हिंदू लड़की को पहले क़ुरआन बाँटने का आदेश और फिर आदेश वापस लेने के पीछे क्या?
नई दिल्ली। अक्सर यह कहा जाता है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान किया जाना चाहिए। यह सही भी है। जहाँ रहकर कोई अपनी भावनाओं को व्यक्त ही ना कर सके वह समाज या वह राष्ट्र भले ही नक्शे में मौजूद हों लेकिन उसमें आत्मा की 'प्राण-प्रतिष्ठा' तो नहीं ही हो सकेगी। लेकिन बात सिर्फ इतनी सी ही नहीं है। हमारी आजादी और अधिकार के साथ ही हमारे कर्तव्य भी आते हैं। यह दोनों साथ-साथ चलते हैं। और जब बातें रचनात्मकता की होती है तो कर्तव्यों की जिम्मेदारी दोगुनी हो जाती है क्योंकि यह अपने प्रभाव में ना केवल उस व्यक्ति तक सीमित रहता है बल्कि इसका व्यापक प्रभाव पूरे समाज और आने वाली नस्लों पर भी पड़ता है। लेकिन आज की 'नई राजनीति' ने खासकर युवाओं में, चाहे-अनचाहे एक अघोषित आक्रोश को उभारा है, जो हर मसले का हल उग्रता से ही करना चाहता है।
मामला क्या था?
झारखंड के रांची के पिठोरिया निवासी ऋचा पटेल उर्फ ऋचा भारती ने कुछ दिन ही पहले हुए तबरेज अंसारी की लिंचिंग की घटना से जुड़े दूसरे यूज़र्स के कुछ भड़काऊ संदेशों को अपने फेसबुक वाल पर शेयर किया था। यह विवाद का मुख्य मुद्दा था। वैसे ऋचा भारती ने अपने कुछ सोशल मीडिया पोस्टों में महान विभूतियों और फिल्मी सितारों के खिलाफ भी टिप्पणी की थी। इसी से आहत होकर इस मामले में पिठोरिया की ही अंजुमन इस्लामिया कमेटी ने केस दर्ज कराया था। फिर लड़की को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया था।
मामले ने कैसे तूल पकड़ा?
अंजुमन इस्लामिया कमेटी की शिकायत पर हुए केस दर्ज के बाद ऋचा पटेल की गिरफ्तारी हुई थी। इसके साथ ही कई हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने इस गिरफ़्तारी खिलाफ प्रदर्शन करने शुरू कर दिए थे। उनका कहना था की यह गिरफ़्तारी बिल्कुल जायज नहीं है। इन संगठनों ने ऋचा की जल्द रिहाई की मांग की। धीरे -धीरे यह प्रदर्शन और बढ़ता ही गया जब तक कि दो समुदायों ने आपस में समझौता नहीं कर लिया। लेकिन मामला तब और बिगड़ गया जब कोर्ट ने ऋचा के रिहाई के फैसले में क़ुरआन बांटने की शर्तें रख दी। कोर्ट के इस आदेश से सांप्रदायिक बातें और तूल पकड़ ली। इस पर विरोध के स्वर मुखर होने लगे। फिर पहले से ही रहे विवादित मामले में हिंदू संगठनों के शामिल होने से मामला और पेचीदा हो गया था।
क़ुरआन बांटने के फैसले देने के पीछे कोर्ट की क्या सोच रही होगी?
साम्प्रदायिकता से उपजे हालात भयावह होते हैं। यह जब फ़ैल जाती है तो फिर यह नहीं देखती की इसकी आग में कौन झुलस रहा है और कौन नहीं। यह बेकाबू हो जाती है। सांप्रदायिक अराजकता फैलने से रोकने का सबसे बेहतर उपाय है की हम किसी भी धर्म को किसी और धर्म से कमतर नहीं समझें। 'सर्व धर्म समभाव' की भावना हमारे भीतर हों। किसी भी धर्म के लोग खुद को उपेक्षित नहीं समझें। उन्हें यह लगे की लोगों के धर्म भले अलग हों, उनकी मान्यताएं चाहे अलग हों लेकिन उनके दिल में उनके धर्म के लिए भी प्यार है। रांची कोर्ट का सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने वाले आरोप पर हिन्दू लड़की को क़ुरआन बांटने का आदेश देने वाले फैसले के पीछे जरूर यही सुधारात्मक बातें रही होंगी।
कोर्ट ने अपना आदेश वापस ले लिया, क्यों?
दरअसल, कोर्ट का यह फैसला किसी नियम कायदे से बंधा न होकर व्यक्ति में ह्रदय-परिवर्तन होने की सम्भावना के उद्देश्य से स्व-विवेक पर आधारित था। लेकिन, इस फैसले का विरोध तमाम संगठनों, अधिवक्ताओं और आम लोगों ने किया। कोर्ट के क़ुरआन वाले फैसले के खिलाफ ऋचा भारती ने हाई कोर्ट में अपील की भी बात कही थी। इस मामले में भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने उनकी मदद करने की पेशकश की थी। यह मामला राजनीतिक रूप लेता जा रहा था। इस बीच पूरे मामले की जांच कर रहे जांच अधिकारी ने कोर्ट से अपील की थी कि वह पांच कुरान बांटने वाली अपनी शर्त वापस ले लें क्योंकि इस शर्त को लागू करने में काफी कठिनाई आ रही है। वैसे भी यह मामला बेवजह ही एक फोड़े का नासूर में बदलने जैसा होता जा रहा था। इसलिए इस अपील के बाद कोर्ट ने कुरआन वाली अपनी शर्त हटाकर विवाद को और बढ़ने से बचा लिया।
'जय श्रीराम' का उदघोष कितना धार्मिक कितना राजनीतिक और कितना दबंगई?