ठाकरे परिवार अब मुश्किल दौर में
शिवसेना में यह चौथा विद्रोह हुआ है। सबसे पहला विद्रोह छगन भुजबल ने किया था जो कि शुरुआती शिवसैनिक थे। 1991 में शिवसेना से अलग होकर वो कांग्रेस में चले गये थे। दूसरा विद्रोह जुलाई 2005 में नारायण राणे ने किया, जो शिवसेना की ओर से राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके थे। तीसरी बार शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के घर से ही अलगाव हुआ। नवंबर 2005 में ही बाल ठाकरे के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के तौर पर उभरे राज ठाकरे ने अपनी अलग राह चुनी। अब ये चौथा विद्रोह एकनाथ शिंदे की अगुवाई में शिवसेना के ही दो तिहाई विधायकों ने किया है जिसके परिणामस्वरूप आखिरकार उनके नेता उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।
किसी राजनीतिक दल में विद्रोह होना कोई नई बात नहीं है। हर राजनीतिक दल में विद्रोह होता रहा है। लेकिन शिवसेना में जैसा विद्रोह आज हुआ है वैसा करीब 53 साल पहले सिर्फ कांग्रेस में ही हुआ था। हालांकि उसे विद्रोह से ज्यादा बंटवारे के रूप में याद किया जाता है। यह बात और है कि उस बंटवारे के बाद मूल कांग्रेस ही खत्म होती चली गई और मूल से अलग हुई इंदिरा कांग्रेस ही भारतीय राजनीति पर स्थापित हो गयी।
लेकिन शिवसेना का मौजूदा विद्रोह अतीत के तमाम विद्रोहों से बुनियादी रूप से अलग है। अतीत में हुए विद्रोहों का आधार व्यक्तिगत अहं के टकराव और निजी असंतोष रहे। लेकिन मौजूदा विद्रोह संगठन की मूल वैचारिकता को बचाए और बनाए रखने के मुद्दे पर रहा। शिवसेना की पहचान और उसकी पूरी विकास यात्रा अक्खड़ हिंदुत्व के वैचारिक आधार पर हुई है। शिवसेना के प्रथम परिवार के मराठा राजनीति के दिग्गज शरद पवार के साथ निजी संबंध भले ही हों, लेकिन वैचारिकता की बुनियाद में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का ना तो ईंट एक है और ना ही गारा। बालू और सीमेंट की तो बात ही भूल जाइए। शिवसेना जिस अक्खड़ हिंदुत्व के मुद्दे पर खड़ी रही है, वह भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक धारा के कहीं ज्यादा नजदीक है। यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी के साथ उसका तालमेल स्वाभाविक माना जाता रहा है। जब भाजपा को नीचा दिखाने के लिए संजय राउत की पहल पर शिवसेना ने अपने ठीक उलट वैचारिक ध्रुव पर खड़ी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस से हाथ मिलाया तो हिंदुत्व की अक्खड़ और दबंग धारा के साथ राजनीति में उभरे शिवसैनिकों को अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। उन्हें लगने लगा कि मूल वैचारिकी से उनकी दूरी उन्हें जनता की नजर में भी गिरा देगी।
रही-सही कसर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को मंत्रिमंडल में मिली विशेष तवज्जो और मलाईदार मंत्रालयों ने पूरी कर दी। सबसे महत्वपूर्ण गृह मंत्रालय एनसीपी ने अपने पास रखा। उसके एक गृह मंत्री भ्रष्टाचार और कदाचार के आरोप में जेल की हवा खा रहे हैं। गृह मंत्रालय हाथ में आने के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का अपना राजनीतिक एजेंडा ज्यादा हावी रहा। पालघर के साधुओं की हत्या का मामला हो या फिर मामूली बात के लिए केतकी चितले को जेल में डालना या फिर कंगना से प्रतिशोध लेकर उनके दफ्तर को तोड़ना, हर बार निजी एजेंडा एनसीपी का चलता नजर आया, लेकिन सरकार का प्रमुख होने की वजह से शिवसेना की विचारधारा लगातार सवालों के घेरे में रही।
शरद पवार बेहत चतुर राजनेता हैं। उन्हें पता था कि गृहमंत्रालय उनके पास होने से महाराष्ट्र में असल शासन उनका चलेगा, लेकिन उससे अगर बदनामी हुई तो उसके लिए शिवसेना को जवाब देना भारी पड़ेगा। सरकार और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का जनता से सीधा संवाद शायद ही रहता होगा। जाहिर है कि शिवसेना की वैचारिकी को तार तार होते देखने के बाद लोगों में भी प्रतिक्रिया होती होगी, वे अपने शिवसेना नेताओं से पूछते होंगे। इसका दबाव विधायकों पर भी होगा और जाहिर है कि वे घुटन महसूस करते रहे होंगे।
इस
बीच
शिवसेना
के
विधायकों
तक
का
अपने
नेता
से
संवाद-संपर्क
लगातार
कम
होता
चला
गया।
इसकी
वजह
से
बात
बढ़ती
रही।
ऐसी
स्थिति
में
असंतोष
बढ़ना
स्वाभाविक
रहा।
इसे
भड़काने
में
संजय
राऊत
की
बयानबाजी
ने
आग
में
घी
की
तरह
काम
किया।
इसका
फायदा
भारतीय
जनता
पार्टी
को
उठाना
ही
था।
भारतीय
जनता
पार्टी
भी
राजनीति
कर
रही
है,
वह
समाधि
लगाने
या
संतई
करने
मैदान
में
थोड़े
है।
इसलिए
उसने
बागी
शिवसैनिकों
से
संपर्क
किया।
वैसे
शिवसैनिक
बरसों
से
भारतीय
जनता
पार्टी
के
साथ
जारी
रिश्तों
की
वजह
से
भाजपा
को
अपना
स्वाभाविक
साथी
मानते
रहे
हैं।
वैचारिकी
से
भटकाव
और
उसके
बाद
शिवसेना
के
दो
तिहाई
विधायकों
का
बागी
हो
जाना
ठाकरे
परिवार
के
लिए
संकट
का
संकेत
भी
दे
रहा
है।
बाल
ठाकरे
जानते
थे
कि
अगर
सत्ता
में
सीधी
भागीदारी
करेंगे
तो
मातोश्री
की
साख
कमजोर
होगी।
लेकिन
उद्धव
इसे
नहीं
समझ
पाए।
सत्ता
में
सीधी
भागीदारी
की
और
सलाहकार
ठीक
नहीं
रखे।
इसलिए
शिवसेना
में
मूल
विचारों
से
भटकाव
बढ़ा
और
नतीजा
सामने
है।
बेशक शिवसैनिक और बागी विधायक अब भी शिवसेना प्रमुख को अपना नेता कह रहे हैं, लेकिन यह सच है कि अब उनका वैसा रूतबा नहीं रह जाएगा, जैसा मुख्यमंत्री बनने से पहले कम से कम शिवसैनिकों की नजर में था। यह मातोश्री के लिए चुनौतीपूर्ण स्थिति होगी। इसके बाद अगर ठाकरे परिवार के पराभव के दिन शुरू हो जाएं तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)