क्या वैश्विक पटल पर भारत को मान दिला पाएगी नई शिक्षा नीति?
पिछले एक दशक के दौरान भारत में शिक्षा के क्षेत्र में मात्रात्मक वृद्धि हुई है-संस्थानों की संख्या बढ़ी है, अधिक छात्रों के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त हुआ है, अधिक पद सृजित हुए हैं और सबसे ऊपर इसके लिए अधिक धन आवंटित हुआ है, लेकिन यह गुणात्मक विकास में तब्दील नहीं हो पाया है। यह भी सोचना होगा कि विश्व के बेहतरीन 200 शैक्षिक संस्थानों में उच्च शिक्षा के किसी भी एक भारतीय संस्थान का शामिल न हो पाना भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक खतरे की घंटी है। स्पष्ट तौर पर भारत में शिक्षा के कायाकल्प की जरूरत थी। यह नेतृत्व की भयंकर कमी से जूझ रहा था जहां संस्थान अधिक आवंटन को बेहतर नतीजों में परिवर्तित नहीं कर पा रहे थे। अमरीका में स्कूलों में किये गये सुधारों के संबंध में की गई पहलों की समीक्षा करते हुए राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने जो विचार प्रकट किये थे, वे भारत पर भी लागू होते हैं: "हर समस्या का समाधान किसी न किसी जगह पर किसी न किसी ने पहले ही कर रखा है। हमारी हताशा का कारण यही लगता है कि नेतृत्व कि कमी के कारण हम इन समाधानों को लागू नहीं कर पा रहे हैं।"
आधुनिक विश्व में राजनीतिक नेतृत्व करने वालों में दूरदर्शिता और संकल्प के साथ ही विषयों की व्यापक समझ होनी चाहिए। विवेकानंद और कलाम के महान व्यक्तित्व बनने के पीछे उनका असाधारण ज्ञान भी एक कारण था। भारत को उच्च शिक्षा में बेहतर अकादमिक, प्रशासनिक और राजनीतिक नेतृत्व की शिद्दत से दरकार रही है क्योंकि जिन राजनीतिक व्यक्तित्वों का ज्ञान एवं रचना जगत के साथ गहरा अन्तर्सम्बन्ध रहा है, वे ही शिक्षा एवं संस्कृति के विकास में बेहतर भूमिका निभा सकते हैं। हमें समझना होगा कि महज राजनैतिक पृष्टभूमि से जुड़े मंत्रियों से भिन्न, रचनात्मक एवं ज्ञान जगत से जुड़े मानव संसाधन मंत्रियों ने हमेशा भारत में एक सर्व समावेशी शिक्षा की दुनिया रचने में बड़ी भूमिका निभायी है। ज्ञान, रचना एवं नवाचार से जुड़े राजनीतिक नेताओं ने जिम्मेदारी मिलने पर भारतीय शिक्षा एवं संस्कृति को आधारभूत एवं परिवर्तनकारी स्वरूप प्रदान किया है। शिक्षा, साहित्य एवं पर्यावरण क्षेत्र से जुड़े प्रयोगवादी विचारों के धनी वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ० रमेश पोखरियाल 'निशंक' भारत में 34 वर्ष पश्चात नयी शिक्षा नीति लाकर एवं उसे लागू कर भारतीय शिक्षा व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने के लिए जाने जायेंगे। उनके द्वारा नई शिक्षा नीति लागू करने से पहले देश भर में गैर सरकारी संगठनों (NGOs) द्वारा किये गये नवाचारों की पहचान करने और राज्यों के शिक्षा विभागों के सामने उनकी प्रस्तुति करने और उनके साथ उन्हें जोड़ने के लिए मंच बनाने के प्रयास किये गए। देश-विदेश के शिक्षाविदों, शिक्षकों और छात्रों से लगातार संवाद स्थापित किया गया। कई विश्वव्यापी और वैकल्पिक ज्ञान प्रणालियों को ध्यान में रखने के साथ ही डिजिटल प्रौद्योगिकी में विकास का भी समावेश किया गया।
नई शिक्षा नीति के माध्यम से स्कूली शिक्षा से उच्च शिक्षा तक रूपांतरकारी सुधारों का मार्ग प्रशस्त हुआ है ताकि भारत को ज्ञान आधारित महाशक्ति बनाया जा सके। माना जा रहा है कि इस नई शिक्षा नीति को कुछ इस तरह से बनाया गया है कि यह 21 वीं सदी के उद्देश्यों को पूरा करे साथ ही भारत की परंपराओं और वैल्यू सिस्टम से भी सुसंगत हो। इसको भारत के एजुकेशन स्ट्रक्चर के सभी पहलुओं को ध्यान में रख के बनाया गया है। इसमें स्कूली शिक्षा में सुधार, पांचवी कक्षा तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा, 3 या 4 वर्ष का स्नातक कोर्स चुनने का विकल्प, डिग्री कोर्स में बहु स्तरीय प्रवेश या निकासी की व्यवस्था, उच्च शिक्षा में एकल नियामक, फीस तय किये जाने सहित अनेकों सुधारों की बात कही गई है। 34 साल बाद आई नई शिक्षा नीति का विशेषज्ञों और शिक्षाविदों ने स्वागत किया है।
उच्च शिक्षा में शोध एवं प्रतिस्पर्धता को मिलेगा बढ़ावा
इसके साथ ही सरकार ने इस शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा को भी लचीला बनाने की कोशिश की है, जिसकी सबसे प्रमुख विशेषता मल्टीपल एंट्री-एक्जिट सिस्टम है। मसलन अगर कोई छात्र ग्रेजुएशन में प्रवेश लेकर सिर्फ एक साल का ही कोर्स पूरा करता है, तो उसे इसके लिए सर्टिफिकेट दिया जाएगा। वहीं दो साल पूरा करने वालों को डिप्लोमा और तीन साल पूरा करने वालों को ग्रेजुएशन की डिग्री दी जाएगी। जो छात्र ग्रेजुएशन के बाद नौकरी करना चाहता है, वह सिर्फ तीन साल की डिग्री ले सकता है। वहीं उच्च शिक्षा और शोध की इच्छा रखने वाले छात्र चौथे साल का कोर्स करेंगे। इसके साथ ही अब तक तीन साल का होने वाला ग्रेजुएशन अब चार साल का हो जाएगा। वहीं एमए अब सिर्फ एक साल का होगा, जबकि रिसर्च करने वाले दो साल की एम.फिल. का कोर्स ना कर सीधे पीएचडी कर सकेंगे। उच्च शिक्षा को अधिक केंद्रीकृत करने के लिए नई शिक्षा नीति में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC), ऑल इंडिया काउंसिल फॉर ट्रेड एजुकेशन (AICTE) और नेशनल कॉउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन (NCTE) जैसी संस्थाओं को किसी एक संस्था के अंतर्गत लाया जाएगा और उच्च शिक्षा के लिए सिर्फ एक रेगुलेटरी बॉडी होगी। हालांकि इसमें भी मेडिकल और लॉ शिक्षण संस्थानों को छूट दिया जाएगा। इसके अलावा शोध को बढ़ावा देने के लिए नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के गठन की भी बात कही गई है। उच्च शिक्षा में एकरूपता को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय, राज्य और डीम्ड विश्वविद्यालयों को एक ही मानक के आधार पर देखा जाएगा और पूरे देश में एक प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की भी बात नई नीति में है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नई शिक्षा नीति में कई अच्छी पहल शामिल हैं। उदाहरण के लिए शीर्ष 200 संस्थानों को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करना, प्रतिस्पर्धी और समकक्ष समीक्षा वाले अनुदान प्रस्तावों को वित्तीय सहायता देने के वास्ते स्वतंत्र राष्ट्रीय शोध फंड की शुरुआत, उच्च शिक्षा निगम को बाजार से दीर्घावधि के ऋण जुटाने देने की अनुमति और विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में स्थायी केंद्र स्थापित करने की इजाजत कई दीर्घकालिक दिक्कतों को दूर करने में सहायक साबित होंगे।
स्कूली शिक्षा के मूलभूत ढांचे में होगा एक बड़ा परिवर्तन
अगर
सबसे
पहले
स्कूली
शिक्षा
की
बात
की
जाए
तो
स्कूली
शिक्षा
के
मूलभूत
ढांचे
में
ही
एक
बड़ा
परिवर्तन
आया
है।
10+2
पर
आधारित
हमारी
स्कूली
शिक्षा
प्रणाली
को
5+3+3+4
के
रूप
में
बदला
गया
है।
इसमें
पहले
5
वर्ष
अर्ली
स्कूलिंग
के
होंगे।
इसे
अर्ली
चाइल्डहुड
पॉलिसी
का
नाम
दिया
गया
है,
जिसके
अनुसार
3
से
6
वर्ष
के
बच्चों
को
भी
स्कूली
शिक्षा
के
अंतर्गत
शामिल
किया
जाएगा।
वर्तमान
में
3
से
5
वर्ष
की
उम्र
के
बच्चे
10
+
2
वाले
स्कूली
शिक्षा
प्रणाली
में
शामिल
नहीं
हैं
और
5
या
6
वर्ष
के
बच्चों
का
प्रवेश
ही
प्राथमिक
कक्षा
यानी
की
कक्षा
एक
में
प्रवेश
दिया
जाता
है।
हालांकि
इन
छोटे
बच्चों
के
प्री
स्कूलिंग
के
लिए
सरकारों
ने
आंगनबाड़ी
की
पहले
से
व्यवस्था
की
थी,
लेकिन
इस
ढांचे
को
और
मजबूत
किया
जाएगा।
नई
शिक्षा
नीति
में
बाल्यावस्था
देखभाल
और
शिक्षा
(Early
Childhood
Care
and
Education
-ECCE)
की
एक
मजबूत
बुनियाद
को
शामिल
किया
गया
है
जिससे
आगे
चलकर
बच्चों
का
विकास
बेहतर
हो।
इस
तरह
शिक्षा
के
अधिकार
(RTE)
का
दायरा
बढ़
गया
है।
यह
पहले
6
से
14
साल
के
बच्चों
के
लिए
था,
जो
अब
बढ़कर
3
से
18
साल
के
बच्चों
के
लिए
हो
गया
है
और
उनके
लिए
प्राथमिक,
माध्यमिक
और
उत्तर
माध्यमिक
शिक्षा
अनिवार्य
हो
गई
है।
5+3+3+4
के
प्रारूप
में
पहला
पांच
साल
बच्चा
प्री
स्कूल
और
कक्षा
1
और
2
में
पढ़ेगा,
इन्हें
मिलाकर
पांच
साल
पूरे
हो
जाएंगे।
इसके
बाद
8
साल
से
11
साल
की
उम्र
में
आगे
की
तीन
कक्षाओं
कक्षा-3,
4
और
5
की
पढ़ाई
होगी।
इसके
बाद
11
से
14
साल
की
उम्र
में
कक्षा
6,
7
और
8
की
पढ़ाई
होगी।
इसके
बाद
14
से
18
साल
की
उम्र
में
छात्र
9वीं
से
12वीं
तक
की
पढ़ाई
कर
सकेंगे।
यह
9वीं
से
12वीं
तक
की
पढ़ाई
बोर्ड
आधारित
होगी,
लेकिन
इसे
खासा
सरल
नई
शिक्षा
नीति
में
बनाया
गया
है।
बोर्ड
परीक्षा
को
दो
भागों
में
बांटने
का
प्रस्ताव
है,
जिसके
तहत
साल
में
दो
हिस्सों
में
बोर्ड
की
परीक्षा
ली
जा
सकती
है।
इससे
बच्चों
पर
परीक्षा
का
बोझ
कम
होगा
और
वह
रट्टा
मारने
की
बजाय
सीखने
और
आंकलन
पर
जोर
देंगे।
स्कूली
शिक्षा
में
एक
और
अहम
बदलाव
के
रूप
में
'मातृभाषा'
को
शामिल
किया
गया
है।
नई
शिक्षा
नीति
के
अनुसार
अब
बच्चे
पहली
से
पांचवी
तक
की
कक्षा
अपनी
मातृभाषा
के
माध्यम
में
ही
ग्रहण
करेंगे।
इसके
अलावा
यह
भी
कहा
गया
है
कि
अगर
आगे
की
कक्षाओं
में
भी
इसे
जारी
रखा
जाता
है
तो
यह
और
बेहतर
होगा।
शिक्षा
मंत्रालय
का
कहना
है
कि
बच्चा
अपनी
भाषा
में
चीज़ों
को
बेहतर
ढंग
से
समझता
है,
इसलिए
शुरूआती
शिक्षा
मातृभाषा
माध्यम
में
ही
होना
चाहिए।
नई
शिक्षा
नीति
में
इस
बात
पर
भी
जोर
है
कि
जो
भी
बच्चा
12वीं
तक
की
प्रथम
चरण
की
शिक्षा
पूरी
कर
लेता
है,
उसके
पास
कम
से
कम
एक
स्किल
जरूर
हो
ताकि
जरूरत
पड़ने
पर
वह
इससे
रोजगार
कर
सके।
सरकार
ने
कहा
कि
इसके
लिए
सभी
स्कूलों
में
इंटर्नशिप
की
व्यवस्था
की
जाएगी
और
बच्चे
स्थानीय
प्रतिष्ठानों
में
जाकर
अपने
मन
का
कोई
स्किल
सीख
सकेंगे।
प्राइवेट ट्यूशन पर नई शिक्षा नीति से लगेगी लगाम
माना जा रहा है कि नई शिक्षा नीति से देश में चल रहे हजारों करोड़ के ट्यूशन कारोबर पर काफी बुरा असर होगा। नई शिक्षा नीति में इस बात पर जोर दिया गया है कि स्कूल में ऐसे विषय पढ़ाए जाएं जिससे बच्चों का मकसद सीखना बने कि उन्हें प्राइवेट कोचिंग जाने की जरूरत हो। रिपोर्ट में कहा गया है कि माता-पिता द्वारा भारत में हर साल स्कूल एजुकेशन के नाम पर 1.9 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं। इसमें से आधा पैसा एजुकेशन फीस के रूप में खर्च हो जाते हैं। 20 फीसदी करीब किताब खर्च में जाते हैं और 13 फीसदी हिस्सा प्राइवेट ट्यूशन में खर्च होते हैं। बता दें कि नई शिक्षा नीति को इस तरह डिजाइन किया गया है कि हर बच्चे में स्किल डिवेलप किया जा सके। नई शिक्षा नीति में वादा किया गया है कि सरकार इस दिशा में जीडीपी का 6 फीसदी तक खर्च करेगी। हालांकि इस पॉलिसी की सबसे बड़ी चुनौती होगी शिक्षकों को नए पाठ्यक्रम और सोच के मुताबिक तैयार करना और बदलना।
सत्यपाल मलिक बने मेघालय के राज्यपाल, भगत सिंह कोश्यारी को मिला गोवा का अतिरिक्त प्रभार
नई शिक्षा नीति में सराहने लायक ढेर सारी बातें हैं लेकिन इसके प्रभाव की असली परीक्षा इसके क्रियान्वयन में निहित है। इस नीति में देश को 21वीं सदी की चुनौतियों के लिहाज से कौशल संपन्न बनाने पर ध्यान केंद्रित है और कुछ मायनों में इस नीति के प्रस्ताव उस लक्ष्य को हासिल करते हुए भी दिखते हैं। माध्यमिक शिक्षा की बात करें तो नीति में समग्र शिक्षण पर जोर दिया गया है और कहा गया है कि कला, विज्ञान और वाणिज्य जैसे अलग-अलग विषयों में भेद नहीं किया जाए। यह भी कि उच्चतर माध्यमिक में पढऩे वाले छात्रों को भी चयन की स्वतंत्रता रहेगी। संगीत, कला और खेलों को छात्रों के चयन के लिए उपलब्ध कराना भी अपने आप में प्रगतिशील कदम है। नीति ने आंशिक तौर पर इस बात को भी चिह्नित किया देश में बहुभाषी विविधता मौजूद है।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)