
इंडिया गेट से: नुपुर शर्मा पर आपकी टिप्पणी भी 'लूज टॉक' ही है जज साहब!
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने शुक्रवार को नुपुर शर्मा के मामले में जो टिप्पणी किया है वह एक तरह से सारी दुनिया के इस्लामिक आतंकवाद को नकार कर उसका ठीकरा नूपुर शर्मा के सर फोड़ देने जैसा है। उनकी यह टिप्पणी एक तरह से आतंकवाद का समर्थन ही है कि उदयपुर में कन्हैयालाल का सर तन से जुदा इसलिए किया गया क्योंकि नूपुर शर्मा ने पैगंबर मोहम्मद की आयशा से शादी की बात टीवी चैनल पर कह दी थी। फिर तो शायद जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस पारदीवाला पिछले दिनों देशभर की मस्जिदों में लगाए गए 'सर तन से जुदा' के नारों को भी जस्टिफाइड मानते होंगे। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस पारदीवाला बिना मुद्दे की गहराई में गए बोल दिया कि नूपुर शर्मा ने टीवी पर "लूज टाक" किया है जिससे देश में माहौल खराब हुआ है। इसलिए नूपुर शर्मा को देश से माफी मांगनी चाहिए।

जस्टिस सूर्यकांत क्या भूल गए कि हिजाब पर फैसला सुनाने वाले कर्नाटक हाईकोर्ट के जज को भी इस्लामिक जेहादियों ने सर तन से जुदा करने की धमकी दी थी। धमकी देने वाले कोवन रहमतुल्ला और एस जमाल मोहम्मद उस्मानी को गिरफ्तार किया गया था। सवाल ये है कि क्या हाईकोर्ट के जज का फैसला "लूज टाक" या बड़बोलापन था जो उन्हें मारने की धमकी दी गई थी? क्या जस्टिस सूर्यकांत उसी तरह कर्नाटक हाईकोर्ट के जजों को भी मुसलमानों से माफी मांगने के लिए कहेंगे, जिस तरह उन्होंने नूपुर शर्मा से माफी मांगने के लिए कहा है?
कर्नाटक हाईकोर्ट के जजों ने अपने फैसले में कहा था कि हिजाब कुरआन या हदीसों के अनुसार इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं है। कर्नाटक के जजों ने बाकायदा कुरआन और हदीसों का अध्यन करवाया। क्या जस्टिस सूर्यकांत ने हदीसों का अध्ययन करवा कर कहा है कि आयशा और पैगम्बर मोहम्मद की शादी के संबंध में कही गई नूपुर शर्मा की बात गलत थी? एक तरह से उन्होंने नूपुर शर्मा की बात को गलत ही तो ठहराया है, जबकि नूपुर ने वही कहा था जो हदीसों में एक नहीं कई बार कहा गया है। अदालतों में जजों का काम क़ानून और तथ्यों के आधार पर इन्साफ करना होता है, बड़बोलेपन से अपराधियों के हौंसले बुलंद करना नहीं होता। अगर नूपुर ने लूज टॉक किया है तो जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी परदीवाला ने भी लूज टॉक ही किया है। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस परदीवाला की मौखिक टिप्पणी को कांग्रेस और मुस्लिम राजनीतिक दलों ने अदालत के फैसले की तरह इस्तेमाल करके भारत की सुप्रीम कोर्ट को चौराहे पर खड़ा करने में कोई परहेज नहीं किया जबकि यह अदालत का फैसला नहीं बल्कि जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस परदीवाला की अपना व्यक्तिगत "लूज टाक" है।
उनके सामने याचिका सिर्फ यह आई थी कि नूपुर शर्मा के खिलाफ देश भर में दायर की गई एफआईआर को एक जगह दिल्ली में स्थानांतरित किया जाए। उनके सामने याचिका यह नहीं थी कि नूपुर शर्मा ने जो भी कहा था हदीसों के मुताबिक़ ही कहा था , इसलिए सारी एफआईआर रद्द की जाएं। ये सारी एफआईआर गैर भाजपा शासित राज्यों में विद्वेष के आधार पर दर्ज की गई हैं। इसी तरह जब पालघर में दो साधुओं की मॉब लिंचिंग के मामले में अर्नब गोस्वामी ने सोनिया गांधी पर टिप्पणी थी तो सत्ता का दुरूपयोग करते हुए महाराष्ट्र की उद्धव सरकार ने अर्नब गोस्वामी के खिलाफ एक बंद मुकद्दमें को खोल कर उन्हें गिरफ्तार किया था। तब इसी सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस चन्द्रचूड ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जानदार टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि "यदि हम एक संवैधानिक न्यायालय के रूप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?... अगर कोई राज्य किसी व्यक्ति को जानबूझकर टारगेट करता है, तो एक मजबूत संदेश देने की आवश्यकता है।" नूपुर शर्मा का मामला भी जानबूझ कर टार्गेट करने का है, जबकि दुनियाभर के अनेक इस्लामिक स्कॉलर यह कह चुके हैं कि नूपुर शर्मा ने वही कहा है जो हदीसों में दर्ज है। हाँ कहने का तरीका इस्लाम पर तंज कसना था, इस पर उनकी आलोचना हो सकती है।
जब मुकद्दमा आगे चलेगा और उसकी सुनवाई जस्टिस सूर्यकांत की जगह कोई अन्य जस्टिस करेंगे तो हदीसें भी सामने आएंगी और हर तथ्य सामने रखे जाएंगे। फिलहाल तो नैचुरल जस्टिस का यही तकाजा है कि अगर एक मुद्दे पर एक ही जगह हुई किसी घटना पर विद्वेष के चलते जगह जगह एफआईआर दर्ज की गई हों तो उन्हें एक जगह लाया जाए और एक साथ मुकद्दमा दायर किया जाए। अर्णब गोस्वामी के मामले में सुप्रीम कोर्ट स्वयं ये काम कर चुका है। इसलिए नूपुर शर्मा की यह याचिका कोई अनोखी नहीं थी। सुप्रीमकोर्ट ने ही अभी सिर्फ एक महीना पहले 22 मई को बाईक टैक्सी सर्विस स्कीम घोटाले मामले में जगह जगह दायर एक सौ से ज्यादा एफआईआर को एक जगह ग्रेटर नोयडा में स्थानांतरित किया था। वैसे इसपर भी एक क़ानून की जरूरत है कि जहां घटना हुई हो, सिर्फ वहीं एफआईआर दर्ज हो। इस तरह की सैंकड़ों याचिकाएं इससे पहले भी दाखिल होती रही हैं। जस्टिस सूर्यकांत को अगर याचिका स्वीकार नहीं करनी थी तो वह खारिज कर देते। एक तरफ तो उन्होंने याचिकाकर्ता को हाईकोर्ट में जाने की सलाह दी और दूसरी तरफ बिना मुकद्दमा शुरू हुए याचिकाकर्ता को दोषी भी ठहरा दिया। जस्टिस सूर्यकांत ने नूपुर शर्मा को विभिन्न राज्यों में दायर एफआईआर को एक जगह लाने के लिए हाई कोर्ट जाने की सलाह दी है, लेकिन अभी सिर्फ एफआईआर दर्ज हुई है, उसकी जांच होगी, किस क़ानून के अनुसार क्या अपराध हुआ है, यह जांच एजेंसियां तय करेंगी। फिर कोर्ट में चार्जशीट दाखिल होगी। उस पर सुनवाई होगी। एफआईआर दर्ज करवाने वालों को बताना पड़ेगा कि नूपुर शर्मा ने भारत के किस क़ानून का उलंघन किया है। निचली अदालत फैसला सुनाएगी, फिर हाईकोर्ट में मामला जाएगा, फिर सुप्रीमकोर्ट में आएगा। लेकिन जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस पारदीवाला ने बिना इस सारी प्रक्रिया के पूरा हुए अपना फैसला सुना दिया।
भारत
में
पाकिस्तान
की
तरह
ईश
निंदा
का
कोई
कठोर
क़ानून
नहीं
है।
लेकिन
मी
लार्ड
ने
नूपुर
शर्मा
को
ईशनिंदा
का
अपराधी
घोषित
कर
दिया।
भारत
एक
सेक्युलर
देश
है।
यहाँ
तथ्यात्मक
बहस
और
अभिव्यक्ति
की
आज़ादी
है।
इसी
सुप्रीम
कोर्ट
ने
कभी
गर्व
से
कहा
था
कि
असहमति
लोकतंत्र
का
सुरक्षा
कवच
है।
उसी
अदालत
में
बैठ
कर
मी
लार्ड
ने
नूपुर
शर्मा
के
एक
बयान
को
कन्हैया
की
हत्या
के
लिए
जिम्मेदार
ठहराया
है।
भारतीय
न्यायपालिका
के
इतिहास
में
शायद
ऐसा
पहले
कभी
नहीं
हुआ
कि
कोई
सर्विंग
जस्टिस
राजनीतिक
नेताओं
की
तरह
टिप्पणी
करे।
जस्टिस
सूर्यकांत
और
जस्टिस
पारदीवाला
की
ज़ुबानी
टिप्पणी
सुप्रीमकोर्ट
के
रिकार्ड
में
नहीं
रहेगी,
लेकिन
राजनीतिक
नेताओं
और
मीडिया
को
उन्होंने
माहौल
को
और
खराब
करने
का
मसाला
दे
दिया
है।
उन्होंने
नूपुर
शर्मा
के
बारे
में
कहा
कि
उन्होंने
टीवी
की
बहस
में
'लूज
टॉक'
किया
है
लेकिन
यह
कहना
भी
गलत
नहीं
होगा
कि
खुद
उनकी
टिप्पणी
नूपुर
शर्मा
से
भी
ज्यादा
बड़ा
'लूज
टॉक'
साबित
हुआ
है।
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