वंदेमातरम् कांग्रेस-बीजेपी दोनों के लिए क्यों बन गया है ‘हॉट केक’
नई दिल्ली। राजनीति अब उन मुद्दों की गुलाम हो गयी है जो जनता की बुनियादी ज़रूरतों से दूर है मगर भावनाएं सहलाने का माद्दा रखती हैं। भावनाएं सहलाना भी दो तरीके से होता है-एक किसी खास धर्म, भाषा, जाति से संबंधित आबादी को ख़ुश करना, दूसरा इन्हीं आधारों पर किसी आबादी को नाराज़ करना। ये दोनों तरीके कई बार एक ही मुद्दे में आजमा लिए जाते हैं जो बहुत ख़तरनाक है। मगर, ख़तरनाक है तो क्या? राजनीति को यही ख़तरनाक एडवेंचर पसंद आने लगा है।
मध्यप्रदेश ताजा उदाहरण है। 13 साल पहले बीजेपी की सरकार में एक परम्परा शुरू हुई थी। मध्यप्रदेश सचिवालय में महीने की पहली तारीख को वंदे मातरम् का गाया जाना। यह परम्परा कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने तोड़ दी।
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मध्यप्रदेश में वंदेमातरम् की परम्परा के पीछे भी था मकसद
जब वंदे मातरम् की परम्परा शुरू हुई, तब भी इसका मकसद एक आबादी को ख़ुश और एक आबादी को नाराज़ करना था। मगर, आरम्भिक हलचल के बाद वंदेमातरम् एक परम्परा बन चुकी थी। यह स्थापित परम्परा अपने आप में यह संदेश देती है कि आम लोगों को इस बात से बहुत फर्क नहीं पड़ता कि वंदेमातरम् गाया जाए या नहीं गाया जाए। सचिवालय में यह राष्ट्रीय गान नहीं गाया जाता था, तब भी उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। जब गाया जाने लगा, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा।
परम्परा को तोड़ा भी गया तो वह नहीं था बेमकसद
कमलनाथ सरकार ने जब सचिवालय में महीने की पहली तारीख को वंदेमातरम् गाने की परम्परा को रोका, तो दिक्कत किसे हुई? यह वही शिवराज सिंह चौहान और उनकी पार्टी बीजेपी थी जिन्होंने इस परम्परा को शुरू किया था। फिर सवाल उठता है कि कमलनाथ सरकार ने ऐसा किया ही क्यों? क्या बीजेपी को नाराज़ करना ही उनका मकसद था? इसका जवाब ये ही कि जिस मकसद के साथ बीजेपी ने वंदेमातरम् को सरकारी परम्परा में शामिल किया था, उसी मकसद से वह इसे हटाते हुए भी दिखना चाहते थे। फर्क ये था कि जिस आबादी को बीजेपी सम्बोधित कर रही थी, उससे अलग थी यह आबादी।
थोड़ी राजनीतिक हलचल के बाद वंदेमारतरम् को मध्यप्रदेश की सरकारी परम्परा से अलविदा कह दिया जा सकता था और लोग इसे स्वीकार भी कर लेते। यह ठीक वैसे ही होता जैसे देश में अलग-अलग शहरों के नाम बदलने की राजनीतिक मुहिम के बाद होता आया है। मगर, कमलनाथ और कांग्रेस को यह भी मंजूर नहीं था। वह आबादी के दोनों हिस्सों में बने रहना चाहते हैं। वंदेमातरम् के विरोधी और समर्थक दोनों वर्ग में अपना जनाधार खोना नहीं चाहते। लिहाजा अपने कदम से महज उन्होंने संदेश देने की सियासत की।
नये रूप में वंदेमातरम् या सॉफ्ट वंदेमातरम् पॉलिसी?
जल्द ही कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने यह एलान कर दिया कि हर महीने शौर्य स्मारक से पुलिस बैंड के साथ एक यात्रा निकला करेगी, जो मंत्रालय में खत्म होगी। उसके बाद वहीं वंदेमातरम् गान का आयोजन किया जाएगा। एक तरह से कांग्रेस का सॉफ्ट हिन्दुत्व वाला रुख यहां भी दिखाने की कोशिश हुई है। इसे सॉफ्ट वंदेमातरम् भी बोला जा सकता है।
कांग्रेस का जो सॉफ्ट हिन्दुत्व दिखा है वह उसके राजनीतिक करियर का खोया हुआ आयाम भर है। अन्यथा यह सॉफ्ट हिन्दुत्व राम मंदिर परिसर का ताला खुलने के समय भी दिखा था, मगर तब शाहबानो प्रकरण में मुस्लिम महिलाओं के लिए तलाक की स्थिति में सरकार की ओर से गुजाराभत्ता देने की व्यवस्था के जरिए राजीव सरकार ने इसकी भरपाई भी की थी।
सॉफ्ट वंदेमातरम् में कमलनाथ सरकार इसकी परम्परा तोड़ती भी है और नये ताम-झाम के साथ कुछेक अतिरिक्त विशेषताएं जोड़ते हुए इस परम्परा में कुछ जोड़ती भी है। ऐसा करके मुख्यमंत्री कमलनाथ उस आबादी को भी संतुष्ट करते दिखते हैं जिनसे वे चुनाव प्रचार के दौरान 90 फीसदी मतदान सुनिश्चित करने की अपील कर रहे थे। साथ ही, उस आबादी को भी खुश करते दिखते हैं जिनके नाराज़ होने का ख़तरा वंदेमारम् की परम्परा में व्यवधान के बाद पैदा हो गया था।
सॉफ्ट हिन्दुत्व या सॉफ्ट वंदेमातरम् है हिन्दू-मुस्लिम साझा तुष्टिकरण
सॉफ्ट हिन्दुत्व या सॉफ्ट वंदेमातरम् की पूरी कवायद हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त तुष्टिकरण का लॉन्चिंग पैड बन गयी है। जो राहुल गांधी जनेऊ पहनने से लेकर, मंदिर-मंदिर घूमने और गोत्र तक को सार्वजनिक करने को बहुत साधारण रूप में प्रदर्शित करते दिख रहे थे जबकि यह खुद उनके लिए असाधारण बात थी, वही राहुल और उनकी कांग्रेस तीन तलाक बिल को लेकर संसद में बिल्कुल नये अंदाज में दिखाई पड़े।
वंदेमातरम् राष्ट्र गीत है। इसके साथ इसकी स्वीकार्यता को लेकर बहस का अतीत है। राष्ट्रगान बनने की स्पर्धा में ‘वंदेमातरम्' भी ‘जन-गण-मन' के साथ था मगर जीत ‘जन-गण-मन' की हुई थी। वंदेमातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में भी इसके चंद टुकड़े ही स्वीकार किए गये हैं तो यह जवाहरलाल नेहरू की ओर से मांगी गयी सलाह पर गुरु रविन्द्रनाथ टैगोर की सलाह थी। वंदेमातरम् सम्पूर्ण रूप में देश के लिए खुद उनकी नज़रों में भी स्वीकार्य नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट में भी उठ चुका है मुद्दा
बारम्बार इस मसले को इसलिए राजनीतिक फलक पर फ्लोट किया जाता है ताकि दो आबादी को संतुष्ट करने वाली स्थितियां बने। यह काम दोनों ओर से होता है। पिछले वर्ष बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने जनहित याचिका डाली थी और इसके गायन को लेकर एक समग्र नीति की मांग उठायी थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि अनुच्छेद -51 एक में सिर्फ राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का उल्लेख है, राष्ट्रीय गीत का नहीं। इस वजह से इस पर बहस में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं। वास्तव में वंदेमातरम् को लेकर बार-बार बहस की आवश्यकता है ही नहीं। मगर, राजनीति की आवश्यकता यह हमेशा बनी रहेगी। राजनीति के लिए यह मसला जब उठाया जाए तभी हॉट केक है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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