भारत में स्कूली शिक्षा का विकास: बदलाव और चुनौतियां
नई दिल्ली। सार्वजनिक शिक्षा एक आधुनिक विचार है, जिसमें सभी बच्चों को चाहे वे किसी भी लिंग, जाति, वर्ग, भाषा आदि के हों, शिक्षा उपलब्ध कराना शासन का कर्तव्य माना जाता है. भारत में वर्तमान आधुनिक शिक्षा का राष्ट्रीय ढांचा और प्रबन्ध औपनिवेशिक काल और आजादी के बाद के दौर में ही खड़ा हुआ है. 1757 में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के हुकूमत की शुरुआत हुई तब यहां राज्य द्वारा समर्थित एवं संचालित कोई ठोस शिक्षा व्यवस्था नहीं थी. हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की अपनी निजी शिक्षा व्यवस्थाएं थीं।
प्रारंभ में अंग्रेजों की नीति भारत में पहले से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था का सहयोग करने की थी और जोर जोर इस पर था कि देश का शासन चलाने में उनकी मदद करने के लिए भारतीय अधिकारियों को संस्कृत,फारसी और अरबी में अच्छी तरह निपुण किया जाये और परंपरागत हिन्दू और मुस्लिम अभिजात वर्ग में अपनी साख बनायीं जा सके. इसी को ध्यान में रखत हुए 1781 में इस्लामी अध्ययन मुहैया कराने के लिए कलकत्ता मदरसा, 1792 में बनारस में बनारस संस्कृत कालेज आदि की स्थापना की गयी।
कालांतर में इस नीति में बदलाव हुआ अंग्रेजी शासन के लिए आधुनिक शिक्षा प्राप्त वर्ग की जरूरत महसूस की गयी. भाव भी था कि कैसे अज्ञानी भारतियों को अंधकार से दूर करके उन्हें सभ्य बनाया जाये जिसमें यूरोप के विज्ञान, कला, अंग्रेजी शिक्षा इसे ईसाइयत के प्रचार को साधन भी माना गया।
मैकाले के अनुसार- 'अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तिओं के एक ऐसे वर्ग का निर्माण करना था जो रंग और रक्त में भारतीय हो लेकिन रुचियों, विचारों, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज हो. एक ऐसा वर्ग जो सरकार और लाखों लोगों के बीच मध्यस्थ के तौर पर सेवा दे सके।'
आए थे परीक्षा देने, तभी पता चला स्कूल की मान्यता रद्द हो गई, गुस्साए घरवालों ने मचाई तोड़फोड़
इसके बाद 1837 में बड़ा बदलाव होता है और राजकाज एवं न्यायालय की भाषा से फारसी को हटाकर अंग्रेजी कर दी जाती है. 1844 इस बात की विधवत घोषणा कर डी जाती है कि सरकारी नियुक्तियों में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को ही तरजीह दी जाएगी. इसी के साथ ही कलकत्ता,मद्रास और बम्बई विश्वविद्यालयों जैसे आधुनिक शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की जाती है।
इस दौर में एक खास बात यह होती है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी, मिशनरियों और बर्तानी हुकूमत द्वारा स्थापित स्कूल-कालेज सभी भारतीयों के लिए खुले थे. इस दौरान अंग्रेजो द्वारा एक स्पष्ट नीति अपनाई गई कि किसी अछूत बच्चे के सरकारी स्कूल में प्रवेश से इंकार नहीं किया जाएगा. यह एक बड़ा बदलाव था जिसने सभी भारतीयों के लिए शिक्षा का दरवाजा खोल दिया।
1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को नि:शुल्क और अनिवार्य करने का प्रयास किया. पहली बार किसी राष्ट्रीय मंच से अनिवार्य शिक्षा का सवाल उठाया गया. इसके विरोध में सरकारी पक्ष के सदस्य एवं सामंती तत्व एकजुट हो गये. फलतः गोखले का प्रस्ताव बहुमत से खारिज हो गया लेकिन गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा उठायी गयी अनिवार्य शिक्षा की मांग अभी तक बनी हुई है।
आजादी के बाद भारतीय राज्य का फोकस प्राथमिक शिक्षा पर नहीं था इसलिए शुरुवाती वर्षों में इसको लेकर कोई विशेष प्रयास नहीं किये गए, पूरा जोर उघोगिकी विकास और उच्च शिक्षा पर था. इसलिए 1948 में उच्च शिक्षा के लिए राधाकृष्णन आयोग का गठन किया गया. इसी तरह 1952 में दूसरा आयोग गठित किया गया जिसका संबंध माध्यमिक शिक्षा से था. प्राथमिक शिक्षा पर आते आते लगभग 17 साल लग गए और 1964 में कोठारी आयोग का गठन किया गया. प्रो. दौलत सिंह कोठारी अध्यक्षता में गठित यह भारत का ऐसा पहला शिक्षा आयोग था जिसने प्राथमिक शिक्षा पर विचार किया और इसको लेकर कुछ ठोस सुझाव दिए।
पहला आयोग था जिसने सामंती एवं परंपरागत ढांचे पर आधारित औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली का पुरजोर विरोध् किया.उन्होंने कहा 'अब देश को ऐसे शिक्षा प्रणाली की जरूरत है जो अपने में बुनियादी मानवीय मूल्यों को समाहित करते हुए आधुनिक लोकतांत्रिक समाजवादी समाज के जरूरतों के अनुरूप हो.'कोठारी आयोग ने विस्तार से भारतीय-शिक्षा पद्धति का अध्ययन किया. इसके परिणामस्वरूप ही वर्ष 1968 में भारत की पहली "राष्ट्रीय शिक्षा-नीति" अस्तित्व में आ सकी।
कोठारी आयोग ने भारतीय शिक्षा के निम्न उद्देश्य निर्धारित किये-
•
सामाजिक
एवं
राष्ट्रीय
एकता
का
विकास,
•
जनतंत्र
के
सुद्रढ़
बनाना,
•
देश
का
आधुनिकीकरण
करना,
•
सामाजिक,
नैतिक
तथा
अध्यात्मिक
मूल्यों
का
विकास
करना
उत्पादन
में
वृद्धि
करना।
कोठारी आयोग के कई ऐसे महत्वपूर्ण सुझाव दिये थे जो आज भी लक्ष्य बने हुए हैं. आयोग या सुझाव था कि समाज के अन्दर व्याप्त जड़ता सामाजिक भेद-भाव को समूल नष्ट करने के लिए समान स्कूल प्रणाली एक कारगर औजार होगा. समान स्कूल वयवस्था के आधार पर ही सभी वर्गों और समुदायों के बच्चे एक साथ सामान शिक्षा पा सकते हैं अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के उच्च वर्गों के लोग सरकारी स्कूल से भागकर प्राइवेट स्कूलों का रुख़ करेंगे और पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी।
आयोग ने कई और महत्वपूर्ण सुझाव दिये थे जिसमें कुछ प्रमुख सुझाव निम्नानुसार हैं।
•
शिक्षा
के
बजट
पर
कुल
घरेलू
उत्पाद
का
6%
खर्च
करना
चाहिए.
•
देश
की
शिक्षा
स्नातकोत्तर
स्तर
तक
अपनी
भाषाओं
में
दी
जानी
चाहिए.
•
आयोग
शिक्षा
की
बुनियादी
इकाइयों-विधार्थी,शिक्षक
और
स्कूल
को
स्वायत्तता
दिए
जाने
का
समर्थक
था.
•
आयोग
परीक्षा
की
सबसे
बड़ी
कमी
इसके
लिखित
स्वरूप
को
देखता
है
और
अवलोकन,मौखिक
परीक्षण
तथा
व्यवहारिक
अभ्यासों
को
इसके
साथ
जोड़ने
की
अनुशंसा
करता
है.
•
परीक्षा
के
परिणाम
में
उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण
की
टिप्पणी
को
प्रयुक्त
न
करने
की
सलाह
दी
थी।
•
बस्ते
के
बोझ
को
कम
करने,मूल्यांकन
पद्धति
को
भयमुक्त
इत्यादि
अनेक
सिफारिशें
की
हैं.
•
शिक्षा
को
काम
से
जोड़ा
जाना
चाहिए.
1968 में भारत की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति लायी गयी जिसमें 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चो को अनिवार्य शिक्षा ,शिक्षको के बेहतर क्षमतावर्धन के लिए उचित प्रशिक्षण जैसे प्रावधान किये गये और मातृभाषा मे शिक्षण पर विशेष ज़ोर दिया गया था।
1980 का दशक में भारत सरकार द्वारा द्वार देश में सामाजिक आर्थिक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र में हुए बदलाओं को देखते हुए "शिक्षा की चुनौती-नीतिगत परिप्रेक्ष्य" नाम से एक वस्तुस्थिति प्रपत्र बनाया गया . 1986 में इसी के आधार पर "राष्ट्रीय-शिक्षा-नीति"का निर्माण हुआ.इसमें कमजोर वर्गो के बच्चो की शिक्षा, 21 वीँ सदी की आवश्यकताओं के अनुरूप बच्चों में आवश्यक कौशल तथा योग्यताओं का विकास ,बाल केन्द्रित शिक्षा और शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों को शिक्षा से जोड़ने के जैसे प्रमुख विचार थीं।
1992 में 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को संशोधित किया गया . इस बीच 1 अप्रैल, 2010 को शिक्षा अधिकार कानून लागु किया गया. इस अधिनियम के लागू होने से 6 से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को अपने नजदीकी विद्यालय में निःशुल्क तथा अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पाने का कानूनी अधिकार मिल गया है. इस अधिनियम में गरीब परिवार के बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूलों में में 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा गया है।
वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा नयी शिक्षा नीति तैयार करने की दिशा में काम किया जा रहा है. शिक्षा नीति, 2017 का मसौदा तैयार करने के लिए प्रख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक एवं पद्म विभूषण विजेता डॉ. कस्तूरीरंजन के नेतृत्व में एक 9 सदस्यीय समिति का गठन किया गया है।
बड़े बदलाव-
•
1951
में
साक्षरता
दर,
18.43
प्रतिशत
थी,
जो
2011
में
बढ़कर
74.04
प्रतिशत
पहुँच
गयी
है।
•
1950
में
देश
के
प्राथमिक
और
उच्च
प्राथमिक
विद्यालयों
में
42.60
प्रतिशत
बच्चे
शिक्षा
ग्रहण
कर
रहे
थे,
आज
शिक्षा
प्राप्त
करने
वाले
बच्चों
की
संख्या
92
प्रतिशत
से
भी
अधिक
है।
•
प्राथमिक
स्तर
पर
सकल
दाखि़ला
अनुपात
1950-51
के
42.6
प्रतिशत
से
बढ़कर
2003-04
में
98.3
प्रतिशत
पहुँच
गया
है।
इसी
प्रकार
उच्च
प्राथमिक
स्तर
के
लिए
इसी
अवधि
में
यह
दर
12.7
प्रतिशत
से
बढ़कर
62.5
प्रतिशत
हो
गई
है।
•
1950
में
देश
में
प्राथमिक
विद्यालयों
की
कुल
संख्या
2.10
लाख
थी
जो
साल
2003-04
तक
7.12
लाख
हो
गई.
उच्च
प्राथमिक
विद्यालयों
की
संख्या
13600
से
19
गुना
बढ़कर
लगभग
2.62
लाख
हो
गई
है.
•
सन्
1950-51
में
कुल
प्राथमिक
विद्यालय
के
शिक्षकों
की
संख्या
6.24
लाख
थी
जो
2002-03
तक
बढ़कर
36.89
लाख
हो
गई.
महिला
शिक्षकों
की
संख्या
भी
इसी
अवधि
में
बढ़कर
0.95
लाख
से
14.88
लाख
हो
गई.
चुनौतियाँ
जो
अभी
भी
कायम
हैं
•
आजादी
के
बाद
गठित
सभी
शिक्षा
आयोगों
में
एक
बात
पर
आम
राय
रही
है
कि
शिक्षा
में
समानता
और
सामाजिक
न्याय
सुनिश्चित
करने
के
लिए
समान
स्कूली
शिक्षा
व्यवस्था
को
स्थापित
करना
पहला
कदम
है.
लेकिन
इन
सिफारिशों
को
हकीकत
में
बदलने
के
लिए
क्रियान्वयन
की
कोशिश
आज
भी
एक
सपना
है.
•
सावर्जनिक
शिक्षा
लगातार
कमजोर
हुआ
है
और
अब
यहाँ
ज्यादातर
सबसे
कमजोर
तबकों
के
बच्चे
ही
जाते
हैं.
•
जनगणना(2011)के
मुताबिक़
8.4
करोड़
बच्चे
स्कूल
ही
नहीं
जाते
है
जबकि
78
लाख
बच्चे
ऐसे
हैं
जो
स्कूल
तो
जाते
हैं
लेकिन
इसके
साथ
काम
पर
भी
जाते
हैं.
•
अनिवार्य
शिक्षा
का
प्रश्न
गोखले
के
सौ
बरसों
के
बाद
मुंह
बाये
खड़ा
है.इतना
अवश्य
हुआ
कि
6-14
वर्ष
के
बच्चों
के
लिए
शिक्षा
को
अनिवार्य
कर
दिया
गया।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)