकिन स्टालिन और डीएमके के बारे में एक तरह से एकदम स्पष्ट है कि वह न केवल यूपीए के साथ खड़े हैं बल्कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने वाली राय के साथ भी खड़े हैं। मतलब वह तीसरे मोर्चे के साथ एकदम नहीं जाने वाले हैं। इस तरह यह संकेत आसानी से समझा जा सकता है कि तीसरे मोर्चे की राह में अभी और बाधाएं आ सकती हैं और शायद ही यह कोई शक्त अख्तियार कर पाए।
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जहां तक गठबंधनों की स्थिति का सवाल है, चुनाव बाद ज्यादा ताकतवर यही उभरने वाले हो सकते हैं। दोनों ही गठबंधनों के आकलन हैं और अपने-अपने आकलन दोनों खुद की सरकार बनाने के लिए लगते हैं। अगर ऐसा होता है, तो वैसे भी किसी तीसरे की बहुत जरूरत नहीं पड़ने वाली है। इसमें यह भी देखने की बात है कि 2014 और 2019 के चुनाव में क्या कोई खास अंतर है। ऐसा माना जाता है कि 2014 में कांग्रेस के खिलाफ लोगों में आक्रोश था जो साफ पता चलता था। इतना ही नहीं, तब के भाजपा के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक लहर सी थी। इस चुनाव में यह दोनों ही उस रूप में नहीं लग रहे हैं। मतदाता में खास तरह की चुप्पी है। इसीलिए हर कोई अपने-अपने तरीके से अंदाजा लगा रहा है। माना यह जा रहा है कि जो भी गठबंधन ज्यादा ताकतवर बनकर सामने आएगा, उसके लिए भी कुछ मदद की जरूरत पड़ेगी। अगर ऐसा होता है तभी तीसरे मोर्चे जैसी किसी ताकत का महत्व सामने आएगा। लेकिन यह भी देखने की बात होगी कि आखिर वह कौन होंगे, उनकी कितनी ताकत होगी, गठबंधन को कितनी संख्या की जरूरत पड़ेगी और वह कहां से किसको कैसे ले सकेगा। इनमें कुछ पार्टियां ऐसी भी हैं जो भले ही कांग्रेस के पक्ष में न हों लेकिन वह चुनाव में भाजपा विरोध में गई हैं। इसका अर्थ यह लगाया जा रहा है कि वे चुनाव के बाद किसी भी रूप में भाजपा के साथ शायद ही जाएं। इनमें सपा, बसपा, टीएमसी और वामदल तक शामिल माने जाते हैं। उसके बाद बचते हैं केवल बीजेडी, टीआरएस और आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की पार्टी। अगर इन पार्टियों का कोई मोर्चा बन भी जाता है तो यह अपने उद्देश्यों में कितना सफल हो सकेगा, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
इस सबके बीच तीसरे मोर्चे को लेकर कांग्रेस की ओर से आए एक ताजा विचार को भी ध्यान में रखे जाने की जरूरत है। अब से कुछ दिन पहले ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने कहा है कि तीसरे मोर्चे की उन्हें कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। भले ही इसे कांग्रेस का आधिकारिक बयान माना जाए अथवा नहीं, लेकिन माना यही जाता है कि कांग्रेस किसी तीसरे मोर्चे को मानता ही नहीं। बीते लोकसभा चुनाव के दौरान भी कांग्रेस की राय तीसरे मोर्चे को लेकर कुछ इसी तरह की थी जिसे खुद तत्कालीन पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने रखी थी। इसी तरह बीजेपी के बारे में भी यही आम राय है कि वह नहीं चाहती कि कोई तीसरा मोर्चा जैसी चीज हो। मतलब दोनों ही गठबंधन जरूरत पड़ने पर भले ही इन क्षेत्रीय दलों की मदद लें, लेकिन उनके लिए तीसरे मोर्चे की स्वीकार्यता को लेकर सवाल बरकरार है। ऐसे में फिलहाल यही ज्यादा लगता है कि तीसरे मोर्चे की पूरी कवायद शायद कोई दबाव समूह बनाने और उसके जरिये कुछ लाभ हासिल कर लेने की ज्यादा लगती है। इसका संकेत भी चंद्रशेखर राव के बारे में कही जा रही इस बात से लगता है कि वह उपप्रधानमंत्री पद चाहते हैं। हालांकि ऐसा उन्होंने खुद नहीं कहा है। बहरहाल, तीसरे मोर्चे को लेकर प्रयास तो चल ही रहे हैं। अब यह तो बाद में पता चलेगा कि इसका क्या हुआ।
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