2019 में देश के गन्ना भुगतान संकट के और भी गंभीर होने के आसार
नई दिल्ली। भारत में गन्ना किसानों को हजारों करोड़ रुपये के भुगतान संकट का सामना करना पड़ रहा है और 2019 में इस समस्या के और गहराने के आसार हैं। गौरतलब है कि भारत में नई गन्ना कटाई का मौसम इस साल अक्टूबर महीने में शुरू होने वाला है लेकिन किसान अभी भी अपने पुराने बकाये के भुगतान की प्रतीक्षा कर रहे हैं। 8 अगस्त 2018 को जारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में गन्ना किसानों के लिए कुल बकाया राशि 17493 करोड़ रुपये है।
मांग और आपूर्ति में विसंगति भारी बकाया का मूल कारण है। स्वास्थ्य चेतना में वृद्धि वैकल्पिक मीठे पदाथों की खोज और बढ़ रही जागरूकता के परिणामस्वरूप विश्व स्तर पर चीनी की मांग में कमी आई है। इन सबके बावजूद भी चीनी की वैश्विक खपत निरंतर बढ़ रही है, हाल के उत्पादन सत्रों में मांग वृद्धि की गति 1.4% की औसत हो गई है, जो कि पिछले दशक में 1.7% से नीचे थी। हालाांकि मांग में कमी आई है लेकिन बेहतर बीज, प्रति एकड़ गन्ना की उत्पादकता, और पिछले दशक में गन्ने के फसल के तेजी से भुगतान के कारण उत्पादन में वृद्धि जारी है।
ध्यातव्य है कि दुनिया के कुल चीनी उत्पादन में भारत का हिस्सा 17.1% फीसदी है। भारत ब्राजील के बाद दुनिया में चीनी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। भारत में उत्तर प्रदेश (36.1%), महाराष्ट्र (34.3%) और कनार्टक (11.7%), तीन सबसे बड़े चीनी उत्पादक राज्य हैं। चित्र 1 से पता चलता है कि 2015-16 में भारत में चीनी उत्पादन 24.8 मिलियन टन के मुकाबले 2017-18 में बढ़कर 32.25 मिलियन टन हो गयी और आगामी वर्ष (2018-19) में 35.5 मिलियन टन तक पहुंचने की उम्मीद है। लेकिन अब भी मांग करीब 25 मिलियन टन के आस-पास ही स्थिर है। मांग और पूर्ति के बढ़त विसंगति ने चीनी की कीमतों को और नीचे गिरा दिया है, जिसके परिणामस्वरूप गन्ने की फसल का बकाया बढ़ता जा रहा है।
चित्र 1: भारत में चीनी उत्पादन और खपत
उत्तर प्रदेश में लंबित भुगतान की समस्या बेहद गंभीर है। अकेले उत्तर प्रदेश में भारत में कुल बकाया बकाया राशि का लगभग 65% है। 13 अगस्त 2018 को यूपी में गन्ना किसानों को कुल देय राशि 10846.74 करोड़ रुपये थी। अब उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादन में 149.4 मिलियन टन से बढ़कर 182.1 मिलियन टन हो गया है, 2012-13 में 2.42 मिलियन हेक्टेयर से कृषि क्षेत्र में कमी के बावजूद भी 2017-18 में 2.30 मिलियन हेक्टेयर रहा था। इसी अवधि में यूपी में औसत चीनी वसूली दर 9.18% से बढ़कर 10.86% हो गई इसके परिणामस्वरूप चीनी उत्पादन के भुगतान करने की क्षमता और बढ़ गई ।
तालिका 1 : उत्तर प्रदेश में गन्ना और चीनी उत्पादन
चीनी निर्माताओं का राजस्व चीनी की कीमत और तीन प्राथमिक उप-उत्पादों अर्थात गुड़, बैगेज और प्रेस मिट्टी पर निर्भर करता है। गुड़ का उपयोग इथेनॉल के निर्माण के लिए किया जाता है, बैगेज (खोई) का उपयोग पेपर और लुगदी उद्योग में किया जाता है इसके अलावा इस खोई का उपयोग बिजली के अधिशेष के उत्पादन में भी किया जाता है जो राज्यों को बेचा जाता है, और प्रेस मिट्टी का उपयोग किसानों द्वारा खाद के रूप में किया जाता है। भारत के 485 परिचालित चीनी मिलों में से 201 आसवन क्षमता वाली हैं और 128 इकाइयां इथेनॉल का उत्पादन करती हैं। हालांकि, एकीकृत मिलों के कुल राजस्व में इथेनॉल केवल 10-15 प्रतिशत का ही योगदान देता है।
गन्ना व्यापार का अर्थशास्त्र त्रुटिपूर्ण है। हमारे देश में गन्ने की कीमत तो सरकार द्वारा तय की जाती हैं पर चीनी की कीमत बाजार की मांग और आपूर्ति द्वारा निर्धारित की जाती है। सरकार किसानों को एमएसपी के मामले में विपरीत कीमतों का समर्थन करने के लिए चीनी या गन्ना खरीदने के बिना ही कीमतों का फैसला करती है। बाजारों के लिए कुशलता से काम करने के लिए, गन्ना की कीमतें चीनी की कीमतों के साथ मिलाकर निर्धारित की जानी चाहिए। हालांकि, यह देखते हुए कि गन्ना की कीमतें सरकार द्वारा तय की जाती हैं, राजनीतिक दखल के कारण नीचे समायोजन लगभग असंभव हो जाता है। गन्ना की कीमतें आम तौर पर बढ़ती हैं। उत्तर प्रदेश राज्य सलाहकृत मूल्य (एमएसपी) द्वारा 2010-11 में 205 रुपये प्रति क्विंटल के मुकाबले 54% की वृद्धि के साथ 2017-18 में 315 रुपये प्रति क्विंटल हो गई है लेकिन चीनी और अन्य राजस्व उत्पन्न करने के बावजूद भी उप -उत्पादों की में कीमत में अपेक्षित वृद्धि नहीं दर्ज की जा सकी है। बाजार में असंतुलन की स्थिति तब और ख़राब हो जाती है जब चीनी की कीमतों में गिरावट आती है इसके परिणामस्वरूप व्यापार घाटे का हो जाता है। इन सब वजहों से भुगतान में देरी और अन्य प्रकार के चूक इसके मानक बन जाते हैं।
रंगराजन समिति (2012) ने चीनी उद्योग के नियंत्रण व संरचनात्मक असंतुलन को दूर करने हेतु चीनी के बाजार मूल्य के साथ गन्ना की कीमतों को जोड़नें का सुझाव दिया। रंगराजन समिति की रिपोर्ट के आधार पर, कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने गन्ना की कीमतों को ठीक करने के लिए एक मिश्रित दृष्टिकोण की सिफारिश की, जिसमें उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) या Floor- मूल्य और राजस्व साझाकरण फॉर्मूला (आरएसएफ) शामिल किया गया। इस दृष्टिकोण के तहत अगर चीनी और उप-उत्पादों की कीमत अधिक है तो गन्ना किसानों का राजस्व भी अधिक होगा। गन्ना के प्रमुख उत्पादकों में से महाराष्ट्र और कर्नाटक ने राजस्व साझा करने के इस फॉर्म्यूले को स्वीकार कर लिया है। हालांकि, यूपी पुराने एमएसपी मॉडल का पालन कर रहा है। एमएसपी और आरएसएफ द्वारा निर्धारित मूल्य के बीच बड़ा अंतर यूपी में बकाये की गंभीर समस्या का मुख्य कारण माना जाता है। (सूची-2)
तालिका 2: उत्तर प्रदेश में चीनी और गन्ना की कीमतें
इस समस्या का एक समाधान यह है कि चीनी की कीमतों में कमी होने की स्थिति में, सरकारें एमएसपी और आरएसएफ के बीच अंतर की भरपाई करती हैं। किसानों की चिंताओं को दूर करने के लिए, तत्कालीन यूपी सरकार ने 2013-14 में 1,6060 करोड़ रुपये दिए थे। और 2014-15 में 2,979 करोड़ रुपये खरीद कर छूट, समाज आयोग में छूट, और अन्य छूटों को किसानों के खाते में अतिरिक्त प्रत्यक्ष भुगतान के रूप में डायरेक्ट भेजे गए। हालांकि, वर्तमान यूपी सरकार ने इस फॉर्म्यूले को त्याग दिया है।
केंद्र
सरकार
नें
वर्ष
(
मई-जून
(2018)
के
बीच)
8000
करोड़
रुपये
के
राहत
पैकेज
की
घोषणा
की
है।
यह
पैकेज
इथेनॉल
उत्पादन
को
बढ़ावा
देकर
और
सेल्स
कोटे
को
बाध्य
करके
बाजार
में
चीनी
की
कमी
उत्पन्न
करते
हुए
चीनी
की
कीमतों
में
वृद्धि
करने
का
प्रयास
करता
है।
इस
राहत
पैकेज
के
अंतर्गत
इथेनॉल
उत्पादन
में
वृद्धि
के
लिए
चीनी
एमलों
को
5732
करोड़
रुपये
का
ऋण
(4,400
करोड़
रुपये
का
प्रिंसिपल,
और
1,332
करोड़
रुपये
ब्याज
दर
सब्सिडी)
दिया
गया
था।
सरकार
ने
इथेनॉल
की
कीमतों
में
रु2.85
प्रति
लिटर
की
दर
से
वृद्धि
करने
और
चीनी
मिलों
के
राजस्व
के
आधार
को
विविधता
देने
और
चीनी
से
राजस्व
पर
निर्भरता
को
कम
करने
के
लिए
सब
उत्पादों
के
बजाय
डायरेक्ट
चीनी
से
इथेनाल
बनानें
की
छूट
दी।
हालांकि,
कृषि
में
अनिश्चितता
और
कच्चे
तेल
के
बाजार
की
अस्थिरता
को
देखते
हुए,
यह
बहुत
ही
असंभव
है
कि
अल्प
अवधि
में
चीनी
मिलों
की
क्षमता
बढ़ाने
में
भारी
निवेश
होगा।
कच्चे
तेल
की
कीमतों
में
तेजी
से
आने
गिरावट
से
इथेनॉल
मिश्रण
अलाभकारी
और
अवांछित
हो
सकता
है।
इसके अलावा, गन्ना की पानी की तीव्रता को देखते हुए, इथेनॉल उत्पादन पर जोर देना बुरी नीति है। नीति आयोग के समग्र जल प्रबंधन सूचकांक के अनुसार भारत अब तक का सबसे विकट जल संकट का सामना कर रहा है।
गौरतलब है कि भारत में लगभग 60 करोड़ लोगों को अत्यधिक जल संकट का सामना करना पड़ रहा है और स्वच्छ पेयजल तक पहुंच की कमी के कारण हर साल लगभग 2 लाख लोग मर जाते हैं। इस संदर्भ में, गन्ना के खेती में कोई भी वृद्धि भारत की आबादी के आधे से अधिक पानी की सुरक्षा के लिए हानिकारक होगी। यह इस समय का भीषणतम अनुपात का आपदा होगा।
चीनी नियंत्रित करने की सिफारिश के खिलाफ जाकर, भारत सरकार द्वारा प्रत्येक फर्म पर बिक्री कोटा सीमा नियम लाया गया और घरेलू बाजार में बिक्री के लिए न्यूनतम बिक्री मूल्य पेश किया।
खाद्य मंत्रालय ने जुलाई 2018 में 16.55 लाख टन और अगस्त 2018 में 19.20 लाख टन की कुल बिक्री सीमा लागू की। सरकार ने सफेद / परिष्कृत चीनी की न्यूनतम बिक्री मूल्य 29 रु प्रति किलो कर दी। इस बाजार विकृति ने चीनी की कृत्रिम कमी पैदा की, जिसके परिणामस्वरूप चीनी की कीमतों में मई 2018 के 2,650 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ कर जुलाई 2018 में 3,350 रुपये प्रति क्विंटल हो गई।
इस नीति के साथ समस्या यह है कि चीनी मिलें खुले बाजार में इष्टतम मात्रा बेचने में असमर्थ हैं। केंद्र सरकार द्वारा प्रत्येक फर्म पर लगाए गए अधिकतम बिक्री कोटा फर्मों की वांछित मात्रा को बेचने की क्षमता को प्रतिबंधित करता है। चीनी की ज्यादा कीमत लेकिन कम बिक्री का मतलब यह है कि चीनी मिलों का कुल मासिक राजस्व वही रहता है, जो बकाया राशि को हटाने की उनकी क्षमता पर प्रतिबंध लगाता है। कुल मिलाकर इसका मतलब है कि सरकार केवल समस्या को बढ़ा रही है। चीनी मिलें आगामी 2019 गन्ना क्रशिंग सीज़न को अनसुलझा स्टॉक और असुरक्षित बकाया राशि के विशाल बोझ के साथ शुरू करेगी। अवैतनिक बकाया राशि के कारण किसान पहले से ही बहुत परेशान हैं यह आगे उनकी चुनौतियों को कई गुना तक बढ़ा सकता है।
केंद्र सरकार द्वारा मासिक चीनी कोटा आवंटन में उत्तर प्रदेश के साथ अनुचित व्यवहार किया गया है। चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक (36.1% हिस्सा) होने के बावजूद और बकाया राशि (लगभग 65% हिस्सेदारी) में उच्चतम हिस्सेदारी होने के बावजूद यूपी को आवंटित जून-अगस्त में केंद्र द्वारा आवंटित कोटे में केवल 32% हिस्सा ही दिया गया है। जबकि महाराष्ट्र में कम चीनी उत्पादन हिस्सेदारी (34%) और बकाया राशि (6.5%) में काफी कम हिस्सेदारी है, आवंटित कोटे में 37.7% हिस्सेदारी दी गई है। यह यूपी चीनी किसानों के बकाये की समस्या को और बढ़ा रहा है |
2019 में एक और अपेक्षित बम्पर स्टॉक और गन्ना फसल वर्तमान साल के स्टॉक यानि कि दोनों संयुक्त स्टॉक की वजह से किसानों और उद्योगों को ढेर सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। आंकड़ों से पता चलता है कि गन्ना के क्षेत्र में 1.6% की वृद्धि हुई है जबकि 2017-18 की तुलना में खरीफ सीजन में कुल क्षेत्र 9.3% की गिरावट दर्ज की गई है। उद्योग के अनुमान (चित्र 1) से पता चलता है कि लगभग 26 मिलियन टन की घरेलू मांग के मुकाबले भारतीय चीनी उत्पादन 35.5 मिलियन टन के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंचने की संभावना है। सुस्त पड़े अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतों को देखते हुए, बड़ी मात्रा में निर्यात करना बहुत ही मुश्किल होगा। वास्तव में, इस साल सरकार को 2 मिलियन टन चीनी के निर्यात का प्रयास विफल रहा है क्योंकि सरकार निर्धारित न्यूनतम घरेलू कीमतें अभी भी गिरावट की ओर उन्मुख वैश्विक कीमतों से ज्यादा हैं। चीन को 1.5 मिलियन टन चीनी के निर्यात करने की अफवाहों पर बातचीत बाजार गर्म है और इंडोनेशिया में पूरा करने की संभावना नहीं है। थाईलैंड में फसल के बम्पर उत्पादन (2016-17 से 50%) और यूरोपीय संघ में 21 मिलियन टन के रिकॉर्ड उत्पादन की उम्मीद है (वहां 20 साल में सर्वाधिक उत्पादन आनुमानित है ) इन सारी वजहों से ब्राजील से उत्पादन में गिरावट की संभावना बावजूद वैश्विक कीमतें भी कम रहने की उम्मीद है। भारत में पहले से ही उपस्थित स्टॉक और 2019 में घरेलू मांग से 9.5 मिलियन टन की अतिरिक्त उत्पादन के उम्मीद मद्देनजर के समस्या के और बिकराल रूप धारण करने की संभावना है। इसका मतलब यह है कि गन्ना संकट अगले वर्ष न केवल दुबारा देश के सामने उपस्थित होगा बल्कि भयावह रूप धारण कर लेगा। चीनी मिलों को भारी बकाये के साथ देश में खासकर उत्तर प्रदेश में गन्ने की पेराई के मौसम में भारी बकाये के साथ शुरू किए जाने की संभावना है। जो कि मार्च 2019 तक और तेजी से बढ़ना शुरू हो जाएगा। गन्ने के पिछली फसल के बकाये के भुगतान न किये जाने की वजह से गन्ना किसानों के बीच भारी परेशानी का सबब बनी हुई है। ऐसा लगता है कि आने वाले वर्षों में उनकी चुनौतियों में भारी वृद्धि होगी। यहां पर बहुतों का भविष्य दांव पर लगा होगा - किसानों, मिलों, उद्योगों, अर्थशास्त्र, और शायद सरकार।
(लेखक आईआईएम के पूर्व प्रोफेसर और भारत के सामाजिक और आर्थिक मामलों के जानकार हैं)
(ये लेखक के निजी विचार और आंकड़े हैं)
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