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Sabarimala Temple Row: सनातन परंपराओं को कुरीतियां कह कर खारिज करने का षडयंत्र

By Dr Neelam Mahendra
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नई दिल्ली। 5 नवंबर को एक दिन की विशेष पूजा के लिए सबरीमाला मंदिर के द्वार कड़े पहरे में खुले। न्यायालय के आदेश के बावजूद किसी महिला ने मंदिर में प्रवेश की कोशिश नहीं की लेकिन कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश देने के न्यायालय के आदेश के विरोध को गलत ठहराया जा रहा है। इनका कहना है कि कुछ समय पहले जब ट्रिपल तलाक के खिलाफ न्यायायल का आदेश आया था तब उस सम्प्रदाय के लोग भी मजहबी परंपरा के नाम पर कोर्ट के इस फैसले का विरोध कर रहे थे। लेकिन उस समय जो लोग ट्रिपल तलाक को उस सम्प्रदाय की एक कुप्रथा कहकर न्यायालय के आदेश का समर्थन कर रहे थे, आज जब बात उनकी एक धार्मिक परंपरा को खत्म करने की आई, तो ये लोग अपनी धार्मिक आस्था की दुहाई दे रहे हैं।

सनातन परम्पराओं को कुरीतियां कह कर खारिज करने का षडयंत्र

अपने इस आचरण से ये लोग अपने दोहरे चरित्र का प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए कुछ तथ्य....

  • अब यह प्रमाणित हो चुका है, मंदिर में वो ही औरतें प्रवेश करना चाहती हैं जिनकी भगवान अय्यप्पा में कोई आस्था ही नहीं है। जबकि जिन महिलाओं की अय्यप्पा में आस्था है, वे न तो खुद और न ही किसी और महिला को मंदिर में जाने देना चाहती हैं। इसका सबूत ताजा घटनाक्रम में केंद्रीय मंत्री केजे अल्फोंन्स का वो बयान है जिसमें उन्होंने कहा है कि मंदिर में जो महिलाएं प्रवेश करना चाहती थीं वे कानून व्यवस्था में खलल डालने के इरादे से ऐसा करना चाहती थीं। एक मुस्लिम महिला जो मस्जिद तक नहीं जाती, एक ईसाई लड़की जो चर्च तक नहीं जाती।
  • यह भी पढ़ें: Sabrimala Row: महिलाओं के लिए ये कैसी लड़ाई जिसे महिलाओं का ही समर्थन नहीं
  • ऐसी बातें सामने आ जाने के बाद, यह इन बुद्धिजीवियों के आत्ममंथन का विषय होना चाहिए कि कहीं ये लोग सनातन परम्पराओं को अंध विश्वास या कुरीतियाँ कह कर खारिज करने के कुत्सित षडयंत्र का जाने अनजाने एक हिस्सा तो नहीं बन रहे?
  • इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदू धर्म एक मात्र ऐसा धर्म है जो नए विचारों को खुले दिल से स्वीकार करता है और अपने अनुयायी को अपने हिसाब से पूजा करने या न करने की आजादी भी देता है।
  • यह अतुल्य है क्योंकि कट्टर नहीं है,यह कट्टर नहीं है क्योंकि यह उदार है ,यह उदार है क्योंकि यह समावेशी है,यह समावेशी है क्योंकि यह जिज्ञासु है,यह जिज्ञासु है क्योंकि यह विलक्षण है।
  • शायद इसलिए इसकी अनेकों शाखाएँ भी विकसित हुईं, सिख जैन बौद्ध वैष्णव आर्य समाज लिंगायत आदि।
  • अन्य पंथो के विपरीत जहाँ एक ईश्वरवादी सिद्धान्त पाया जाता है, और ईश्वर को भी सीमाओं में बांधकर उसको एक ही नाम से जाना जाता है और उसके एक ही रूप को पूजा भी जाता है, हिन्दू धर्म में एक ही ईश्वर को अनेक नामों से जाना भी जाता है और उसके अनेक रूपों को पूजा भी जाता है। खास बात यह है कि उस देवता का देवत्व हर रूप में अलग होता है, जैसे कृष्ण भगवान के बाल रूप को भी पूजा जाता है और ,उनके गोपियों के साथ उनकी रासलीला वाले रूप को भी पूजा जाता है। लेकिन इन रूपों से बिल्कुल विपरीत उनका कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान देते चक्रधारी रूप का भी वंदन भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में किया जाता है।
  • इसी प्रकार माँ दुर्गा के भी अनेक रूपों की स्तुति की जाती है। हर रूप का अपना नाम अपनी पूजन पद्धति है और विशेष बात यह है, कि हर रूप में देवी की शक्तियां भिन्न हैं। जैसे नैना देवी मंदिर को उनके सती रूप की ,कलिका मंदिर में काली रूप की,कन्याकुमारी मंदिर में कन्या रूप की तो कामाख्या मंदिर में उनके रजस्वला रूप की उपासना की जाती है।
  • यह बात सही है कि समय के साथ हिन्दू धर्म में कुछ कुरीतियाँ भी आईं जिनमें से कुछ को दूर किया गया जैसे सति प्रथा और कुछ अभी भी हैं जैसे बाल विवाह जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है।
  • लेकिन किसी परंपरा को खत्म करने से पहले इतना तो जान ही लेना चाहिये कि क्या वाकई में वो "कुप्रथा" ही है ?
  • यहां सबसे पहले तो यह विषय स्पष्ट होना आवश्यक है की इस परंपरा का ट्रिपल तलाक से कोई मेल नहीं है।क्योंकि जहाँ पति के मुख से निकले तीन शब्दों से एक औरत ना सिर्फ अकल्पनीय मानसिक प्रताड़ना के दौर से गुजरती थी, उसका शरीर भी एक जीती जागती जिंदा लाश बन जाता था क्योंकि यह कुप्रथा यहीं समाप्त नहीं होती थी। इसके बाद वो हलाला जैसी एक और कुप्रथा से गुजरने के लिए मजबूर की जाती थी।
  • वहीं सबरीमाला मंदिर में एक खास आयु वर्ग के दौरान महिलाओं के मंदिर में न जाने देने से ना उसे कोई मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है और न ही किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट । इसलिए सर्वप्रथम तो जो लोग दोनों विषय मिला रहे हैं उनका मकसद शायद मूल विषय से लोगों का ध्यान भटकाना है।
  • इस विषय से जुड़ा एक और भ्रम जिसे दूर करना आवश्यक है,वो यह कि मासिक चक्र के दौरान हिन्दू धर्म में महिला को अछूत माना जाता है। यह एक दुष्प्रचार के अलावा कुछ और नहीं है क्योंकि अगर सनातन परंपरा में मासिक चक्र की अवस्था में स्त्री को "अछूत" माना जाता तो कामख्या देवी की पूजा नहीं की जाती।
  • अगर मासिक चक्र के दौरान महिला के शरीर की स्थिति को आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तो इस समय स्त्री का शरीर विभिन्न क्रियाओं से गुजर रहा होता है। यह सिद्ध हो चुका है कि मासिक चक्र के दौरान महिलाओं की बीएमआर (BMR) लेकर हर शाररिक क्रिया की चाल बदल जाती है। यहां तक कि उसका शारीरक तापमान भी इन दिनों सामान्य दिनों की अपेक्षा बढ़ जाता है, क्योंकि इस दौरान उसके शरीर में होर्मोन के स्तर में उतार चड़ाव होता है । दूसरे शब्दों में इस अवस्था में महिला "अछूत' नहीं होती बल्कि कुछ विशेष शारिरिक और मानसिक क्रियाओँ से गुजर रही होती है। यह तो हम सभी मानते हैं कि हर वस्तु चाहे सजीव हो या निर्जीव, एक ऊर्जा विसर्जित करती है। इसी प्रकार मासिक चक्र की स्थिति में स्त्री एक अलग प्रकार की उर्जा का केंद्र बन जाती है। जिसे आधुनिक विज्ञान केवल तापमान का बढ़ना मानता है, वो दरअसल एक प्रकार की ऊर्जा की उत्पत्ति होती है। खास बात यह है कि किसी भी पवित्र स्थान में ऊर्जा का संचार ऊपर की दिशा में होता है, लेकिन मासिक चक्र की अवधि स्त्री शरीर में ऊर्जा का प्रभाव नीचे की तरफ होता है(रक्तस्राव के कारण)।
  • अतः समझने वाला विषय यह है कि मासिक चक्र के दौरान मंदिर जैसे आध्यात्मिक एवं शक्तिशाली स्थान पर महिलाओं को न जाने देना "कुप्रथा" नहीं है, और ना ही उनके साथ भेदभाव बल्कि एक दृष्टिकोण अवश्य है जो शायद भविष्य में वैज्ञानिक भी सिद्ध हो जाए जैसे ॐ,योग और मंत्रों के उच्चारणों से होने वाले लाभों के आगे आज भी नतमस्तक है।

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English summary
Protests and minor clashes were reported from the famous Sabarimala Temple in Kerala on Tuesday in which some media persons were injured.
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