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हाऊ कैन यू रोक धर्मेंद्र यादव?

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हमें धर्मेंद्र यादव को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने इतने साहस के साथ आजमगढ में एक पुलिस अधिकारी से 'हाऊ कैन यू रोक' कहा जो कि इस समय सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। कई बार नेताओं के माध्यम से राष्ट्र की वास्तविकता बोलती है और ऐसा ही इस वाक्य में हुआ है। निश्चय ही यह अंग्रेजी का उनका अपना मैनपुरी संस्करण है। भारत के लोग ऐसी ही अंग्रेजी जानते हैं और बमुश्किल एक प्रतिशत आबादी शिव नाडार स्कूल जैसे संस्थानों में पढ़ती है। हाल तो ये है कि पटना- दरभंगा के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े बच्चों को भी दिल्ली-मुंबई वाले अपने टाइप नहीं मानते, क्योंकि उनके 'एक्सेंट' से लेकर 'मैनर्स' तक कमजोर होते हैं। कुछ-कुछ वैसा ही जैसे बिहार या पूर्वांचल वालों की हिंदी का हाल तक मौज लिया जाता था।

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'हाऊ कैन यू रोक' और हिंग्लिश में थोड़ा ही अंतर है। 'हाऊ कैन यू रोक' अपने चरित्र में उपरिगामी है. जबकि दिल्ली-मुंबई टाइप की हिंग्लिश अधोगामी है। मेरा दोस्त कहता है कि 'मैं तो बहुत टायर्ड हूं' या 'माई फ्लैट इज खाली ऑन शनिवार' या फिर 'वी कैन डू माछ-भात पार्टी', तो इसे कूल समझा जाता है, लेकिन 'हाऊ कैन यू रोक' को खराब समझा जा रहा है।

जिस सोशल मीडिया पर धर्मेन्द्र यादव की भाषा का मजाक उड़ाया जा रहा है उस सोशल मीडिया की भाषा क्या है? खासकर ट्विटर ने भी एक भाषा विकसित किया है, जिसे कूल समझा जाता है। ट्विटर पर जिस तरह से अंग्रेजी की धज्जी उड़ाकर साइन लैंग्वेज में तब्दील कर दिया गया है, उसमें तो जो जितना संक्षिप्तीकरण कर सकता है, वो उतना बड़ा शेक्सपीयर है। और ह्वाट्सएप्प पर? वहाँ तो कल ही किसी ने 'नो प्रॉब्लेम' के लिए NP लिखकर भेज दिया। लगा कि नेशनल पॉलटिक्स तो नहीं लिख रहा है? लेकिन संदर्भ बन नहीं रहा था, तो गूगल करना पड़ा और फिर मालूम हुआ।

दरअसल, हाऊ कैन यू रोक का मज़ाक ही कॉलोनियल मानसिकता है। एक बात और, धर्मेंद्र जी यादव न होते, फर्ज कीजिए वे वरुण गांधी होते तो क्या लोग इस बात पर इतनी मौज लेते? मुझे संदेह है।

मुझे लगता है, भारत की 50-60 फीसदी आबादी ये अंग्रेजी आसानी से समझ लेगी। हमारे बहुत सारे ऑफिसों में ऐसी ही भाषा चलती है। आईटी वाले बंदे से बात करिए तो वो ऐसी अंग्रेजी सुनाएगा कि दिन बन जाएगा। लेकिन वो अपने काम में परफेक्ट है।

अमेरिका में आपसे कोई नहीं पूछता कि आप कितनी शुद्ध भाषा बोलते हैं। आपका काम मान लीजिए कुकिंग है, या सेल्स का है या मैथ पढ़ाना है, तो वही मायने रखता है। अंग्रेजी तो टूटी-फूटी सब बोल लेते हैं। ये भारत में ही है कि सब को शुद्ध अंग्रेजी चाहिए। भले ही शुद्ध हिंदी या कन्नड़ न बोलनी आए।

दिल्ली में ही सैकड़ो जगहों पर अशुद्ध हिंदी के साइनबोर्ड होंगे, लेकिन लोग उसे देख कर निकल जाते हैं क्योंकि उस अशुद्धता में भी हम समझ जाते हैं कि लिखनेवाला कहना क्या चाहता है। हमें उतने से ही मतलब होता है। कोई उस विभाग को ईमेल नहीं करता कि आपने यहां अशुद्ध हिन्दी लिख दी है। लेकिन अशुद्ध अंग्रेजी से मानो महारानी एलिजाबेथ का दिल टूट जाता है!

लंबी गुलामी खुद से घृणा करना सिखा देती है। भारत में इसकी जड़े इतनी गहरी हैं कि उसका ठीक से आकलन तक नहीं हुआ है। लड़ाई और समाधान तो दूर की बात है। संभवत: गांधी पहले राजनेता थे जिन्होंने इसकी थोड़ी सी मैपिंग की थी। उन्होंने संस्कृति के औजार के तौर पर भाषा और उसके नुकीले दाँतों को देख लिया था और उस जमाने में गुजराती और हिंदी माध्यम के स्कूल खोले थे। लेकिन आजादी के बाद शिक्षा-संस्कृति जगत में वाम वर्चस्व ने डिकॉलोनाइजेशन की प्रक्रिया को खत्म कर दिया और रही सही कसर नब्बे के दशक में आये ग्लोबलाइजेशन ने पूरी कर दी। अब आपको कहा जाता है कि आप अमेरिकी लहजे वाली अंग्रेजी बोलिए, माता-पिता को लगभग उत्पीड़ित किया जाता है कि वे घर पर बच्चों के साथ अंग्रेजी में बोले और दिन में दो घंटा यूट्यूब पर खुद भी अमेरिकी अंग्रेजी सुनें।

लेकिन इस देश के हजारो-हजार इंजिनीयर, आईटी वाले, डिप्लोमा वाले, हेल्थकेयर स्टाफ, नर्सिंग स्टाफ, कुकिंग स्टाफ, ड्राइवर ऐसी ही अंग्रेजी जानते हैं, जैसा धर्मेंद्र यादव ने बोला है। अमेरिकन एक्सेंट वाली अंग्रेजी तो प्रणब मुखर्जी भी नहीं जानते थे। आप अगर पुराने लोगों की अंग्रेजी सुनेंगे तो आपको वैसा नहीं लगेगा।

अंग्रेजी का आंतक हाल के दशकों में ज्यादा बढ़ा है जब से कॉरपोरेट नौकरियों में अंग्रेजी बोलना अतिआवश्यक हो गया है। उसका एक कारण भारत में मैनुफैक्चरिंग सेक्टर का कम विकास भी है। हम खेती-किसानी से सीधे उछलकर सर्विस सेक्टर पर चले गए जहाँ ऑफिस में बैठकर ज्यादा काम होता है और शारीरिक श्रम या किसी खास कौशल की जरूरत कम होती है। ऐसे में अंग्रेजी वालों के बल्ले-बल्ले हो गयी, जिनको कुछ नहीं आता था, वे भी पैसा लूटने लगे।

लेकिन यह तय है कि भारत जैसे देश में अमरीकी लहजे वाली एक्सेन्टेड अंग्रेजी बोलने वाले हमेशा कम रहेंगे। पिछले दो सौ सालों का अंग्रेजी ढांचा यहाँ पर मुट्ठी भर लोगों को अंग्रेजी सिखा पाया है, ये हमारी भाषाओं के लिए और संस्कृति के लिए भी एक राहत की बात है। ऐसे में धर्मेंद्र यादव के 'हाऊ कैन यू रोक' का जो लोग मजाक उड़ा रहे हैं उनसे डटकर पूछिये कि 'हाऊ कैन यू टोक हिम?'

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(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)

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