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इस गलती की माफी नहीं हो सकती, शहीदों को श्रद्धांजलि में भेदभाव क्यों?

By प्रेम कुमार
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नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर के हंदवाड़ा में शहीद सीआरपीएफ इंस्पेक्टर पिंटू सिंह का शव जब पटना लाया गया, तब राजधानी में बहुत बड़ा राजनीतिक मजमा लगा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान समेत दर्जनों नेता वहां मौजूद थे। अलग से किन्हीं को समय निकालना नहीं था। शिड्यूल आगे-पीछे हो जाता। मगर, इन नेताओँ की प्राथमिकता में शहीद पिंटू सिंह थे ही नहीं। एक भी नेता शहीद के शव आते वक्त पटना एयरपोर्ट पर मौजूद नहीं दिखे। न ही उन्हें श्रद्धांजलि देने इनमें से कोई पहुंच सका।

शहीद पिंटू सिंह के परिजनों ने उठाए थे सवाल

शहीद पिंटू सिंह के परिजनों ने उठाए थे सवाल

इंस्पेक्टर पिंटू सिंह की शहादत की ये अनदेखी अक्षम्य है और यही वजह है कि पिंटू सिंह के पिता ने जब रैली ख़त्म होने के बाद देर रात बीजेपी और जेडीयू के नेता उनके घर पहुंचे, तो उनकी श्रद्धांजलि को कबूल नहीं किया। उन्होंने इसे शहीद का अपमान बताया। इस घटना के बाद जेडीयू उपाध्यक्ष प्रशान्त किशोर ने माफी मांगी है।

एक पिता के ज़ख्म को यह माफी हरगिज नहीं भर सकती। मगर, सवाल ये है कि क्या ये महज एक पिता का ज़ख्म है? इस दर्द को प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने महसूस क्यों नहीं किया? इस दर्द को रैली में मस्त एनडीए के दूसरे नेताओं ने महसूस क्यों नहीं किया? महसूस करना तो दूर की बात है। शहीद का शव राजधानी पटना पहुंचा हो और उसकी पीएम-सीएम अनदेखी कर रहे हों- यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है।

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शहीद के सम्मान में क्या रद्द नहीं हो सकती थी रैली?

शहीद के सम्मान में क्या रद्द नहीं हो सकती थी रैली?

शहीद पिंटू सिंह के पिता ने बहुत वाजिब सवाल उठाया है- क्या शहीद के लिए पटना में हुई रैली को रद्द नहीं किया जा सकता था? मगर, ये सवाल आम लोगों का सवाल नहीं बन पा रहा है। यह मान लिया गया है कि जवानों की शहादत नियमित होने वाली घटना है। जब पुलवामा में 40 जवानों की शहादत के बाद प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने अपने रूटीन के कार्यक्रम रद्द नहीं किए, तो यह बात इसी मान्यता की पुष्टि है।

मनमाने तरीके से शहादत की घटनाओं को राजनीति ने इस्तेमाल किया है। 14 फरवरी के बाद जब 26 फरवरी को एयरस्ट्राइक हुई तो कहा गया कि 13वीं तक चुप रहने की सामाजिक परम्परा है इसका पालन करते हुए शहादत का बदला लिया गया है। मगर, 13वीं तक राजनीतिक घटनाओं को स्थगित नहीं करने या कहें कि इसे जारी रखने की परम्परा 2019 की चुनावी फिजां ने विकसित की है।

एक ऐसा आदर्श स्थापित हुआ है कि शहादत की घटनाओं के बीच राजनीति नहीं रुकनी चाहिए। मौत, शहादत, कुर्बानी से ज़िन्दगी की रफ्तार नहीं रुकती, लेकिन ये घटनाएं ज़िन्दगी की रफ्तार को दिशा देती हैं क्या इस बात से भी इनकार किया जा सकता है? अगर पुलवामा की घटना नहीं होती, तो देश ने एयरस्ट्राइक और अभिनन्दन की वापसी से जुड़े गौरव के क्षण भी महसूस नहीं किए होते। गलत को सही करने और इसके लिए सही राह चुनने के लिए जरूरी है कि हम शहादत का सम्मान करें। इस बुनियादी उसूल का पटना में पिंटू सिंह को शहादत देने के मामले में अपमान हुआ है।

पहले भी हुई हैं शहादत के अपमान की घटनाएं

एक साल पहले 14 फरवरी 2018 को भी बिहार में दो सपूतों के शव कश्मीर में शहादत के बाद पहुंचे थे। एक बिहार के खगड़िया में और दूसरा भोजपुर के पीरो में। तब भी एनडीए का कोई नेता शहीदों को श्रद्धांजलि देने नहीं पहुंचा। यहां तक कि स्थानीय जनप्रतिनिधि ज़िले में मौजूद रहते हुए भी श्रद्धांजलि देने का वक्त नहीं निकाल पाए। तब भी परिजनों में गुस्सा दिखा। अब ये किस्मत या बदकिस्मती की बात हो चली है कि कौन सी शहादत राजनीतिक रंग लेकर नेताओं की मौजूदगी का सबब बनेगी और कौन सी नहीं।

शहीदों के साथ भेदभाव को ख़त्म करने का तरीका निषेध ही लगता है। जब इलाके में मौजूद रहते हुए भी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री शहीद को श्रद्धांजलि न दे पाएं, तो ऐसी परम्परा का ही निषेध कर देना चाहिए। किसी और मौके पर भी उन्हें श्रद्धांजलि देने की औपचारिक विवशता को ख़त्म कर देना चाहिए। आखिर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जैसे सार्वजनिक पद को धारण करने वालों के लिए कोई शहीद अपना या पराया तो नहीं हो सकता। फिर किसी शहीद का सम्मान और इसी परिप्रेक्ष्य में उनका अपमान का आधार ऐसे नेताओँ की मौजूदगी या गैर मौजूदगी क्यों हो।

(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)

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English summary
This mistake can not be forgiven, why discrimination in tribute to the martyrs
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